ब्याहुला
*श्री जी का बिहाऊला*
श्री वृन्दावन धाम रसिक मन मोहई।
दूलह दुलहिनि ब्याह सहज तहाँ सोहई।।
नित्य सहाने पट अरु भूषन साजहीं।
नित्य नवल सम वैस एक रस राजहीं।।
सोभा कौ सिरमौर चन्द्रिका मोर की।
बरनी न जाइ कछु छवि नवल किशोर की।।
सुभग माँग रँग रेख मनो अनुराग की।
झलकत मौरी सीस सुरंग सुहाग की।।
मणिनु खचित नव कुंज रही जगमग जहाँ।
छवि को बन्यौ वितान सोई मंडप तहाँ।।
बेदी सेज सुदेस रची अति बानि कै।
भाँति-भाँति के फुल सुरंग बहु आनि कै।।
गावत मौर मराल सुहाए गीत री।
सहचरि भरी आनन्द करत रस रीत री।।
अलबेले सुकुँवार फिरत तिहि ठांवरी।
दृग अञ्चल परी ग्रन्थि लेत मन भाँवरी।।
कँगना प्रेम अनूप कबहुँ नहिं छूटहि।
पोयौ डोरी रूप सहज सो न टूटही।।
रुचि रहे कोमल कर अरु चरण सुरँग री।
सहज छबीले कुँवर निपुण सब अंग री।।
नुपूर कंकण किंकिणी बाजे बाजहीं।
निर्त्तत कोटि अनंग नारि सब लाजहीं।।
बाढ्यौ है मन मोहिं अधिक आनन्द री।
फुले फिरत किशोर वृन्दावन चंद री।।
सखियन किये बहु चार अनेक विनोद री।
दुधा भाती हेत बढ्यौ मन मोद री।।
ललित लाल की बात जबहि सखियन कही।
लाज सहित सुकुमारि ओट पट दै रही।।
नमित ग्रीव छवि सींव कुँवरि नहिं बोलहीं।
बुधि बल करत उपाय घूंघट पट खोलहीं।।
कनक कमल कर नील कलह अति कल बनी।
हँसत सखी सुख हेरि सहज सोभा घनी।।
बाम चरण सौं सीस लाल कौ लावहीं।
पानी वारि कुँवरि पर पियहि पियावहीं।।
मेलि सुगन्ध उगार सो बीरी खबावहीं।
समझि कुँवरि मुसिकाइ अधिक सुख पावहीं।।
और हास-परिहास रहसि रस रँग रह्यौ।
नित्य विहार विनोद यथामति कछु कह्यौ।।
अंचल ओट असीस सखी सब देहिं री।
पल-पल बढ़ो सुहाग नैंन सुख लेहिं री।।
जैसे नवल विलास नवल नवला करैं।
मन-मन की रुचि जान नेह बिधि अनुसरैं।।
बैठी है निज कुँज कुँवरि मन मोहनी।
झलकत रूप अपार सहज अति सोहनी।।
चाहि-चाहि सो रूप रसिक सिरमौर री।
भरी आये दोउ नैंन भई गति और री।।
अति आनन्द को मोद न उरहि समात री।
रीझि-रीझि रस भीजि आपु बलि जात री।।
अरुझे मन अरु नैंन बढ्यौ अनुराग री।
एक प्राण द्वै देह नागर अरु नागरी।।
यौ राजत दोऊ प्रीतम हँसि मुसिकात री।
निरखि परस्पर रूप न कबहुँ अघात री।।
तिनही के सुख रंग सखी दिन रँग मंगी
और न कछु सुहाइ एक रस सब पगीं।।
उभय रूपरस सिंधु मगन जहाँ सब भए।
दुर्लभ श्री पति आदि सोई सुख दिन नए।।
हित ध्रुव मंगल सहज नित्य जो गावहीं।
सर्वोपरि सोई होइ प्रेम रस पावहीं।।
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