mc 101

मीरा चरित 
भाग- 101

कुछ सेवक सेविकाएँ यहीं से उन्हें मिलीं थीं।उन सबका प्रबंध मीरा ने कर दिया था।यद्यपि अपने मुँह से किसी ने यह नहीं कहा था कि मेड़तणी जी सा अब चित्तौड़ से अंतिम विदा ले रहीं हैं, किंतु फिर भी भीतर बाहर अधिकाँश लोगों को यहलग रहा था कि अब इनकी सवारी चित्तौड़ की ओर मुख नहीं फेरेगी।पहले तो कभी भी इतना सामान नहीं गया था।पहले तो सेवकों की जीविका का प्रबंध करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी थी।यही सोच सोच करके प्रियजनों के प्राण व्याकुल थे।अपनी सभी सासों और गुरूजनों की चरणवन्दना की उन्होंने।धनाबाई जो महाराणा साँगा की रानी, जोधपुर के जोधाजी की पोती और महाराणा रतनसिंह जी की जननी थीं, वे धनाबाई मीरा को ह्रदय से लगा बिलख पड़ीं- ‘बेटा मुझ दुखियारी को तुम भी छोड़ चलीं।मेरा तो तुमसे पीहर ससुराल दोनों ओर से सम्बंध है।सास समझो या बुआ, इस पति पुत्र विहीना को भूल मत जाना।अब मैं किसके आसरे दिन काटूँगी।कभी घड़ी दो घड़ी बैठ कर तुम्हारा बात सुनती तो हृदय की जलन ठंडी होती थी।अब किसका मुँह देखकर जीऊँगी।कौन मुझ दु:खिनी को धीरज देगा।’
मीरा ने धनाबाई के आँसू पोंछकर पुन: पैरों में सिर रखा- ‘हम सबके स्वामी भगवान हैं हुकुम।उनका स्मरण सब दु:खों की औषधि है।संसार में सुख ढ़ूढ़ने से निराशा और दु:ख ही पल्ले पड़ते हैं।’
राजमाता हाड़ी जी (विक्रमादित्य की माता) के चरणों में प्रणाम करके मीरा ने विनय की- ‘मुझसे जाने अनजानें में जो अपराध अविनय हुये हों, अपनी बालिका जान क्षमा करावें और सीख(विदा) बख्शावें।’
हाडीजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया।उन्होंने कहा- ‘पहले मैं समझती थी कि तुम जानबूझ कर हम सबकी अवज्ञा उपेक्षा करती हो, किन्तु बाद में मैं समझ गई कि अपनी भक्ति के आवेश में तुम्हें किसी का ध्यान ही नहीं रहता।बीनणी, तुमसे पल्ला फैला एक भिक्षा माँगती हूँ।दोगी?’
मीरा ने एकदम से उनका पल्ला हटाकर दोनों हाथ पकड़कर माथे से लगा लिये-‘बुजीसा हुकुम’- मीरा ने भरे नेत्रों से हाड़ीजी की ओर देखते हुये कहा- ‘ये हाथ यों किसी के सामने फैलाने के लिए नहीं बने हैं।ये हाथ आश्रितों पर छत्रछाया करने और मुझ जैसी अबोध को आशीर्वाद देने के लिए बने हैं हुकुम।ये हाथ समस्त मेवाड़ के धणी, हिन्दुआँ सूर्य की धणियाणी और जननी के हाथ हैं।इन्हें इस प्रकार मुझ सी अकिंचन के सामने मत फैलाईये।इससे एकलिंग के दीवान और राजमाता के पद का अपमान होता है हुकुम।’
‘मुझे कहने दो बीणनी’- हाड़ी जी की आँखों से आँसू बहने लगे- ‘श्री जी....’
‘नहीं हुकम ! कुछ मत फरमाइये आप। मेरे मन में कभी किसी के लिए रोष आया ही नहीं। मनुष्य अपने कर्मों का ही फल भोगता है हुकुम। दूसरा कोई भी उसे दु:ख या सुख कभी नहीं दे सकता, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।आप निश्चिंत रहें। भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करते। उसके विधान में सबका मंगल ही छिपा होता है।नही, आपके हाथ मुझ बालक के लिए जुड़े तो पृथ्वी फट जायगी हुकुम’- मीरा ने स्नेह से महारानी जी को ह्रदय से लगाया- ‘सभी सासों की सेवा सम्हाँल करना।अपना और श्री जी का ख़्याल रखना।कर्तव्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है।धर्म और कर्तव्य मत छोड़ना।मुझसे कुछ अपराध हो गया हो तो मूर्ख समझ कर माफ कर देना।’- यह सुनकर महारानी ने उनके पैरों पर सिर रखा।

धनाबाई ने श्याम कुँवर का हाथ मीरा के हाथ में दिया- ‘यह तुम्हारी बेटी है बेटा, इस बिना माँ बाप की बालिका का पीहर और ससुराल सब तुम्हीं हो।’
‘आप तनिक भी चिंता न करावें हुकुम, यह बड़ी भाग्यशाली है।यह तो रानी बनेगी’- कहते हुये मीरा ने श्याम कुँवर को हृदय से लगा लिया।
राजकुल की वधुओं बालकों ने मीरा की चरण वंदना की।सेवक जो कम आयु के थे उन्होंने, दासियों और बालकों ने प्रणाम किया धरती पर सिर रखकर।वृद्धा दासियों के प्रणाम के उत्तर में मीरा ने हाथ जोड़े।वृद्ध सेवकों ने दूर से अभिवादन किया।मीरा ने घूघँट खींच कर अन्य के द्वारा उन्हें आशीष कहलाते हुये हाथ जोड़े।सभी को पुरस्कार स्वरूप  वस्त्र चूड़ियाँ चाँदी अथवा स्वर्ण के आभूषण यथायोग्य कुछ न कुछ देकर और पालकी में बैठकर वे अपने महल के द्वार पर आईं।हाथ जोड़कर उन्होने देहरी पर सिर रखा।प्रणाम करके पीछे फिरी तो उदयकुँवर बाईसा उसके चरणों से लिपट गईं।
‘यह क्या बाईसा, श्री ठाकुर जी के चरण लगिये।उन पर विश्वास कीजिए।मनुष्य की कितनी शक्ति? धीरज धारण करें’- मीरा ने उन्हें उठाकर ह्रदय से लगाया।
‘मैं ठाकुरजी को नहीं जानती भाभी म्हाँरा, मेरे ठाकुर जी आप हो।मुझे मत छोड़िए’- उदयकुँवर बाईसा के आँसुओं से मीरा का कंधा भीग गया।
‘ऐसे कोई धैर्य छोड़ता है भला।आप म्हाँरा और म्हूँ आपरी हूँ बाईसा।थापा मार्या पाणी न्यारो नी वे(आप मेरी और मैं आपकी हूँ बाईसा।थाप मारने से पानी अलग नहीं हो जाता)।माताओं कीसेवा आपका कर्तव्य है।अभी श्री जी बालक हैं।उन्हें भी आपके सहारे की आवश्यकता है’- मीरा ने उनकी पीठ और सिर पर हाथ फेरते हुये कहा।
‘भाभी म्हाँरा, मैं आपकी हूँ यह भूलमत जाईयेगा।मुझे आपका ही आसरा है’-उदयकुँवर बाईसा दोनों हाथों से मुँह ढाँप कर एक ओर हो गईं।तभी कुमकुम आकर मीरा के चरणों में पड़ गई। उसकी आँखों से झरता जल मीरा के पाँव पखारने लगा।
‘उठो, तुम पर तो बहुत कृपा है प्रभु की।अपनी दृष्टि संसार और इसके सुखों की ओर नहीं, प्रभु की ओर रखना। मन के सभी परदे उनके सामने खोल देना।अपना कुछ बचा रह न जाए, यह ध्यान रखना।’

मीरा की पालकी भोजराज के बनवाये हुये मन्दिर की ओर चली।प्रभु के दर्शन कर निज मंदिर के सामने खड़ी हुईं तो उसे प्राण प्रतिष्ठा का वो दिन स्मरण हो आया जब वह भोजराज के साथ पूजा के लिए बैठी थीं।कैसा अनोखा व्यक्तित्व था उनका।लोगों के अपवाद, मुखर जिह्वायें उनके पलकें उठाकर देखते ही तालू से चिपक जाती थीं। तन और मन की सारी उमंग, सारे उत्साह को मेरी प्रसन्नता पर न्यौछावर करने वाले वे महावीर नरसिंह ! प्रभु उन्हें मानव जन्म का चरम फल बख्शें।उन्हें ज्ञात ही नहीं हुआ कि कब आँखों से नीर बहने लगा। आँसू पोंछ वे नीचे झुकी और प्रागंण की रज उठा मीरा ने सीस चढ़ाई- ‘कितने संतों, भक्तों की चरण रज है यह।’ जोशीजी ने मीरा को चरणामृत दिया।उन्होंने उनसे पूजा सेवा ठीक प्रकार से रखने की प्रार्थना की।
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला