mc 77

मीरा चरित 
भाग- 77

उदयकुँवर बाईसा ने भय और आश्चर्य से उनकी ओर देखा।
‘हाँ जीजा हुकुम, अब आप चाहे जो फरमायें मौड़ौं और यात्रियों से सलाह करते करते सल्तानों और विधर्मियों से भेंट होने लग गई।अरे हीरे, मोती चाहिए तो मुझसे कहना था न। कहीं बोलने योग्य नहीं रखा इन कुल कुलक्षिणी ने तो। जब मैं घर में अनुशासन नहीं रख सकता तो राज्य कैसे चलाऊँगा?’

महाराणा ने बाहर जाकर विजयवर्गीय दीवान से सलाह ली।राजवैद्य को बुलाया और दयाराम पंडा के साथ सोने के कटोरे में जगन्नाथ जी का चरणामृत भेजा। दयाराम के पीछे-पीछे उदयकुँवर बाईसा भी पधारीं। मीरा प्रभु के आगे भोग पधरा कर जल अर्पण कर रही थीं। दयाराम ने आकर कटोरा सम्मुख रखा- ‘श्री जी ने श्री जगन्नाथजी का चरणामृत भिजवाया है सरकार।’
‘अहा ! आज तो सोने का सूर्य उदय हुआ पंडाजी।श्री जी ने बड़ी कृपा की।’- यह कहते हुये मीरा ने कटोरा उठा लिया और उसे प्रभु के चरणों में रखते हुये बोली- ‘ऐसी कृपा करो मेरे प्रभु कि राणाजी को सुमति आये।’ फिर पंडाजी से पूछा- ‘कौन आया है जगन्नाथपुरी से?’
‘मैं नहीं जानता सरकार।कोई पंडा या यात्री आये होगें।’
मीरा ने तानपुरा उठाया।तारों पर उँगली फेरते हुये उसने आँखें बंद कर लीं-

तुम को शरणागत की लाज।
भाँत भाँत के चीर पुराये पांचाली  के  काज॥
प्रतिज्ञा तोड़ी भीष्म के आगे चक्र धर्यो यदुराज।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दीनबन्धु  महाराज॥
                         
चम्पा, गोमती आदि दासियाँ थोड़ी दूर खड़ी हुई भय और लाचारी से देख रही थीं इन चरणामृत लानेवालों को और कभी भोलेपन की सीमा सी अपनी स्वामिनी को, जो सभी को अपने ही समान सीधा और निश्छल समझतीं हैं।उनकी आँखें भर-भर आतीं, ‘क्यों सताते हैं इस देवी को यह राक्षस? क्या चाहते हैं इनसे ये?’
भजन पूरा हुआ तो आँखे उघाड़ करके मीरा ने दोनों हाथों से कटोरा उठाया और मुस्करात् हुये मुँह से लगाया।उदयकुँवर बाईसा देख रहीं थीं भाभी का वह शांत-स्वरूप, निश्छल मुस्कुराहट, प्रेमपूर्ण नेत्र, आरसी की भाँति उजले हिये के वे छलहीन बोल और भगवान पर अथाह विश्वास।मन में आया- ‘भाभी म्हाँरा क्या नहीं जानतीं कि श्री जी उनसे कितने रूष्ट हैं? मिथुला की मौत ने क्या उन्हें चेतावनी नहीं दी कि किसी दिन उनकी भी यही दशा होगी? फिर भी ये कितनी निश्चिंत हैं भगवान के भरोसे? कहते हैं कि भक्त और भगवान दो नहीं होते, ये अभिन्न होते हैं, और इन्हीं भक्त का अनिष्ट करने पर राणाजी तुले है। मैं, मैं भी तो उन्हीं का साथ दिए जा रही हूँ। यदि भाभी म्हाँरा मर जाये तो मुझे क्या मिलने वाला है? केवल पाप ही न ? और यदि नहीं मरी तो ? भगवान का कोप उतरेगा।पिछले जन्म में मैनें न जाने क्या किया कि न पति की सेवा मिली और न माँ बनने का सौभाग्य।बरसों मासों में कभी पति के दर्शन होते हैं।यह नारी जन्म व्यर्थ ही चला गया। न योग साधा न भोग।भोग अब तो वह स्वप्न में भी नहीं है किंतु मेरे भाग्य से घर बैठे गंगा आई है।जोग भक्ति तो भाभी म्हाँरा के साथ रहकर साध सकती थी परंतु मुझ अभागन ने तो सदा इनका विरोध ही किया।पापों की पोटली भारी करने में लगी रही।अभी हाँ, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है उदा, चेत जा, अब भी प्रायश्चित कर ले।मानव जीवन अलोना बीता जा रहा है, इसे संवार कर ले। तू लोहा है उदा ! इस पारस का स्पर्श होते ही स्वर्ण बन जायेगी। यदि कपूर उड़ गया तो तू सड़ी खाद सी गंधाती रह जायेगी।यह अवसर मत खो उदा, राणाजी तो मतिहीन हैं।दाजीराज और बावजी हुकम क्या पागल थे जो इन्हें सब सुविधाएँ देकर प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे। उस समय राजकार्य भी कैसे ढंग से चलता था और आज? नही, नहीं दीवानजी की अकल चरने चली गई है।सारे उमराव रूठे हैं क्यों? इनके ओछेपन से।फिर मैं क्यों इनके साथ जुड़ी हुई हूँ।क्यों भाभा म्हारा के साथ रहकर काया का कल्याण कर लूँ? अब भी समय है, चेत....चेत...उदा ! अवसर बीतने पर केवल पछतावा शेष रह जाता है।’

भजन पूरा हुआ और मीरा ने कटोरा होंठों से लगाया, तभी उदयकुँवर चीख पड़ी - ‘भाभी म्हाँरा ! रूक जाइये।’
‘कई वीयो बाईसा?’- मीरा ने नेत्र खोलकर पूछा। 
‘यह विष है भाभी म्हाँरा ! आप मत आरोगो’- उसने समीप जाकर भाभी का हाथ जकड़ लिया।
‘विष?’  वह खिलखिला कर हँस पड़ी -‘आप जागते हुये भी सपना देख रही हैं क्या? यह तो श्री जी ने जगन्नाथजी का चरणामृत भेजा है। देखिये न, अभी तो पंडाजी सामने खड़े हैं।’
‘मैं कुछ नहीं जानती भाभी म्हाँरा। यह जहर है, आप मत आरोगो।’- उदयकुँवर बाईसा ने रूँधे हुये कण्ठ से आग्रह किया। 
‘यह क्या फरमाती हैं आप ! चरणामृत न लूँ? कौन जाने कैसे तो आज मेरे लालजीसा को भगवान और भाभी की याद आई और आज ही मैं उनकी भेजी हुई सौगात पाछा फेर दूँ? फेरने जैसी हो तो फेरूँ भी।प्रभु के चरणामृत के लिए तो मीरा का कंठ सदा ही प्यासा रहते है।’- उदयकुँवर बाईसा की आकुल व्याकुल दृष्टि देख कर वे लाड़से उनके चिबुक को छू कर बोलीं- ‘यदि सचमुच यह विष हो, तब भी अब प्रभु को अर्पित हो जाने के पश्चात चरणामृत बन गया बाईसा।आप चिन्ता मत करें, प्रभु की लीला अपार है। जिसे वे जीवित रखना चाहें, उसे कौन मार सकता है? मरने और जीने की डोर भगवान के हाथ में है।मनुष्य का इस पर जोर नहीं चलता।आप निश्चिंत रहें।’

उन्होंने कटोरा उठाया होंठों से लगाया और पलक झपकाते ही खाली करके पंडाजी के सामने सरका दिया, कहा- ‘ले पधारें’। मीरा ने फिर इकतारा उठाया और एक हाथ में करताल ले खड़ी हो गईं- ‘चम्पा ! घुँघरू ला ! आज तो प्रभु के सम्मुख नाचूँगी मैं।’
चम्पा ने चरणों में घुँघरू बाँधे और उन्होंने पद भूमि पर रखा। छन्न -छन्ना- छन्न, वे इकतारे की झंकार के साथ गाने लगीं-

पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे साँवरिया की आप ही हो गई दासी रे।
लोग कहें मीरा भई बावरी न्यात कहे कुलनासी रे॥
विष को प्यालो राणाजी ने भेज्यो पीवत मीरा हाँसी रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सहज मिलया अविनासी रे॥
                          
दासियाँ आँखों में आँसू भरकर निःश्वास छोड़ रही थीं।
क्रमशः

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