mc 91

मीरा चरित 
भाग- 91

यह थोड़ी सी दक्षिणा है। इसे स्वीकार करने की कृपा करें।’- मीरा ने उन्हें भोजन कराकर तथा दक्षिणा देकर विदा किया।

पीहर पधारने का उपक्रम......

‘मीरा का पत्र आया है आज’- वीरमदेव जी ने कुँवर जयमलजी से कहा।
‘क्या हुआ? दीवानजी ने फिर कोई अनीति की क्या? यदि आज्ञा हो तो जीजा हुकुम को सदा के लिए यहाँले आयें।अब वहाँ है कौन, जिसके पीछे दु:ख उठायें वो?’
‘अनीति के अतिरिक्त दीवानजी को और  आता ही क्या है? साँगा के बेटे ऐसे मतिहीन? अमृबेलपर विष फललगे।भुगतेगें, अपना या कोई भी क्या करेगा? खाँदयो खाँद देवे, लारे तो नी बलै।कहीं युद्ध हो और निमंत्रण भेजें तो जाकर माथों की होड़ लगा दें, किंतु मूरखता की क्या औखद करें।मीरा री भक्ति नी सुहावै तो अठै ले आवैं, पण उमरावों सरदारों का नित उठ अपमान करते हैं, उसका क्या हो? भविष्य की कल्पना करके कलेजा काँप उठता है,पर कोई उपाय नहीं सूझता।इन हिन्दूपति के देश में आन फिरती है और वे अमल(अफीम) भाँग के नशे में मग्न हैं।तुम मीरा को लिवा लाने का प्रबंध करो।बिचले भँवर (मुकुंद दास) और उनकी बीनणी की भी विदाई की तैयारी करो।उनके साथ प्रताप सिंह को सेना लेकर भेजो।इसी मिस बीनणी भी अपने पीहरवालों से मिल लेगी और प्रतापसिंह ननिहाल में लाड़ पा लेगा।’- वीरमदेव जी ने जयमल को आज्ञा दी।

‘कुँवराणी जी को बधाई अर्ज है हुकुम।मेड़ते से बाईसी जवाँई सा औप भानेज बावजी पधारे हैं’- ड्योढ़ी पर खड़े होकर एक चित्तौड़िये सरदार ने पुकार की।
‘बाईसा हुकुम, बाईसा हुकुम, भँवर बना हमको लेने पधार गये’- चमेली दौड़ती हुई आई।
‘ड्योढ़ी पर किसने बधाई दी है।जाकर उसका मुँह मीठा करा और पाँच मोहरें दे आ’- मीरा ने आदेश दिया।उनके समदर्शी मन में भी आज हर्ष थोड़ा सा मुँह निकालकर मुस्कराया।चित्तौड़ के लोगों, महलों, चौबारों से और भोजराज द्वारा बनाए गये मन्दिर आदि सभी से मीरा अपना मन उधेड़ने लगी।
‘खम्माघणी भुवासा हुकुम’
मीरा प्रसन्न हो उठ खड़ी हुई।गालों पर हाथ फेरते हुये उन्होंने भतीजे को दुलार करते हुये कहा- ‘अहा, दिन जातेसमय नहीं लगता।दाढ़ी मूँछ के धणी हो गये भाया आपतो। सब प्रसन्न तो हैं न वहाँ?’ फिर प्रतापसिंह की ओर देखकर बोलीं- ‘बीनणी बालक सब स्वस्थ और प्रसन्न है न?’
‘हुकुम चारभुजा नाथ की कृपा है।’- प्रताप सिंह बोले।
चारभुजा नाथ का नाम सुनते ही एक बार वह मंदिर उसमें ढाल तलवार और माला लिए खड़ी हुई प्रिय मूर्ति नेत्रों के सम्मुख घूम गई।अपने को सम्हाँल कर उन्होंने फिर पूछा- ‘श्याम कुँवर को भी लेते आते।वह भी सबसे मिल लेती।’
सुनकर मुकुंद दास ने नेत्र झुका लिए, पर प्रताप सिंह ने कहा- ‘बीनणी भी पधारीं हैं, पहले आपसे मिलकर फिर अन्य महलों में पधारेगीं।’
‘ठीक है भाई, तब आप उठिए, स्नान भोजन कीजिए अपने डेरे पर पधाक कर।मैं बाईसा से मिल लूँ’
‘बड़ा हुकुम’- श्याम कुँवर मीरा को देखते ही चरणों में जा पड़ी।
‘अरे यह क्या?’- देवर की बेटी को वक्ष से लगाकर दुलार करती हुई मीरा हँसकर बोली- ‘बड़ी हो गई मेरी लाड़ल पूत, कहो ससुराल कैसा लगा? कोई कष्ट तो नहीं है?’
‘यो सासरो कुण माँग्यो बड़ा हुकुम( यह ससुराल विधाता से किसने माँगा)?’
‘कौन जाने भाई, कम से कम मैनें तो नहीं माँगा था’- और दोनों माँ बेटी खिलखिला कर हँस पड़ीं।हँसते हुये ही मीरा ने कहा- ‘पीहर में तो बहिनबेटी का ही राज होता है, फिर हम दोनों क्यों चिंता करें? देखो यहाँ मेरी ससुराल है ते इस पर तुम्हारा राज है।मेरा कष्ट मिटाने तुम आई हो।तुम्हारी ससुराल में मेरा राज है औरमैं चल रही हूँ तेरे साथ, तेरे सारे कष्ट मिटाने, आओ बैठो’- उन्होंने हाथ थामकर श्याम कुँवर को गद्दी पर बैठाया-‘चमेली मैं तो बेटी के मिलन की प्रसन्नता में भूलही गई।बाईसा को प्रसाद और चरणामृत लाकर दो।’
मीरा ने अपने हाथ से बेटी को खिलाया पिलाया, फिर कहा- ‘स्नान विश्राम करके काकीसा, दादीसा सबको मिल आओ।’
‘मेरे तो सारे प्रियजन और सगे सम्बन्धी ये चरण ही हैं बड़ा हुकुम।आपका हुकम है तो सबसे मिल आऊँगी।वहाँ सुना करती थी कि काकोसा हुकम आपको बहुत दु;ख देते हैं, मैं बहुत रोती थी। अपने माता-पिता तो मुझे स्मरण ही नहीं हैं। मैंने तो आपको और दादीसा को ही माता-पिता जाना है। पता नहीं किस पुण्य प्रताप से आप चित्तौड़ को प्राप्त हुईं।गंगाजल में स्नान करके, गंगाजल का पान करके मनुष्य पवित्र होता है, किंतु उनका अभाग्य उसे उसी गंहाजल से दारू उकाल कर पीने को मजबूर करता है। पितृ-वंश का यह दुर्भाग्य देखकर मैं बहुत दु:खी होती हूँ हुकुम।वहाँ मन ही मन पुकारा करती थी कि म्हाँरा म्होटा माँ को दुख मत दो, प्रभु दु:ख मत दो।’
श्यामकुँवर प्रसाद जीमते हुये बोली- ‘आहा, इस प्रसाद की याद करके न जाने कितनी बार छिप-छिप कर आँसू बहाये हैं मैनें। कितने बरस के बाद यह स्वाद मिला है?’- वह अपनी माँ की गोद में सिर रखकर सिसकने लगी।
‘बेटा ! तुम मुझे बहुत प्रिय हो। तुम्हारी आँखों में आँसू मुझसे नहीं सहे जाते।उठो, नहा धोकर दादीसा के पास जाओ।उनके तो देखने को एक तुम्हीं हो।यहाँ रहो, तब तक उन्हीं के पास रहो, अपने स्नेह से उनकी छाती ठंडी करो।मैं तो मेड़ता साथ चल रही हूँ।खवासणजी आ गईं उठो स्नान करो।’
स्नान करने के उपरांत गिरधर गोपाल के दर्शन किये। उसकी आँखों से आँसू बह चले, ‘म्हाँरा वीरा, थे यूँ म्हँमे बिसराय दो तो पाछे म्हूँ किण री आस करूँ (मेरे भैया, यदि तुम ही मुझे इस तरह भुला दोगे तो फिर मैं किससे आशा रखूँ?)’
अपने त्रिलोकीनाथ भाई के चरणों में सिर रखकर उसने मन के उलाहने आँखों के राह बहा दिये।आँसुओं से प्रभु के चरण धुल गये।हिचकियों से झटके खाती देह को गोद में रखकर बड़ी माँ ने उनके आँसू पोंछे और धीरज देते हुये कहा- ‘ये दासियाँ तुम्हें पधराने के लिए आईं हैं बेटा, इनके साथ जाओ।रात दादीसा के पास रहना।सबसे मिलकर कल परसों तक लौट आना।’ श्याम कुँवर बाईसा रथ में बैठकर दासियों के साथ पीहर के परिवार से मिलने के लिए चल दीं।
‘गढ़ मेड़ते के राज भँवर, घणा म्होटा मूँघा जवाँईसा अर महाराज कुमार चाँदोण रा घणी भाणेज पधार रिया है’- राजसभा के प्रतिहारी ने आवाज दी।
क्रमशः

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