mc 98

मीरा चरित
भाग- 98

उन पर सिर रखने का प्रयत्न करते हुये आँसू से भीगी अटकती वाणी में बोले- ‘तुम धन्य हो, धन्य हो।मैं बड़ा पापी..... पामर....हूँ’
बुजीसा हुकुम पर जैसे गाज गिर पड़ी, उन्होंने तो अपने पैर छुड़ाते ही कक्ष में घुसकर द्वार बंद कर लिया।

‘अरे, बड़ा हुकुम, यह क्या हुआ आपको?’- मीरा की अद्भुत भावमयी स्थिति देख कर श्याम कुँवर बाईसा के मुख से निकला।उन्होंने देखा कि बड़ा हुकुम का सर्वांग काँप रहा है और साथ ही पसीने की धाराओं से वस्त्र भीग गये हैं।नेत्रों से गंगा जमुना बह रही है।

साँप का पिटारा.....

‘श्रीजी ने आपके लिए शालिग्राम जी और फूलों की माला भिजवाई है हुकम’- तीसेक बरस की एक दासी ने आकर पूजा करती मीरा के सामने एक बड़ी सी बाँस की बनी हुई छाब रखी।यह छाब बाँस की बनी खड़े किनारे की थाली जैसी थी, जिसके ऊपर वैसा ही ढक्कन भी था।
‘शालिगराम कौन लाया? कोई पशुपतिनाथ या मुक्तिनाथ के दर्शन करके आया है क्या?’- मीरा ने अपने सदा के मीठे स्वर में पूछा।एक नजर से छाब को और उसे लाने वाली को देखकर मीरा पुन: अपने काम में लग गई।
‘मुझे नहीं मालूम अन्नदाता, मुझे जो हुकम हुआ, उसे पालन के लिए मैं हाजिर हुई हूँ’- उसने ठाकुर जी और मेड़तणी जी सा को पृथ्वी पर सिर रखकर प्रणाम किया- ‘अब सीख की अर्ज करूँ।’
‘क्या नाम है तुम्हारा? किसकी सेवा में हो?’
‘मेरा नाम कुमकुम है हुकुम।मैं जोधीजी की सेवा में हूँ।आज मैं अपनी भाभजी से मिलने के लिए महारानी के महल में आई तो उसे ड्योढ़ी पर एक आदमी यह छाब देकर यहाँ पहुँचाने के लिए कह रहा था।भाभी भारीपगाँ है अन्नदाता, इसलिए मैनें कहा कि लाओ मुझे दे दो, मैं बड़ी कुँवराणी सा के महल में पहुँचा आती हूँ।बहुत समय से हुजूर के दर्शनों की लालसा मन में थी। आज महामाया ने पूरी की। मुझ गरीब पर मेहर रखावें सरकार, हम तो हुकम उठाने नँबला पातला मिनख हाँ’- कहते कहते  कुमकुम का कण्ठ भर आया।
‘ऐसा कोई विचार मत करो’- मीरा ने हँसकर आश्वासन देते हुये कहा- ‘हम सब चाकर ही तो हैं। जिनकी चाकरी में हैं, उसमें कोई चूक न पड़ने दें, बस।म्होटो धणी सबणे जाणे और सब देखे है, उससे कुछ छिपा नहीं रहता।
‘गोमती ! इन्हें प्रसाद दे तो’- मीरा ने कहा।
तभी बाहर चौक में चमेली से श्याम कुँवर बाईसा ने पूछा- ‘म्होटा माँ कठे विराजे।
चमेली के संकेत पर उन्होंने कक्ष में प्रवेश किया और अपने प्रिय भाई गोपालजी और म्होटा माँ को प्रणाम करके उनके समीप आसन पर बैठते हुये पूछा- ‘या छाब कशी है बड़ा हुकुम। कहीं प्रसाद भेज रहीं हैं आप?’
‘नहीं बेटा’- बेटी की ओर असीम वात्सल्य पूर्ण दृष्टि से देखकर हँसते हुये कुमकुम की ओर संकेत करके कहा- ‘यह तो इनके साथ आपके काकोसा हुकुम ने शालिग्राम और फूलों के हार भेजें हैं।कोई पशुपतिनाथ या मुक्तिनाथ से दर्शन करके आया होगा और उसी ने श्री जी को शालिग्राम भेंट किये होगें।लालजी सा ने मेरे काम की चीज समझ कर यहाँ भेज दिए हैं।इसे खोलो तो, तुम्हारे गिरधर गोपालजी के साथ इनकी भी पूजा कर लूँ।’

जैसे ही श्यामकुँवर बाईसा ने छाब पर बँधी डोरी खोलने को हाथ बढ़ाया, चम्पा बोल पड़ी - ‘ठहरिये बाईसा हुकुम, इसे हाथ मत लगाईये।फूल और शालिग्राम इतने भारी नहीं होते हुकुम’- चम्पा की आँखों में भय झाँक रहा था- ‘क्यों कुमकुम बाई, कितना भार होगा इसमें? तुम्हारे चलने से लग रहा था कि मन भर का बोझ उठा कर ला रही हो।’
‘मन भर तो क्या होगा?’ कुमकुम खिसियानी हँस कर बोली- ‘पाँच सात सेर वजन तो होगा ही।अवश्य ही नीचे रखते समय सम्हाँल न सकने से थोड़ी डगमगा गई था।’
‘सुना सरकार आपने? सात सेर वाले शालिग्राम और फूल इस छाब में समा सकते हैं।’
‘पगली है तू तो चम्पा’- मीरा ने श्यामकुँवर बाईसा की ओर देखकर हँसते हुये कहा- ‘उधर से हवा भी आये तो चम्पा वहम से भर जाती है।वहम की कोई औषध नहीं है पागल।’
‘तुम खोलो बेटा’
श्यामकुँवर खोलने लगी तो कुमकुम ने हाथ बढा कर कहा- ‘बहुत मजबूती से बँधी है सरकार।आप रहने दीजिए।हाथ छिल जायेंगे, मैं खोल देती हूँ।’
प्रसाद को पल्लू में बाँध कर वह छाब की डोरियाँ खोलने लगी।डोरियों का गुच्छा एक ओर रखकर उसने जैसे ही छाब का ढक्कन उठाया, फूत्कार करते हुये दो बड़े-बड़े काले भुजंग बित्ते बित्ते भक के चौड़े फण उठाकर खड़े हो गये। दासियों और श्यामकुँवर के मुख से चीख निकल पड़ी। कुमकुम की आँखें आश्चर्य से फट सी गईं।घिग्गी बँध गई और छाब का ढक्कन हाथ में लिए लिए वह अचेत हो लुढ़क गई। मीरा तो मुस्करा कर ऐसे देख रही थी मानों बालकों का खेल हो। देखते ही देखते एक साँप छाब में से निकलकर फण फैलाये हुये ही चलकर मीरा की गोद में होकर गले में माला की भांति लटक गया।
‘बड़ा हुकम’- श्यामकुँवर बाईसा व्याकुल स्वर में चीख सी पड़ी। 
‘डरो मत बेटा, मेरे साँवरे की लीला देखो।’
पलक झपके, तब तक तो छाब में बैठा नाग एक बड़े शालिगराम के रूप में और मीरा के गले में लटका नाग रत्नहार के रूप में बदल गया।
‘गोमती, कुमकुम बाई को पानी पिलाकर थोड़ा पंखा झल तो।बेचारी डर के मारे अचेत हो गई है।’
मीरा का निश्चिंत ठंडा स्वर सुनकर मानों सबकी देह में प्राणों का संचार हुआ।
चमेली क्षुब्ध स्वयं में बोली- ‘मरने भी दीजिए अभागी को।सिर पर मौत उठाकर लायी आपके लिए । हमारा वहम झूठा तो नहीं निकला, किन्तु सरकार के भोलेपन के सामने वहम का क्या बस चले?’
‘ऐसी बात मत कह चमेली।यह बेचारी तो कुछ जानता ही नहीं।जानती होती तो ऐसी निश्चिंत होकर छाब की डोरियाँ खोलने नहीं बैठती? यदि जानती भी हो तो अपना क्या बिगड़ गया?  ये चरणामृत भी दें तो इसके मुख में।’
अथाह स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से छाब में फूलों के ऊपर रखे हुये शालिग्राम जी को मीरा ने उठाया और एकबार सिर से लगाकर सिंहासन पर पधराते हुये वे बोलीं, ‘मेरे प्रभु ! कितनी करूणा है आपकी इस दासी पर’
दासियों ने और श्यामकुँवर ने जयघोष किया- ‘शालिग्राम भगवान की जय ! गिरधरलाल की जय।’
क्रमशः

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