mc 103

मीरा चरित 
भाग-103

मीरा को मन ही मन बड़ी ग्लानि हो रही थी कि ऐसा निश्चय वे अब तक क्यों नहीं कर पाईं। कुछ सैनिकों और अपने दल बल सहित तीर्थ यात्रियों के साथ वह वृन्दावन की तरफ़ चल पड़ीं।उनके मुख से शब्द झरने लगे-
          
चाला वाही देस
कहो तो कसूमल साड़ी रँगावाँ, कहो तो भगवा भेस॥
कहो तो मोतियन माँग पुरावाँ, कहो छिटकावा केस॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सुणज्यो  बिड़द  नरेस॥

अपने प्रियतम के देश,अपने देश पहुँचने की सोयी हुई लालसा मानों ह्रदय का बाँध तोड़कर गगन छूने लगी। ज्यों-ज्यों वृन्दावन निकट आता जाता था,मीरा के ह्रदय का आवेग अदम्य होता जाता।कठिन प्रयास से वे स्वयं को थामे रहतीं। उसके बड़े-बड़े नेत्रों की पुतलियाँ वन विजन में अपने प्राणाधार की खोज में विकल हो इधर-उधर नेत्र सीमा की मानों परिक्रमा सी करने लगतीं।मीरा बार-बार पालकी, रथ रूकवाकर बिना पदत्राण (खड़ाऊँ) पहने पैदल चलने लगतीं। बड़ी कठिनाई से चम्पा, चमेली केसर आदि उन्हें समझा कर मनुहार कर के यह भय दिखा पाती कि अभ्यास न होने से वह धीरे चल पातीं हैं और इसके फलस्वरूप सब धीरे चलने को बाध्य होतें हैं।मंजिल पर पहुँचने में विलम्ब होने से सब यात्रियों को असुविधा होती है।इसके बाद भी वे कभी कभी पैदल चलने से विरत नहीं होती।उनके पद छिल गये थे, उनमें छाले उभरकर फूट गये थे, किन्तु वह इन सब कष्टों से बेखबर थी। दासियों, सेवकों की आँखें भर भर आती।उनके चरणों पर माथा रखकर आँसू ढारते हुये सवारी स्वीकार करने की प्रार्थना करते।मीरा हँसकर उन सभी को अपनी सौगन्ध दे रथ पर,गाड़ी, घोड़े या ऊँट पर बैठा देतीं।उनके हृदय का हाल कौन कहे, जिनकी प्राणाधिका स्वामीनी, जिन्होंने कभी सरे राह पाँच पद भी नहीं रखे, वे ऊबड़ खाबड़, काँटो कंकणों से भरी भूमि पर नंगे पैरों चल रही है।छालों के फट जाने से जहाँ वे पाँव धरती हैं, रक्त की छाप उभर आती है।मीरा भजन गाती, करताल बजाती चलती हैं, किन्तु दासियों को केवल वह रक्त छाप दिखाई देती है।प्रत्येक पद पर उनके ह्रदय कराह उठते हैं।ग्लानि के मारे उनकी आँखों से आँसू थमते नहीं।अंत में सहना असह्य जानकर चम्पा रथ से कूद पड़ी और स्वामिनी के चरणों से लिपट गयी- ‘मुझसे जितने भी,जो भी अपराध हुए हों बाईसा हुकम ! इतनी कठिन सजा मत दीजिये कि अभागिनी चम्पा सह न सके।हमें तो आपसे कभी कोई याचना नहीं करनी पड़ी, सदा इतनी दयामय रहीं आप।आज अपनी किंकरियों पर इतनी कठोरता क्यों मेरी स्वामिनी? हम पर दया करें..... दया... क... रें।’-  वह अचेत सी हो वहीं पदों में लुढ़क गयी।
‘क्या हुआ तुझे?’- कहती हुई मीरा नीचे बैठ गयीं। चम्पा को गोद में भरकर दुलारते हुये अपने आँचल से उसके आँसू पोंछे। 
‘अपने पदतल तो देखिए’- चमेली ने उनकी पगतली ऊपर करते हुये कहा- ‘यही इसकी हम सबकी पीड़ा का कारण है।’
चम्पा के छूने से पीड़ा के कारण मीरा के मुख से हल्की सी सीत्कार निकल गई।ध्यान से देखते हुये उन्होंने कहा- ‘मुझे तो खबर ही नहीं पड़ी पगली, तुम सब क्यों घबरायीं? यदि कुछ हुआ भी तो सार्थक हुये ये मांस पिंड। हानि क्या हुई भला?'
‘हानि तो हमारी हुई हुकम ! हम अभागिनियों को, जो सदा सेवा की अभ्यासी हैं, उसी में सब सुख कल्याण मानतीं हैं, उनको तो सवारी पर चढ़ने की आज्ञा हुईं और सौगंध की जंजीर से बाँध दिया गया।हमारी सुमन सुकुमार स्वामिनी पांवों से चलें, हम उनके घावों से रक्त बहता देखें और सवारी का सुख लें, इससे बड़ा दण्ड तो यमराज की शासन पुस्तिका में भी नहीं होगा।हमारी क्षमामयी कोमलहृदया स्वामिनी ने हम दासियों को ऐसी सजा क्यों दी, अवश्य ही हृदय में सुख भोगने की चाह रही होगी, स्वामीनी को कष्ट पाते देखने की चाह रही होगी, तभी..... तभी...... यह विधान हुआ.... हमारे लिए’- चम्पा के इस कथन के साथ ही सभी बरबस जोरों से रो पड़ीं।

जो यात्री यह दृश्य देख रहे थे, वे भी अपने को नहीं रोक सके।उनकी आँखें भी बहने लगीं। रात होने पर दासियाँ मीरा के घायल तलवों पर औषध लेप करतीं,चरण चाप कर थकान मिटाने की चेष्टा करतीं, किंतु मीरा के मुख में एक ही बात थी- ‘वृन्दावन अब कितनी दूर रह गया है, किसी से पूछकर आ तो।’ वृन्दावन समीप जानकर एकदम से चलने को उद्यत हो उठती। जो यात्री पहले वृन्दावन गये थे, उन्हें बुलवाकर दूरी पूछती, वहाँ के घाट, बाट, वन और कुँज और मंदिरों,यमुना का हाल पूछती, वहाँ की महिमा कभी स्वयं बखान करती और कभी दूसरों के मुख से सुनती।वे गातीं-

चलो मन गंगा -जमना तीर॥
गंगा - जमना, निरमल पाणी सीतल होत सरीर।
बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियाँ बलबीर॥
मोर मुकुट पीतांबर सोहै कुण्डल झलकत हीर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कँवल पर सीर॥

कहीं एक साथ नदी, पर्वत और वन देखती तो मीरा को वृन्दावन की स्फुरणा हो आती। वह गाने-नाचने और प्रणिपात (प्रणाम) करने लग जातीं। दासियाँ पद-पद पर मीरा की सँभाल करती। बहुत कठिनाई से समझा पाती उन्हे कि यह वृंदावन नहीं है, वृंदावन तो अभी दूर है।

ब्रज की सीमा पर पहुँच कर यात्रा रोक देनी पड़ी। मीरा धरा पर लोट ही गई। अपना घर, अपना देस देखते ही उसके संयम के बाँध टूट गये। विवेक प्रेम प्रताड़ित होकर कहीं जा दुबका। आँखों से बहती गंगा-यमुना उस पावन धरा का अभिषेक करने लगी। सारी देह धूलि धूसरित हो उठी।वह निरन्तर अस्पष्ट कण्ठ से अपने प्राणप्रियतम को पुकारती, निहोरा करतीं। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह प्रकृतिस्थ नहीं हुईं। किसी प्रकार भी उन्हें दो कौर अन्न और दो घूँट पानी नहीं पिलाया जा सका। अपनी प्रेम दीवानी स्वामिनी को घेरकर दासियाँ सारी रात संकीर्तन करती रहीं।

चम्पा ने किसी को डाँटकर तो किसी को प्यार से भोजन करने को समझाया, कहा- ‘हम सेवक हैं।हमारी देह निरोग और पुष्ठ रहे, मन चाहे कि न चाहे, पर हमें भोजन करना ही चाहिए।हमें सचेत सावधान रहना ही चाहिए, अन्यथा हमारा सेवक धर्म कलंकित होगा।हम अपने लिए नहीं खाते पीते और स्वस्थ रहते हैं।हमें अपनी स्वामिनी की सार सम्हाँल के लिए तन मन और बुद्धि को स्वस्थ रखना है।’
क्रमशः

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