राधा प्रेम का स्वरूप

।।श्रीराधा।।
     
श्रीराधा चिन्तन
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श्रीराधा-प्रेम का स्वरूप

आपने श्रीराधाजी के प्रेम का स्वरूप पूछा सो इसका उत्तर मैं प्रेमशून्य जीव क्या दूँ, यद्यपि मैं ‘श्रीराधा’ पर बोलने-लिखने का दुस्साहस सदा करता रहता हूँ। मुझे इसमें सुख मिलता है। इसी से ऐसा करता हूँ। श्रीराधा या श्रीराधा-प्रेम-तत्त्व का विवेचन मेरी शक्ति से परे की चीज है। पर सदा लिखता हूँ— इसलिये आपकी इच्छानुसार कुछ शब्द लिख रहा हूँ।
श्रीराधाजी का प्रेम अचिन्त्य और अनिर्वचनीय है। उसका वर्णन तो स्वयं श्रीराधा भी नहीं कर सकती हैं, और न श्रीमाधव ही करने में समर्थ हैं। कहने के लिये इतना ही कहा जा सकता है कि वह प्रेम परम विशुद्ध तथा परम उज्ज्वल है। जो शब्दों में समा ही नहीं सकता! सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। और महसूस भी वही कर सकता है जिस पर श्रीराधारानी की असीम कृपा हो, यद्यपि श्रीराधाप्रेम की कोई उपमा नहीं है। किंतु साधकों की जिज्ञासावश हम बस इतना ही कह सकते है, कि जैसे स्वर्ण को बार-बार अग्नि में जलाने पर जैसे उसमें मिली हुई दूसरी धातु या दूसरी चीजें जल जाती हैं और वह स्वर्ण जैसे अत्यन्त विशुद्ध और उज्ज्वल हो जाता है, वैसे ही श्रीराधा का प्रेम केवल विशुद्ध प्रेम है। पर वह स्वर्ण की भाँति जलाने पर विशुद्ध नहीं हुआ है, वह तो सहज ही, स्वरूपतः ही ऐसा है।
सच्चिदानन्दमय में दूसरी धातु आती ही कहाँ से? यह तो साधको के लिये बतलाया गया है कि श्रीकृष्ण-प्रेम की साधना में परिपक्क व्रजरस के साधक के हृदय से दूसरे राग और दूसरे काम सर्वथा जल जाते हैं और उनका प्रेम एकान्त परिशुद्ध हो जाता है। श्रीराधाजी में यह दिव्य प्रेम सहज और परमोच्च शिखर पर आरूढ़ है। इसीलिए श्रीराधाप्रेम का दूसरा नाम अधिरूढ़ महाभाव है। इसमें केवल ‘प्रियतम-सुख’ ही सब कुछ है।

⚜ *श्रीराधा का त्यागमय एकांगी निर्मल भाव* :

पवित्रतम प्रेम-सुधामयी श्रीराधाजी ने प्रियतम प्रेमार्णव श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन करके सर्वसमर्पण कर दिया। अब वे आठों पहर उन्हीं के प्रेम-रस-सुधा-समुद्र में निमग्न रहने लगीं।
श्यामसुन्दर मिलें-न-मिलें- इसकी तनिक भी परवा न करके वे रात-दिन अकेले में बैठी मन-ही-मन किसी विचित्र दिव्य भावराज्य में विचरण किया करतीं। न किसी से कुछ कहतीं, न कुछ चाहतीं, न कहीं जातीं-आतीं। एक दिन एक अत्यन्त प्यारी सखी ने आकर बहुत ही स्नेह से इस अज्ञात विलक्षण दशा का कारण पूछा तथा यह जानना चाहा कि वह सबसे विरक्त होकर दिन-रात क्या करती है।
यह सुनकर श्रीराधा के नेत्रों से अश्रुबिन्दु गिरने लगे और वे बोलीं- ‘प्रिय सखी! हृदय की अति गोपनीय यह मेरी महामूल्यमयी अत्यन्त प्रिय वस्तु, जिसका मूल्य मैं भी नहीं जानती, किसी को दिखलाने, बतलाने या समझाने की वस्तु नहीं है; पर तेरे सामने सदा मेरा हृदय खुला रहा है। तू मेरी अत्यन्त अन्तरंग, मेरे ही सुख के लिये सर्वस्वत्यागिनी, परम विरागमयी, मेरे राग की मूर्तिमान् प्रतिमा है, इससे तुझे अपनी स्थिति, अपनी इच्छा, अभिलाषा का किंचित् दिग्दर्शन कराती हूँ। सुन—
‘प्रिय सखी! मेरे प्रभु के श्रीचरणों में मैं और जो कुछ भी मेरा था, सब समर्पित हो गया। मैंने किया नहीं, हो गया। जगत् में पता नहीं किस काल से जो मेरा डेरा लगा था, वह सारा डेरा सदा के लिये उठ गया। मेरी सारी ममता सभी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितियों से हट गयी, अब तो मेरी सम्पूर्ण ममता का सम्बन्ध केवल एक प्रियतम प्रभु से ही रह गया। जगत् में जहाँ कहीं भी, जितना भी, जो भी मेरा प्रेम, विश्वास और आत्मीयता का सम्बन्ध था, सब मिट गया।

[ क्रमशः]

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