mc 99

मीरा चरित 
भाग- 99

जब कुमकुम को चेत आया तो एक बार उसने भयपूर्ण दृष्टि से सबकी ओर देखा।सबकी नजरों से झरती हुई उपेक्षा को देखकर वह एकाएक मीरा के चरणों में सिर रखकर रो पड़ी- ‘मैं कुछ नहीं जानती अन्नदाता।मैं निर्दोष हूँ।मैं आपकी गाय हूँ, दया करावें।’
‘तुझे यह छाब किसने दी और क्या कहा तुझे?’- श्याम कुँवर बाईसा ने तनिक कठोर स्वर में पूछा।
‘मैं उसे नहीं पहचानती बाईसा हुकुम’- कुमकुम रोते हुये बोली- ‘मुझे तो ड्योढ़ी पर एक आदमी ने यह छाब पकड़ाई और कहा कि श्री जी ने बड़ी कुँवराणीसा के यहाँ शालिग्राम जी और फूल भेजे हैं सो रख आ।मैं तो अपनी भाभी से मिलने गई थी।वह आदमी उसी को छाब दे रहा था।मैनें आगे बढ़ कर अपने दुर्भाग्य को न्यौता दिया।भाभी का पाँव भारी है।यह सोचकर मैनें कहा कि मुझे दे दो, मैं पहुँचा आऊँ।उस व्यक्ति ने मेरा नाम और स्थान पूछा और कहा कि मेड़तणी जी साको नजर करना।किसी और को मत दे देना।मैनें स्वीकृति दी और लेकर चल पड़ी।बहुत समय से मन में हुजूर के दर्शन की लालसा थी।तरह तरह के मंसूबे बाँधती आ रही थी’- कुमकुम का गला भर आया, वाणी अवरूद्ध हो गई।एक क्षण रूक कर वह भरे कंठ से कहने लगी-‘मैं क्या जानती थी कि सिर पर अपनी मालकिन की मौत लिए जा रही हूँ।यदि मैं पहले से इस साज़िश के बारे में जानती होऊँ तो भगवान इसी समय मुझे अंधी कर दें अथवा मेरे प्राण हर लें’- फिर एकाएक चौंक कर बोली- ‘वे कहाँ गये दोनों कालींगड़?’
‘ये रहे’- मीरा ने एक हाथ से शालिग्राम जी को और दूसरे से गले में पड़े हार को छूते हुये बताया- ‘तुम डरो मत, मेरे साँवरे समर्थ हैं।’
‘मैं अभी जाकर काकोसा से पूछती हूँ कि यह क्या है? इतने दिन दूर से सुनती थी, आज आँखों से देखली इनकी करतूत’- श्यामकुँवर बाईसा ने खड़े होते हुये कहा।
‘नही बेटा’- मीरा ने हाथ पकड़ कर पुत्री को बिठा लिया- ‘कुछ नहीं पूछना है।हमारे पास प्रमाण ही क्या है कि उन्होंने साँप भेजे। फिर साँप हैं कहाँ? तुम पूछा ताछी करोगी तो इस गरीब दुर्बल पर वज्र टूट पड़ेगा’- उन्होंने कुमकुम की ओर देखते हुये कहा- ‘इसे जहान से उठ जाना पड़ेगा’- वे हँसीं- ‘अपने यहाँ तो शालिग्राम प्रभु पधारे हैं।उत्सव मनाओ।जोशी जी को बुलाकर प्रतिष्ठा का मुहूर्त दिखाओ।’
‘अन्नदाता, मेरा क्या होगा?’- कुमकुम रो पड़ी- ‘जो यह प्रसाद मेरे पल्ले में न बँधा होता तो वे नाग मुझे अवश्य डस गये होते। वहाँ जाकर क्या अर्ज करूँ मैं?’
‘केवल यही कहना कि छाब को मैं कुँवराणी सा के पास रख आई हूँ और यह अर्ज कर दिया है कि शालिग्राम भगवान और फूलों के हार हैं। इच्छा हो तो उत्सव के पश्चात प्रसाद पाकर जाओ, जैसे मन मानें’- मीरा ने कहा।
‘प्रसाद लेने मैं फिर हाजिर हो जाऊँगीं सरकार।अभी तो महारान सा की ड्योढ़ी पर वह यमदूत मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा।ज्यों ज्यों देर होगी, त्यो त्यों मेरी मौत की धार अधिक तीखी हो जायेगी।एक अर्ज और हो मुझ नादान की।हुजूर ते पीहर पधार रहीं हैं, कौन जाने वापस पधारना कब हो? इस गरीब को भी कुछ सेवा प्रदान करके कृतार्थ करावें।बिल्ली के भाग से छीका टूटा भी तो कुत्ते से सामना हो गया।न जाने किस जन्म के पाप का उदय हुआ कि ऐसे कार्य में निमित्त बनी। यदि आपको कुछ हो जाता अन्नदाता ! तो मुझे नरक में भी ठिकाना नहीं लगता’- वह ओढ़नी के छोर से आँसू पौंछने लगी।
‘मेरी सेवा? मेरी क्या सेवा है भाई? सेवा ठाकुर जी की। उनका जो नाम अच्छा लगे, उठते-बैठते काम करते हुये लेती रहो। जीभ को न तो खाली रहने दो, दूसरी फालतू बातें नहीं करनी। यह कोई कठिन काम नहीं है, पर आदत नहीं होने से प्रारम्भ में कठिन लगेगा। आदत बन जाने पर लोग घोड़े-ऊँट पर भी नींद ले लेते है। बस इतना ध्यान रखना कि नियम छूटे नहीं।’ मीरा ने कहा।
‘मुझे .......भी एक ......ठाकुर जी ...... बख्शावें.... तो..... ‘- कुमकुम ने संकोच से अटकती वाणीमें कहा- ‘म्हूँ लायक तो कोय नी, पण हुजर री दया दृष्टि सूँ तर जाऊँली( मैं योग्य तो नहीं पर हुजूर की कृपा दृष्टि से तर जाऊँगीं)।’
उसकी बात सुनकर मीरा प्रसन्न हो गई।उसकी पीठ पर हाथ रखकर बोली- ‘बहुत भाग्यशाली हो जो ऐसी इच्छा जगी।अभी इस समय तो जाओ।प्रसाद लेने आवोगी उस समय जोशीजी भगवान और नाम दोनों ही देंगे।एक बात का ध्यान रखना। इनके नाम में सारी मुसीबतों के फंद काटने की शक्ति है। यदि तुम उसे पकड़े रहोगी तो आगे-से-आगे राह स्वयं सूझती जायेगी और वह स्वयं भी आकर तुम्हारे ह्रदय में, नयनों में और घर डेरे में बस जायेंगे।’
‘आज तो मेरा भाग्य खुल गया’- कहते हुये उसने कुँवराणी सा के चरणों में सिर रख दिया।उसके नेत्रों से कई बूदें उनके चरणों पर बरस गईं मानों हरसिंगार के फूल झड़ रहे हों।

‘आज कैसा उत्सव है भाभी म्हाँरा?’- उदयकुँवर बाईसा ने धोक देते हुये पूछा।
‘आज शालिगराम प्रभु पधारे हैं बाईसा। आपने प्रसाद आरोग लिया?’
‘कहाँ, मेरे यहाँ जो प्रसाद पहुँचाने आये उनसे मैनें पूछा कि आज किसका उत्सव है? उन्होंने कुछ ठीक बताया नहीं।तब मैने अपने यहाँ सबसे कहा कि यह प्रसाद तुम लोग पा लो, मैं तो भाभी म्हाँरा के पास जाकर उनके हाथों सेही लूँगी।आखिर मैं आपकी छोरू हूँ।’
‘पधारो बाईसा, विराजें अपन साथ साथ ही जीमेगें।गंगा, श्याम कुँवर बाईसा कहाँ हैं, उनको भेज तो और हमारे साथ साथ बाईसा के लिए भी थाल पधरा।’
‘नहीं भाभी म्हाँरा, मैं तो आपके हाथ से ही लूँगी।आपकी बालक होने का इतना हक तो मेरा है न? फिर परसों तो आप पीहर पधार जायेगीं, कौन जाने फिर कब दर्शन हों’- कहते कहते उदयकुँवर बाईसा की आँखें बह चलीं।
‘यह क्या फरमातीं हैं बाईसा। हम सब गोपाल जी के हैं, वही सबकी सार सम्हाँल करते हैं’- मीरा ने ननद के आँसू पोंछ कर उन्हें हृदय से लगा लिया।
‘मैनें भगवानको नहीं देखा भाभी म्हाँरा।मैं तो केवल यह जानती हूँ कि आपकी भगवान से जान पहचान है और मैं आपकी बालक हूँ।आपके वात्सल्य पर मेरा हक है।मैं खोटी खेलिड़ी जैसी भी हूँ आपकी हूँ।’
‘देखिये ये श्याम कुँवर आ गई।आओ बेटा, तुम भी जीमो।
क्रमशः

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