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मीरा चरित
भाग- 102
उन्होंने एक बार पुन: सबको हाथ जोड़े।अपने नन्हें देवर उदयसिंह को दुलार किया।मन्दिर से मिला कण मात्र प्रसाद अपने मुख में रख थोड़ा उदयसिंह के मुख में दिया। बाकी प्रसाद उसकी धाय पन्ना जो खींचीं राजपूत वधू थी, उसको देते हुये कहा- ‘अपने प्राणों को बंधक रख कर, बड़े से बड़ा मूल्य चुका कर भी इस वट बीज की रक्षा करना। कल यह विशाल घना वृक्ष बनकर मेवाड़ को छाया प्रदान करेगा।’
ब्राह्मणों को दान,सेवकों को पुरस्कार, गरीबों को अन्न वस्त्र दे मीरा पालकी में सवार हुईं।संवत १५९१ में चित्तौड़से अपने को उधेड़ कर वे चित्तौड़ छोड़ चलीं- मानों चित्तौड़ का जीवंत सौभाग्य विदा हो रहा हो।स्त्रियाँ विदाई के गीत गाती हुई कुछ दूर तक चलीं।मीरा ने पालकी रूकवाकर सबको लौटने के कहा।एक बार पुनः प्रणाम करके वे खड़ी हो गईं।दहेज में आये हुये जो लोग यहाँ रसे ने को बाध्य थे, उनकी पीड़ा का पार नहीं था।कलेजा मानों फटा पड़ता था।देह छोड़ प्रण मानों साथ जाने को व्याकुल थे।देह ही कहाँ पीछे रहना चाहती थी, किंतु आज्ञा की मर्यादा, सम्बंधों के नागपाश और दूर तक पहुँचाने जाने से अनिष्ट की आशंका ने पाँव बाँध दिये।महलों की सीम पार होते ही मेड़ते को नगारे आगे की ओर एवं मेवाड़ के नगारे पीछे री ओर घमघमा उठे।चील के निशान से सुशोभित राठौरों का पचरंगी और एकलिंगनाथ का भगवा ध्वज साथ चलते हुये गगन में ऊँचे फहरा उठे।
महराणा और उमराव नगर के बाहर तक पहुँचाने पधारे। सवारी ठहरने पर महाराणा विक्रमादित्य पालकी के समीप पहुँचे।दासी ने परदा उठाया।हाथ जोड़कर वह झुके और बोले-‘खम्माधणी’
मीरा ने हँसकर हाथ जोड़े- ‘सदा के लिए विदा दीजिये अपनी इस खोटी भौजाई को। अब ये आपको कष्ट देने पुन: हाज़िर नहीं होगी। मुझसे जाने अनजाने में जो अपराध बने हो, उनके लिए क्षमा बख्शावें।’
महाराणा घबराकर बोल उठे- ‘ये क्या फरमाती हैं भाभी म्हाँरा ! कुल कान की खातिर, जो कुछ कभी कभार अर्ज कर देता था, उसके लिए मुझे ही क्षमा मांगनी चाहिए।’
‘भगवान आपको सुमति बख्शे’- मीरा ने हाथ जोड़े- ‘मेरे मन में कभी आपका कोई कार्य अथवा बात अपराध जैसी लगी ही नहीं। फिर माफी कैसी लालजीसा ! यह राज जैसे अन्नदाता हुकम चलाते थे, वैसे ही आप भी चलायें ,यही सब की कामना है।’
मुकुन्द दास और श्यामकुँवर ने भी सबसे विदा ली।मेड़तियों से मिलकर पहुँचाने वाले लोग जैसे ही वापस फिरे कि गढ़ से तोप चली।तोप दागने के माध्यम से आम लोगों के लिए यह सूचना थी कि मेड़तणी जी पीहर पधार रहीं हैं।बहुत लोग मीरा के साथ चले, मीरा ने समझा बुझा कर अधिकाँश लोगों को वापिस फेर दिया किन्तु संतों और यात्रियों की टोली तो साथ ही चली।
मेड़ते का श्यामकुँज पुनः आबाद हुआ।तीस वर्ष की आयु में मीरा ने चित्तौड़ का परित्याग करके पुनः मेड़ता में वास किया। उसके हितैषी स्वजनों, चाकरों और दासियों को मानों बिन माँगे वरदान मिला। हर्ष और निश्चिन्तता से उनके आशंकित-आतंकित मन खिल उठे। कथा-वार्ता, उत्सव और सत्संग की सीर खुल गई।मेड़ता का श्याम कुँज उत्सव और सत्संग की उल्लास भरी उमंग से एकबार पुनः खिलखिला उठा किन्तु मीरा के गिरधर गोपाल की योजना कुछ और ही थी।उसके प्राणधन श्यामसुन्दर को अपनी प्रेयसी का अपने धाम से दूर रहना नहीं सुहाता था। मीरा ने सदा के लिए चित्तौड़ छोड़ दिया, केवल इतने मात्र से वे संतुष्ट नहीं हुये।वे इकलखोर देवता जो ठहरे।उन्हें चाहने वाला दूसरों की आस करें, कोई अन्य अपना कहलाने वाला हो, यह वे तनिक भी नहीं सह पाते। लेना-देना सब का सब पूरा चाहिए उन्हें। जिसे उन्होंने अपना लिया, उसका और कोई अपना रहे ही क्यों? हो ही क्यों? तदनुसार राजनैतिक परिस्थितियाँ करवट बदलने लगीं।
मीरा के चित्तौड़ त्याग के बाद बहादुर शाह गुजराती ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।राजपूत वीरों ने रावत बाघसिंह के नेतृत्व में घमासान युद्ध किया पर सफलता नहीं मिल पाई।यह युद्ध 8 मार्च 1535 को पूरा हुआ था।इस युद्ध में बत्तीस हजार राजपूत वीरगति को प्राप्त हुये और तेरह हजार स्त्रियाँ राजमाता हाड़ीजी के साथ जौहर की ज्वाला में कूदकर स्वाहा हो गईं।चित्तौड़ दुर्ग राजपूतों के हाथ से निकल गया।इसके तुरंत बाद विजय गर्वसे फूले हुये बहादुर शाह गुजराती के हौसले पस्त करने के लिए दिल्ली के बादशाह हुमायूँ मे उस पर चढ़ाई कर दी।अपनी जान बचाने के लिए बहादुर शाह रात को भाग निकला।बहादुर शाह की पराजय का लाभ उठाया राजपूतों ने।फिरसे सेना इकठ्ठी करके रापूती वीरों ने मुसलमानी सेना पर हमला बोल दिया।विजयी राजपूतों के अधिकार में चित्तौड़ दुर्ग फिर से आ गया।
इतनी विपत्ति के बाद भी महाराणा विक्रमादित्य को न कुछ अक्ल आई और न उसका स्वभाव बदला।सामंतों के साथ दुर्व्यवहार पूर्ववत् बना रहा।इन्हीं दिनों पासवान पुत्र वनवीर की राज्य-लिप्सा बढ़ चली और उसने एक रात महाराणा विक्रमादित्य को तलवार से मार डाला। राज्य का अकंटक स्वामी बनाने की लोलुपता में वह वनवीर तो महाराणा के छोटे भाई उदयसिंह को भी मार डालना चाहता था, परन्तु पन्ना धाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की।
जिस तरह चित्तौड़ पर घोर संकट छा रहा था, उसी तरह मेड़ता पर भी भीषण विपत्ति टूट पड़ी।मीरा को मेड़ता आये हुये अभी दो वर्ष ही हुये थे कि जोधपुर के राव मालदेव ने संवत 1593 में मेड़ता पर चढ़ाई कर दी।परिस्थितियों की प्रतिकूलता को देखकर वीरमदेवजी को जोधपुर के सामन्तों ने समझाया- ‘परस्पर में व्यर्थ का संघर्ष उचित नहीं।आप एक बार मालदेव जी को मेड़ता सौंप दीजिए।जब उनका आवेश शांत हो जायेगा, तब हम सब लोग उन्हें समझा कर आपको मेड़ता वापिस दिलवा देंगे।’
सरल ह्रदय वीरमदेव जी उन सामन्तों पर विश्वास करके मेड़ता से अजमेर चले आये।अजमेरमें भी चैन से नहीं रह पाये।अभी भाग्य की रेखाएँ वक्र थीं।उनको जगह-जगह भटकना पड़ रहा था। वे नराणा आ गये।मीराबाई वीरमदेव जी के साथ थीं।फिर वि. स. 1595 में वे नराणा से पुष्कर चलीं आईं।
वृंदावन धाम में वास.......
पुष्कर में निवास करते समय मीरा के चिन्तन में मोड़ आया। प्रेरणा देनेवाले जीवन अराध्य गोपाल ही थे। मीरा सोचने लगी कि दर-दर ठोकर खाने की अपेक्षा यही उचित है कि अपने प्राण-प्रियतम के देश वृन्दावन धाम में वास किया जाए।
क्रमशः
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