mc 79

मीरा चरित 
भाग- 79

महाराणा ने पहले तो समझा कि नखरे कर रहा है, किंतु जब गर्दन ढल गई तो उनके मुख से निकला- ‘अरे, यह क्या? सचमुच मर गया।’ उन्होंने प्रहरी से वैद्यजी को उठा ले जाने के लिए उसके घर समाचार भेजा।

उदयकुँवर बाईसा में आमूल परिवर्तन........

उदयकुँवर बाईसा महाराणा के विक्रमादित्य के पीछे खड़ी थीं।सब कुछ उनकी आँखों के सामने बीता। जिस कटोरे भरे जहर से मेड़तणीजी का रोयाँ भी न काँपा, उसी कटोरे की पेंदी में बची दो बूँदो से वैद्यजी मर गये। मीरा की भक्ति का प्रताप और राणाजी की कुबुद्धि दोनों ही उदयकुँवर बाईसा के सामने आ गईं।’इस बेचारे को क्यों मारा?’- उन्होंने मन में सोचा- ‘किसी कुत्ते या बिल्ली को पिलाकर क्यों नहीं देख लिया। मैंने बहुत बुरा किया इस मतिहीन का साथ देती रही।’  उन्होनें धीरे-धीरे अपने महल की ओर पद बढ़ाये । वहाँ पहुँच कर दासी से कहा,-‘तू कहीं ऐसी जगह जाकर खड़ी हो जा, जहाँ कोई तुझे देख न सके। जब वैद्यजी की लाश उनके घर वाले लेकर जाने लगें तो उन्हें कहना कि वैद्यजी को मेड़तणीजी सा के महल में ले जाओ, वह इन्हें जीवित कर देंगी।’ वह स्वयं भी मीरा के महल की ओर चली। 
‘भाभी म्हाँरा, मुझे क्षमा करिये, मैंने आपको बहुत दु:ख दिया है।’- उन्होंने जाते ही मीरा की गोद में सिर रख दिया।
‘यह न कहिये बाईसा ! दु:ख-सुख तो मनुष्य को अपने प्रारब्ध से प्राप्त होता है। मुझे तो कोई दु:ख नहीं हुआ। प्रभु के स्मरण से समय बचे तो दूसरी अलाबला समीप आ पाये।" मीरा ने ननद के सिर और पीठ पर हाथ फेरा। 
‘मुझे भी तो कुछ बताईये, जिससे जन्म सुधरे।’- उदयकुँवर बाईसा आँसू ढ़रकाती हुई बोली।
‘मेरे पास क्या है बाईसा, बस भगवान का नाम है, सो आप भी लीजिए। प्रभु पर विश्वास रखिये और सभी को भगवान का रूप, कारीगरी या चाकर मानिये और तो मैं कुछ नहीं जानती। ये संत महात्मा जो कहते हैं, उसे सुनिए और गुनिये।’
‘मैं कुछ नहीं जानती भाभी म्हाँरा।आप मेरी हैं और मैं आपकी बालक हूँ।बालक तो पेट में रहते समय भीलात मारते हैं।मेरे अपराध क्षमा करके मुझे अपना लें।’

मीरा ने ननद बाईसा का मुख ऊपक किया-‘बाईसा किसी का अपराध मुझे दिखाई ही नहीं दिया तो क्षमा कैसी?आप भगवान के पद पकड़िये, वही सर्वसमर्थ है।’
‘मैंने भगवान को नहीं देखा कभी। मैं तो आपको जानती हूँ बस।’- उदयकुँवर बाईसा पुन: रोने लगीं।
‘जब आपकी सगाई हुई, पीठी चढ़ी, तब आपने जवाँईसा को देखा था क्या?’
‘ऊँ हूँ,’- उदयकुँवर बाईसा ने माथा हिलाकर अस्वीकृति व्यक्त करते हुये आश्चर्य से भौजाई की ओर देखा- ‘यह कैसी बात?’
‘बिना देखे ही आपको उनपर विश्वास और प्रेम था न?’
‘आप भी भाभी म्हाँरा कैसी बातें करने लगी हैं, मैं तो.....’
‘वही निवेदन कर रही हूँ बाईसा’- मीरा ने बात काटते हुए कहा, 'जैसे बिना देखे ही बींद पर विश्वास-प्रेम होता है, उसी तरह विश्वास करने पर भगवान भी मिलते ही हैं।’
‘किन्तु बींद को तो बहुत से लोगों ने देखा होता है।वे आकर बातें करते है। इसी से बींद पर विश्वास होता हैं पर भगवान को किसने देखा है?’
‘यदि मैं कहूँ कि मैंने देखा है तो?’
‘यदि मैं कहूँ कि मैनें देखा है तो?’
‘आप...... आप.... ने देखा है भगवान को? कैसे हैं वे?’
‘हाँ मैंने ही क्या, बहुतों ने देखा है उन्हें। अन्तर केवल इतना है कि कोई-कोई ही उन्हें पहचानते हैं, सब नहीं पहचानते।’

वैद्यजी को जीवन दान.....

उदयकुँवर बाईसा बात करते हुये भाभा म्हाँरा की गोद के अपने से आँसुओं भिगो रही थीं। तभी लोगों के रोने चिल्लाने की आवाज कान में पड़ी।चीख पुकार से मेड़तणी कुँराणी सा का ध्यान बटाँ और वे बोल पड़ी- ‘अरे ये कौन चिल्ला रहे हैं? गोमती देख तो?’
‘कुछ नहीं भाभी म्हाँरा ! आपको विष से न मरते देखकर श्री जी ने समझा कि वैद्यजी ने दगा किया है। उन्होंने उस प्याले में बची विष की दो बूँदे वैद्यजी को पिला दीं। वे मर गये हैं।उनका शव लेकर घर के लोग जा रहे होंगे।’
‘वैद्यजी को महाराणा जी ने जहर पिला दिया। उनका शव लेकर घरवाले आपके पास अर्ज करने आये हैं।’- गोमती ने आकर निवेदन किया। 
‘हे मेरे प्रभु ! यह क्या हुआ? मेरे कारण ब्राह्मण की मृत्यु? कितने लोगों का अवलम्ब टूटा? इससे तो मेरी ही मृत्यु श्रेयस्कर थी।’
मीरा सोच ही रही थी कि वैद्यजी के घरवाले उनका शव लेकर आ पहुँचे। वैद्य जी की माँ आते ही मीरा के चरणों में गिर पड़ीं - ‘हे अन्नदाता ! हम अनाथों को सनाथ कीजिए। हमें कौन कमा कर खिलायेगा ? महाराणा जी ने हम सभी को क्यों जहर नहीं पिला दिया? हम आपकी शरण में हैं ! या तो हमें इनका जीवन दान दीजिए अन्यथा हम भी मर जायेंगे।’
मीरा की आँखें भी भर आईं। मीरा ने सबको धीरज रखने को कहा और इकतारा उठाया-

हरि तुम हरो जन की पीर।
द्रौपदी की लाज राखी तुरत बढ़ायो चीर॥
भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप सरीर।
हिरणकस्यप मार लीनो धरयो नाहिन धीर॥
बूढ़तो गजराज राख्यो कियो बाहर नीर।
दासी मीरा लाल गिरधर चरनकमल पर सीर॥

चार घड़ी तक राग का अमृत बरसता रहा। मीरा की बन्द आँखों से आँसू झरते रहे। लोग आपा खोये बैठे रहे। किसी को ज्ञात ही न हुआ कि वैद्यजी कब उठकर बैठ गये और वह भी तन-मन की सुध-भूल कर इस अमृत सागर में डूब गये हैं। भजन पूरा होने पर धीरे धीरे सबको चेतना हुई।माँ बहू और बालकों ने वैद्यजी को बैठा हुआ देखा। उनके मुख से अपने आप हर्ष का अस्पष्ट स्वर फूट पड़ा। उन सभी ने धरती पर सिर टेककर मीरा की और गिरधर गोपाल की वन्दना की। चम्पा ने सबको चरणामृत और प्रसाद दिया। वैद्यजी की पत्नी ने बार बार मीरा के चरण पकड़ लिये। उसके मन के भावों को वाणी नहीं मिल पाई,भाषा ओछी पड़ गई।उन्होंने ने नेत्र जल से मीरा के पाँव धो दियें।
‘आप यह क्या करती हैं? आप ब्राह्मण है। मुझे दोष लगता है इससे। उठिये ! प्रभु ने कृपा करके आपका मनोरथ पूर्ण किया है। इसमें मेरा क्या लगा? आप भगवान का यश गाईये।’
क्रमशः

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