mc 97
मीरा चरित
भाग- 97
बहुत अनुरोध करने पर वे मेड़ता के राजमहल में पधारे और प्रार्थना स्वीकार कर हुकुम को दीक्षा देकर शिष्य स्वीकार किया।
‘सचमुच भाई ने दीक्षा ली?’- मीरा ने प्रसन्न होकर पूछा।
‘हाँ हुकुम, दीक्षा देकर उन्होंने कहा कि आज से तुम संतबंधु हुये।कभी किसी संत की हँसी और उपेक्षा मत करना।उस दिन से कुँवर सा हुकुम सचमुच के संतों के बंधु हो गये हैं।संतों का मान तो वहाँ पहले भी होता था, पर वह अन्नदाता हुकुम की इच्छा से होता था।कुँवर सा हुकुम को तो वीरों की बातें और वीरों का साथ सुहाता था।अब तो जैसे गंगा जमुना मिल गईं हों।’- कहकर श्याम कुँवर बाईसा ने अपनी बड़ी माँ की ओर देखा।
पुत्री को अपनी ओर देखते पाकर उन्होंने हाथ जोड़कर नयन मूँद लिए।पलकों पर ठहरे आँसू ढलक कर गालों पर आ ठहरे।गदगद कंठ से वाणी फूटी- ‘मेरे प्रभु, बड़ी कृपा की मेरे स्वामी कि मेरे भाई को अपना लिया।उसे संत से मिलाया, संत कृपा सुलभ कराई उसे।बड़ी मेहरबानी बड़ी कृपा की प्रभु।’
‘बहुत अच्छी खबर सुनाई बेटा, क्या दूँ इस बधाई में तुझे मैं?’- भीगी पलकों से और वात्सल्य भरी दृष्टि से श्याम कुँवर बाईसा की ओर देखते हुये मीरा ने कहा।उन्होंने अपने हाथ से उनके मुख में प्रसाद दिया, पोशाक और गहनें धारण कराये, पर जैसे मन नहीं भरा- ‘बेटा क्या दूँ तुझे? मुझ अकिंचन के पास है ही क्या? पर तुझे भगवान देगें।चार जेठ के होते हुये भी मेड़तियों की पाटवण तू होगी।सुख सौभाग्य धन और संतान सभी तुझे सदा सुलभ होगे।तुझे पेट से पीहर प्राप्त होगा।’
श्याम कुँवर बाईसा ने विह्वल होकर बड़ी माँ के चरण पकड़ लिये।थोड़ी देर मैं सिर ऊँचाकर बोली- ‘अभी मेरी पूरी बात तो आपने सुनी ही नहीं बड़ा हुकुम।’
‘कह दो भाई, आज तो मेरे हर्ष का पार नहीं है’- मीरा ने प्रसन्न होकर कहा।
‘वह महलतो अधूरा रह गयाऔर वे दूसरा एक खम्बे पर आधारित महल बनवाने लगे।’
‘एक खम्बे पर क्यों, किसके लिए?’
‘सुनिये तो, बहुत अच्छी बात है।आपको बहुत प्रसन्नता होगीसुनकर।’
‘कहो भाई, अब नहीं टोकूँगी’- मीरा ने खुश होकर कहा।
‘जब वह महल बन गया तो उसमें ऐसी बहुमूल्य सामग्रियाँ सजाई जाने लगीं कि कहते नहीं बनता।’
‘उसमें जाते कैसे होगें भला, सीढ़ियाँ थीं क्या?’
‘नहीं, सीढ़ियाँ नहीं बनवाईं गईं।कल (यंत्र) लगी एक निसैनी से ऊपर पधारते।अन्य किसी को उसमें प्रवेश की आज्ञा नहीं थी।कोई जा ही नहीं सकता था उसमें।निसैनी को समेट कर कुँवर सा अपने कक्ष में ही रखते।किसी को उसे हाथ लगाना तो दूर, देखने भी नहीं देते।दोनों समय कई प्रकार की भोजन सामग्री बनवाकर, सोने के थाल में परोसकर स्वयं ले पधारते, पानी की झारी, धूप, दीपक, बिछौना, पंखा, पलँग, वस्त्र, इत्र, फुलैल, क्या क्या बताऊँ बड़ा हुकुम, प्रत्येक वस्तु एक से बढ़कर एक।भीतर रनिवास तो आश्चर्य में डूबा हुआ था, किंतु कुँवर सा हुकुम को तो जैसे संसार का विस्मरण हो गया।हम सब न्यारे न्यारे विचार करते कि ऊपर महल में कौन है, जिसके लिए इन्होंने दिन रात एक कर दिया है, किंतु किसी को थाह नहीं मिलती।
ग्रीष्म की एक रात।कुँवर सा हुकुम और बड़ा बुजीसा हुकुम छत पर पौढ़े थे।बुजीसा हुकुम को विचारों के कारण नींद नहीं आ रही थी।आखिर कौन है उसमहल में, जिसके पीछे अपनी देह की सार सँभार तक भूल गये हैं ये।उन्होंने हिम्मत करके सिरहाने की ओर नीचे रखी निसैनी को धीरे से आवाज न हो, ऐसे हल्के हाथ से अपनी ओर सरकाया।’
‘गजब किया, भाई का गुस्सा क्या भाभी नहीं जानतीं?’- मीरा ने आश्चर्य प्रकट किया।
‘इतने पर भी उन्होंने निसैनी हाथ में ले ली।उसमहल के पास जाकर खोलकर लगाई और ऊपर चढ़ गईं।’- मीरा और वहाँ बैठी हुई सभी स्त्रियों की जैसे साँस रूक गई हो।
‘थोड़ी देर बाद उतर कर निसैनी समेटी और जैसे ही यथास्थान रखकर हाथ हटाने लगीं, कुँवरसा हुकुम जाग गये और बुजीसा हुकुम का हाथ थामकर एकदम क्रोध पूर्ण स्वर में पूछा- ‘क्या कर रही हो?’
‘केवल उनको देखा भर है’- डर से काँपते हुये उन्होंने कहा।
‘क्या किया और किसको देखा है’- कुँवर सा हुकुम उठ कर विराज गये।
‘उस महल में जो पौढ़े हैं, मैने उन्हें छिपकर केवल देखा है।जगाया नहीं है, न हा कोई खटका होने दिया।भले हुजूर मारें या छोड़े, देखने का अपराध तो किया है मैनें।जो भी सजा प्रदान करें सिर माथे, पर इससे पहले अपनी इस अयोग्य संगिनी को इतना बताने की कृपा अवश्य करें कि वे हैं कौन? सचमुच ही छिपाकर रखने योग्य हैं।कहीं बाहर रखने पर अवश्य ही नजर लग जायेगी।मेहरबानी करके फरमायें कि ये कैन हैं हुकुम?’
कुँवर सा हुकुम सब सुनकर बोले- ‘तुम किसकी बात कर रही हो?’
‘वे एक खम्बे के महल में.....’
बुजीसा हुकुम की बात अधूरी रह गई और कुँवर सा हुकुम निसैनी लेकर दो दो सीढ़ियाँ फलाँगते हुये नीचे उतरे, निसैनी लगाकर ऊपर चढ़े और तुरंत नीचे उतरे।पुन: सीढ़ियाँ चढ़ कर छत पर पहुँचे और बुजीसा हुकुम के पास विराज कर पूछा- ‘तुमने क्या देखा? कौन था? कैसा था? क्या कर रहा था?’
‘आप नाराज़ तो नहीं होगें न मुझ पर?’
‘नहीं नही, जरा भी नहीं। तुम बोलो, शीघ्रता करो’- कुँवर सा ने व्याकुल स्वर में पूछा।
‘मैनें डरते हुये आपके सिरहाने की ओर रखी निसैनी उठाई।बहुत दिनों से मन में ऊहापोह चल रही थी कि कौन ऐसा प्रियजन है जिसके लिये स्वयं इतना परिश्रम करते है।इतनी कीमती वस्तुएँ इकठ्ठी की है......’
‘भाड़ में झोकों इन बातों को’- कुँवर सा उतावली से बोले- ‘तुमने जो देखा, वह कहो’
‘पँलग पर गले तक रेशमी पीली दोवड़ ओढ़े कोई अत्यंत सुंदर सुकुमार पौढ़े हैं’- वे कहने लगीं और कुँवर सा के प्राण मानों कानों में आ समाये- ‘साँवला रंग, ललाट पर तिलक, कान में कुंडल, बड़ी बड़ी कमल पंखुरी सी मुँदी हुई पलकें, तिल के फूल जैसी सुघड़ नासिका, लाल गुलाबी होठ, छोटी सी मुफाड़, घुँघराले काले केश पवन से धीरे धीरे हिल रहे थे।पलँग के पास पड़ी चौकी पर रखा रत्नजड़ित मुकुट जगमगा रहा था।क्या वर्णन करूँ हुकुम, उस रूप का।उस छवि का।कहते नहीं बनता......’
उनकी बात अधूरी रह गई वाणी की असमर्थता के कारण।बुजीसा हुकुम सम्भवतः उनकी छवि सुधा का कुछ और बखान करतीं कि अचानक कुँवर सा हुकुम ने उनके चरण पकड़ लिये।
क्रमशः
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