रात्रि के आरम्भिक क्षण

*रात्रि के आरम्भिक क्षणों में* .......

*जय जय राधिका माधव*

   प्रेमी के पथ में निराशा झाड़ू लगाती है ।आशा के लिए पथ को बुहार स्वच्छ कर देती है।

     रात्रि के आरम्भिक क्षणों  में ही, माधव की मुरलिका गूंज उठी ।उसकी मनहर चहक ने ,संपूर्ण वन प्रांत को मुखरित कर दिया ।शिशिर विहार से उद्वेलितमना ब्रजरमणी वृण्द ने ,वह ध्वनि, मन प्राणों को खींचने वाली, वह प्रेम-प्रवाहिनी ,स्वर लहरी सुनी ।उनके प्राणों में, विद्युत का संचार हुआ ।अंतर में रसत्वरा अकुला उठी,पगों ने मन की गति को पराजित किया और वे सब अपने-अपने गृह द्वारों से भाग निकली, उन्हें ना घर की सुधि थी, ना घरवालों का भय। दामिनी की चपल थिरकन ले, वे शीघ्रातिशीघ्र उसी वनप्रांत में जा पहुंची ,जहां उनके अंतर में दबी,प्रणयाग्नि को अपनी.... स्वर -समीरण की मदिर गति से ,भड़काने वाले रसीले प्रियतम खड़े थे ।सघन कदंब वृक्ष की छाया में, श्यामल वारिधि मधुर हिलोरे ले रहा था ....अभी विद्युतमंडल ने अपना हास बिखेरा ना था। वनप्रान्त में  तमाच्छनता का साम्राज्य था, पर किसी के प्रणयराग से खिंचकर आती हुई ,इन सुंदरियों को कोई भय ना था। उस अंधकार को ,चीरती भागती चली आ रही थी।इतने शीत में भी उन्हें..... ठंड की होश न थी ।उस वनप्रांत में आ कुछ दूर पर ,उन्होंने देखा .....वही श्यामल प्रकाश, उसमें जगमग करती मणियों का रंग बिखरा आलोक ।मानो आभूषण में जटित मणियां उन ललनाओं के मार्ग को प्रशस्त कर रही हों ।अब तक उन्हें ठंड का भी पता ना था, पर सामने के उस लावण्य सिंधु की मधुरिम विचियों की शीतलता ने ,उनको रोमांचित कर दिया । कोमल गात, किसी सरस कंपन को ले, सिहर उठे ।उन्होंने देखा कदंब वृक्ष के नीचे ,उनके प्राणों का मदिर विभव ,उनके रागानुराग की सरस् संपदा, उनके प्रणय का वह मधुकोष, खड़ा -खड़ा मुस्कुरा रहा है। वँशी वाम कर में सुशोभित है। दक्षिण कर कमल से वह अपनी कमली को संभाल रहे हैं ।शीश पर मुकुट सुशोभित है ।उसमें पाँच मोर पंख लहलहा रही हैं मानो उन्हें समीप आने की और -और आतुरी लगा रहे हों। मुकुट में जटित,मणियों के रंगीन प्रकाश को ,अपने अंक में लिए नीलिमा वेष्टित वह वनप्रांत ....और उस नीरव प्रशांत स्थली में ,उनके वह सौंदर्य माधुर्य निधि प्रियतम।

    आज वह ठिठकी नहीं ।न जाने किस रसातुरी से विवश हुई ,वे बढ़ती गई और यह लो, पहुंच गई अपने प्राणबंधु के समीप ।नंदनंदन की मुस्कान हास बन फूट पड़ी ,खिल खिलाकर बोले ,"आ गई तुम?मैं कब से तुम्हारी बाट जोह रहा था ।"प्रियतम की खिलखिलाहट और ममता भरी वाणी ,ने उन सुधबुध हारी ललनाओं को सजग  किया ,वह मुस्कुरा दी, पर कुछ कह ना सकीं।उनके श्वास की गति अभी संयम में न आई थी ।प्रियतम ने ,उनकी स्पंदित उर स्थली को ,भांति -भांति से आश्रय दिया। अब वह कुछ संभली, होश में आयीं ।उन्हें याद आया कि उनके राग की मूर्ति, यह सांवरकिशोर इतनी शीत पूर्ण अंधियारी निशा में उन्हीं के लिए ,उस शीतल कदंब कुंज में आ ,उनका पथ निहार रहे थे। उनके मधुर मुखमंडल, किसी सरस् आद्रता से आच्छादित हो गए।प्रण्यविज्ञ प्रियतम ,उनके मन की बात समझ गए ,हंसकर बोले ,"देखो इस कुंज में कहीं शीत का नाम भी नहीं है ,तुम ही बताओ तुम्हें ठंड लग रही है क्या ? यदि लग रही है तो आओ और भीतर चलें।

    अब प्रिय के संग ,वे सुंदरियां उस कुंज के गर्भगृह में प्रविष्ट हुई। उन्होंने देखा , उस स्वच्छ स्थली में एक कोमल वस्त्र बिछा है ।उस पर पग धरते ही लगा, कि मानो नरम- नरम बिछोने बिछे हो। बीचोबीच एक स्वर्णिम चौकी पर सोने -चांदी जटित एक  टोकरी धरी है, उस पर मीनाकारी के काम का ढक्कन ढका है ।बाहर की कुंज में अधिक नहीं पर कुछ- कुछ ठंड थी और यहां भीतरी कुंज में तो कहीं शीत का नाम भी ना था ।प्रियतम उन्हें लिए उस चौकी के पास आसीन हुए और उन्होंने ढककन उतारकर चौकी के पास ही धर दिया ।कुछ क्षणों में रंग बिरंगी चमक से संपूर्ण स्थली जगमगा उठी, और हल्की उष्णता सारे में व्याप्त हो गई ।

    आज इन ब्रज किशोरियों के आनंद की सीमा ना थी। अनुराग पूर्ण संकोच से उनका हृदय उमड़ा आ रहा था कि हमने उनके लिए ,सारी व्यवस्था स्वयं की ।उनके मुखमंडल प्रेम पूर्ण कृतज्ञता से और -और मधुरिम हो गए।उस मधुरिमा पर  रसलोभी प्रियतम के रसग्राही नयन भृमर.....।बाहर से आ शिशिर ब्यार की सनसन ध्वनि , उन्हें न जाने क्या-क्या किए दे रही थी ।....लगता था  वह आकुल हुई भीतर आने को अधीर हो रही है ,पर भीतर प्रवेश पाना सुगम न था जब कभी वृक्षों  की आड़ से तनिक सा भी झांकती तो, बसंत समीर उसे ,अपने में लय कर लेती। मणियों की उष्णता का समावेश उसे और -और सुखद कर ,इन प्रियाओं सहित प्रियतम को किसी नवल लालसा से पूरित कर देता .....।सहसा किसी ने उनका स्वागत किया। किसी नूतन रस की बौछार में सिक्त , वह बाला रोमांचित हो गई ।...किसी पर किसी प्रियतम की रागदृष्टि जो पड़ी,तो वह सिहर उठी, उससे संभला न गया।  श्यामल कर सरोज ने उसे सहारा दिया। प्रणय भार से दबी, किसी सुकुमारी को प्रियतम के दूसरे कर कमल ने  रसालम्बन दिया। उनकी अत्यधिक प्रणय बौछार को, सहन करने में असमर्थ, किसी किशोरी ने .....उनके सुस्निग्ध घुटने पर मस्तक टिका दिया। सामने बैठी किसी उन्मादिनी .... के सुभग गात को चरण नख से स्पर्श कर.... दूसरा पद-पदम् किसी रसतृष्नातुरा के अंक में धर दिया। अनेकानेक विधियों से अनेक बालाओं को ,प्रियतम ने दुलारा ।उन्हें  अपने प्रणय से सींचा। प्रणय मदिरा का पान करा उनमें नव-नव रसोन्माद का संचार किया फिर उस रस संचार की सरसता को विविध विधियों से सत्कृत किया। रस के आगाध वारिधि में ....मदलहरियों का वह उन्मत्त- नर्तन.... और उन मधुरिम धाराओं की चपल  थिरकन में ,अपनी संपूर्ण सजगता को ...लुटाये वह रसबावरी मदोन्मता सुकुमारी ललनाएँ... क्या पता कब तक... यह रससिंधु उमड़ -घुमड़ कर इन रस सरिताओं को... अपने अंक सुख में बोरता रहा और अनेकानेक रसतरंगिणी सी वे बालाएं, अपने उस सूरत सिंधु में किस -किस तरह विक्रीड़ित होती रहीं......।

जय जय राधिका माधव।

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