mc 100

मीरा चरित 
भाग- 100

सभी ब्राह्मण अभ्यागत जीम चुके? सभी महलों में थाल पहुँचाये? ड्योढ़ी पर सबको प्रसाद मिला?’- उन्होंने श्याम कुँवर से पूछा।
‘हाँ बड़ा हुकुम सब हो गया।अब आप आरोग लें तो अटाले में बैठे स्त्री पुरुष सब खायें।वह कुकुमड़ी बैठी है, उसे क्या आज्ञा है?’- कहकर श्याम कुँवर बाईसा ने उदयकुँवर बाईसा के चरणों में धोक दी- ‘आप कब पधारी भुवाजी सा?’
‘जब मेरे यहाँ प्रसाद पहुँचा तो सोचा यहाँ बैठकर खाने में क्या मजा है।भाभी म्हाँरा के पास ही बैठ कर उनके हाथ से प्रसाद पाने में जो आनन्द है उसे क्यों छोड़ दूँ।’
‘मैं तो भूल ही गई, ऐ केसर देख तो जोशीजी यहीं हैं कि पधार गये’- मीरा ने पूछा।
‘नहीं हुकुम वे दान की सामग्री समेटकर बाँधा बूँधी कर रहे हैं’- केसर ने अर्ज की।
‘श्याम कुँवर, तुम कुमकुम को लेकर आओ।मैं मंदिर जा रही हूँ।आप भी पधारो बाईसा’- मीरा ने कहा और उदयकुँवर बाईसा का हाथ थामकर चल पड़ी।
‘कौन कुमकुम भाभी म्हाँरा? क्या हुआ उसे?’- उदयकुँवर बाईसा ने चलते हुये पूछा।
‘अभी तक तो कुछ नहीं हुआ था, अब होगा।’- मंदिर में प्रवेश करते हुये मीरा ने कहा।
तब तक कुमकुम को लेकर श्याम कुँवर बाईसा आ हईं।उसे जोशीजी के सामने बिठाकर सब बैठ गये।
‘तुमको कौन से ठाकुरजी अच्छे लगते हैं- रामजी, किशनजी, एकलिंगनाथ जी, माताजी या कोई और?’- मीरा ने पूछा।
‘मुझे अच्छे बुरे लगने की अकल ही कहाँ सरकार।मेरा मन तो धूल फाँकने वाला है।’
‘भगवान से एक रिश्ता जोड़ना पड़ता है, इसलिए पूछ रही हूँ।तुम्हें बालक चाहिए कि बींद, मालिक चाहिए कि चाकर, यह बताओ।’
‘म्हारे तो नन्हा लाला चावे हुकुम’
मीरा ने बालमुकुंदजी को उठा कर जोशीजी के हाथ में दे दिया।जोशीजी उन्हें कुमकुम के हाथ में देते हुये बोले- ‘तुमसे जैसी बन गए जाये, वैसीपूजा करना और छोटे बालक की तरह ही सार सम्हाँल करना।आज से येतेरे बेटे हैं।अपने बालक की तरह ही लाड़ गुस्सा करना।इन्हें खिलाकर ही खाना पीना, इन पर पूरा भरोसा करना’- कुमकुम के कान में गोपाल नाम देते हुये कहा- ‘इसनाम को कभी भूलना मत, जीभ को कभी विश्राम मत देना, समझी।’
कुमकुम ने भरे दृगों से जोशीजी की ओर देखकर सिर हिलाया।पल्ले से चाँदी का एक रूपया खोलकर जोशीजी के पैरों के पास रखते हुये प्रणाम किया।वहाँ बैठी सभी राजकन्याओ, महिलाओं को प्रणाम करके अंत में मीरा के दोनों चरण पकड़ कर रोती हुई बोली- ‘मैं पापिन आपके लिए मौत की सामग्री लेकर आई, पर आपने मेरे लिए बैकुंठ के दरवाजे खोले।यह कृपा सदा बनीरहे, यही प्रार्थना है।इस गहली गूँगी ने भूल मत जावजो।’
मीरा ने सिर पर हाथ फेरकर आश्वासन दिया।

‘कैसी मौत की सामग्री?’- उदयकुँवर बाईसा ने चौंक कर पूछा।
श्याम कुँवर बाईसा के मुँह से साँप पिटारे की बात सुनकर उदयकुँवर बाईसा को बहुत क्रोध आया- ‘मैं तो समझी थी कि महाराणा को अब अकल आ गई है। वे भाभी म्हाँरा को पहचान गये हैं। किन्तु लगता है...... गंडकड़ा रा पूँछड़ी बारा बरस भूंगली में राख र बारे काढ़ो तो ई बाँकी की बाँकी( कुत्ते की पूँछ बारह वर्ष नली में रखने पर भी, निकालने पर टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी) वाली बात ही सच है।मैं जाकर पूछती हूँ कि यह क्या किया आपने, क्या मेड़तियों को शत्रु बना कर मानेंगे?’
‘नहीं बाईसा ! कुछ नही पूछना है।मेड़तियेयहीं हैं।सेते बैठे लड़ाई हो जायेगी।मेरा तो कुछ बिगड़ेगा नहीं’-मीरा ने श्यामकुँवर के सिर पर हाथ रखते हुये कहा- ‘इसका पीहर खो जायेगा।मैं तो वैसे भी परसों मैं जा ही रही हूँ।अपनों पर क्या रोष करना बाईसा।’
‘आप समंदर हो भाभी म्हाँरा’- उदयकुँवर विह्वल स्वर में कहता हुई भौजाई से लिपट गई।

चित्तौड़ का परित्याग......

संवत १५९१ वैशाख मास (1534) में सदा के लिए चित्तौड़ छोड़कर मीरा मेड़ते की ओर चल पड़ी। एक दिन भोजराज के दुपट्टे से गाँठ जोड़कर इसी वैशाख मास में गाजे-बाजे के साथ वे इस महल की देहली पर पालकी से उतरी थी। आज सबसे मिलकर उसी प्रकार गाजे बाजे के साथ, इस देहली से विदाई ले रही है। ये वे महल-चौबारे थे, जहाँ उन्होंने कई उत्सव किए थे, जहाँ उसके गिरधरलाल ने अनेक चमत्कार दिखाये थे।जहाँ उनकी प्रिय दासी मिथुला ने प्राण त्यागे थे।जहाँ उसके प्रिय सहचर कलियुग में द्वापर के भीष्म से भी अधिक भीषण प्रतिज्ञा का पालन करने वाले महाभीष्म भोजराज ने देह छोड़ी थी और जहाँ विक्रमादित्य ने उन पर कराल असि धार के घातक वार किए थे और जहाँ थे कितने ही विरोधी और कितने ही सहायक।एक बार भरपूर नजर से सबको देखा, उस कक्ष को देखा जिसमें भोजराज विराजते थे और जहाँ उनका पलँग लगता था।वहाँ उस कक्ष जाकर वे खड़ी हुईं। पंचरंगी लहरिये का साफा, गले में जड़ाऊ कण्ठा-पदक,सिर पर सिरपेंच, कमर के कमरबंध में लगी कटार-तलवार बाँधे, हँसते-मुस्कराते भोजराज मानों मूर्तिमान कामदेव सम्मुख आ खड़े हुए। 
मीरा की आँखें भर आई - ‘सीख बख्शाओं, महाराजकुमार ! विदा, विदा मेरे सखा ! मेरे सुदृढ़ कवच ! मुझसे जो भूलें, जो अविनय, जो अपराध हुये हों, उनके लिए क्षमा प्रार्थना करती हूँ’- कहते हुये मीरा ने मस्तक धरती पर रखा- ‘मैं अभागिनी आपको कोई सुख नहीं पहुँचा सकी, कोई सेवा नहीं कर सकी। अपने अशेष गुणों और धीर-गम्भीर स्वभाव से आपने जो मेरी सहायता और रक्षा की और सदा ढाल बनकर रहे, जो भीष्म प्रतिज्ञा आपने की और अंत तक उसे निभाया, उसके बदले मैं अकिंचन आपको क्या नजर करूँ? किन्तु हे मेरे मीत, मेरे स्वामी सर्व समर्थ हैं। वे देंगे आपको अपनी इस दासी की सहायता का प्रतिफल। आपका मंगल हो मेरे सखा।आपका मंगल हो’- उनकी आँखें बह चलीं।हाथ जोड़कर उन्होंने पुन: सिर झुकाया।

बहुत देर से उनके पीछे चम्पा खड़ी थी।अब उसने कहा- ‘बाईसा हुकम ! नीचे पालकी आ गई है, सबसे मिलने पधारें।’
आँसू पोंछकर मीरा उस कक्ष से बाहर आई। आवश्यक सामान गाड़ियों पर लदकर जा चुका था।अनावश्यक सामान जहाँ का तहाँ पड़ा था।अपने सेवक सेविकाओं में जो यहाँ रह रहे थे, उन्हें आवश्यक भूमि द्रव्य और आवास देकर जीविका का प्रबन्ध कर दिया था।जो साथ चल रहे थे उनका सामान बँधकर चला था।रहने के नाम पर तो उनका पावन स्नेह छोड़ कर कोई भी चित्तौड़ में रहना नहीं चाहता था किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जिनकी जड़ें चित्तौड़ में जम गईं थीं।
क्रमशः

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