mc80

मीरा चरित 
भाग- 80

मीरा ने अपने पाँव छुड़ाकर उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुये कहा। बालकों को दुलार करके और उन सबको भोजन करा विदा किया।डयोढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते सबके हर्ष को मानों वाणी मिल गई- ‘मेड़तणीजीसा की जय ! मीराबाई की जय ! भक्त और भगवान की जय !" 
‘यह क्या मंगला ! दौड़ कर जा तो उन्हें कह कि केवल भगवान की जय बोलें। यह क्या कर रहे हैं वे सब?’
‘बोलने दीजिए भाभी म्हाँरा ! उनके अन्तर के सुख और भीतर के हर्ष को प्रकट होने दीजिए। लोगों ने, राजपरिवार ने अब तक यही जाना है कि मेड़तणीजी कुलक्षिणी है। इनके आने से सब मर-खुटे हैं। उन्हें जानने दीजिये कि मेड़तणीजी जी तो गंगा की धारा हैं, जो इस कुल का और दु:खी  प्राणियों का उद्धार करने आई हैं।’- उदयकुँवर बाईसा ने कहा।

सामंतो सरदारों की खीज......

‘वैद्यराज जी जीवित हो गये हुकम’- विजयवर्गीय दीवान ने महाराणा विक्रमादित्य से आकर निवेदन किया।
‘हैं क्या?’ महाराणा चौंक पड़े। फिर संभल कर बोले- ‘वह तो मरा ही न था। यों ही मरने का बहाना किए पड़ा था डर के मारे। मुझे ही क्रोध आ गया था,इसी से कह दिया कि हटाओ मेरी आँखों के सामने। भूल अपनी ही थी कि मुझे ही उसे अच्छे से देखकर उसे भेजना चाहिए था। यह वैद्य बड़ा हरामखोर है उसने विष बनाया ही नहीं था।विष होता तो भाभी म्हाँरा देवलोक पधारतीं।विष होता तो वह स्वयं न मरता?’
‘बदनामी तो हो रही है अन्नदाता’
‘होने दो।मेरा कोई क्या कर सकता है? ऐसी जीवित कर देने वाली होती तो उस मिथुला गोली (दासी का तिरस्कार पूर्ण सम्बोधन) को क्यों न जीवित कर दिया?’
‘यह चारों ओर क्या बातें सुनाई दे रहीं हैं हुकुम।’- सलुम्बर रावतजी के साथ चार पाँच उमरावों ने आकर पूछा।
‘कैसी बातें?’- महाराणा ने पूछा।
‘सुना है सरकार ने मेड़तणी जी सा को जहर दिलवाया।’
‘झूठी बात का क्या उत्तर होसकता है? किसने कहा आपसे? यदि मैनें जहर दिलवाया तो मरी क्यों नहीं? किसने दवा दारू की? जहर किसने पिलाया और भाभी म्हाँरा उसे क्यों और कैसे पी गईं?’
‘किसने पिलाया, किसने दवा दारू की, इन बातों से क्या लेना देना है? बात तो यह है कि आपने सचमुच उन्हें विष दिलाया या नहीं? यदि दिलवाया तो क्यो? ऐसा कौन सा अनर्थ उन्होंने कर दिया? वे लाज पर्दा नहीं करतीं सो मान लिया, पर उनको कहीं व्यर्थ आते जाते भी तो नहीं सुना और न देखा।वे केवल मंदिर पधारतीं हैं, सो भी रथ में पर्दे के भीतर बैठकर।पर्दा न करने वाली बात आज की तो है नहीं।बड़े हुजूर भी यह सब जानते थे।जानकर ही उन्होंने यह विवाह कराया।मंदिर को छोड़कर कभी बड़ बूढ़े सरदार या गुरूजनों के सामने वे पधार गईं हों, ऐसा कभी भी नहीं सुना।मंदिर में कोई ज्ञानसुनने चला गया हो औरवहाँ उन्होंने घूँघट नहीं किया हो तो भले।इसमें भी तो उनकी नहीं जाने वाले की भूल है।अपने महलों में ही जब हमें ज्ञात होता है कि कोई नई बहू आई है तो हम स्वयं उस ओर नहीं जाते।उन्हें कहीं आना जाना होता है तो हम पीठ फेरलेते हैं।मर्यादा दोनों ओर से रखी जाती है हुकुम, उसकी रक्षा एक तरफ़ से नहीं हो सकती।’

‘नई बात तो यह है कि सांगरपुर का नवाब आया था।उसने मंदिर में बैठकर भाभी म्हाँरा से बातें कीं और हीरों का हार बख्श गया है’- महाराणा ने जहरीले स्वर में कहा- ‘तुम्हारी पगड़ियों में धूल भर दी उन्होंने।मैं कभी कभी बरज देता हूँ कि आप महल में रहकर भजन करें तो उन्हें बुरा लगता है।अब नया समाचार उड़ा दिया है कि मैनें उन्हें विष दिया है।कोई बालक भी समझ सकता है कि राजी खुशी कोई जहर नहीं पीता और उनसे जोरावरी करने मैं कब गया था।किसी को भेजा हो तब भी सोच कर देखिए कि भाभी म्हाँरा को हाथलगा सके, ऐसा तो केवल भाई उदयसिंह ही है।वह भी इससमय केवल बारह तेरह वर्ष का बालक है।समाचार सुनते ही आप सब दौड़े आये हैं मुझसे उत्तर उगाहने।’
‘पगड़ियों में यदि भक्ति करने से धूल घुसती हो तो उसी दिन घुस गई, जिस दिन महाराज कुमार का विवाह की हुआ और मेड़तणीजी सा का यहाँ पधारना हुआ।यह तो आपके शासन की ढिलाई है कि शत्रु हमारे घर में आकर निकल गया और आपको हमको ज्ञात भी न हो सका।क्या करता है आपका गुप्तचर विभाग? पड़े पड़े टुकड़े खाता है और मौज करता है।वह आया, उसीसमय उसे क्यों नहीं बंदी कर लिया गया? साँप चला गया और हम लकीर पीटे जा रहें हैं।सार क्या है इसमें?’
‘किंतु वह आया तो भाभी म्हाँरा से सलाह करने।ये क्यों नहीं महलमें विराजने की कृपा करके कुलकान रखतीं?’- महाराणा ने कहा।
‘अन्नदाता बात यह नहीं है कि वह क्यों आया था? बातयह है कि वह अपने घर में घुसकर निकल गया और हम देखते रह गये।कुछ न कर पाये। कौन जानता है कि वह क्यों आया था? राह बाट और युद्ध के लिए सुपास देखने आया होगा।खाली भजन सुनने के लिए कोई इतनी बड़ी जोखिम नहीं उठाता सरकार।शत्रु हमारी मूँछ का केश उखाड़ ले गया और हम दाँतों पर चिढ़ रहे हैं।’- सादड़ी राणा बोले।
‘सीमा की चौकियाँ ढीली हो गईं हैं।उधर से मालवा का सुल्तान और इधर गुजरात दोनों ओर से प्रजा दो पाटों के बीच पिस रही है।उसकी हाय पुकार सुनने वाला कोई नहीं है।’
‘तो फिर आप किस मांदगी की औखद है’- राणाजी अपने स्वभाव पर उतर आये- ‘केवल जागीर का उपयोग करते हुए महलों में सुख नींद लिरावौ।’
‘जागीर की क्या बात फरमाई हुकुम’- सलुम्बर रावतजी भभक पड़े- ‘हम ब्राह्मण या चारण भाट हैं कि दान में बख्श दी सरकार ने।जागीर में माथे के मोल मिली है।जिस दिन रणभेरी बजे, कड़खों की तान उठे और मातृभूमि की लाज ललकारे, यदि हरावल में दिखाई न दें, रणांगण में पड़े हमारे शव की छाती पर घाव दिखाई न दें, तब उस दिन यह बात फरमाईयेगा।हमें जागीर नहीं सम्मान प्यारा है।बार बार अपमान पीकर यहाँ बैठे हैं सो पूर्वजों के नाम पर गाली न लगे और राजपूती आन पर दाग न लग जाये इसलिए।जागीर के लोभ से नहीं पड़े हुकुम, यदि आप ऐसा ही समझते हैं तो यह लीजिए राज की जागीर।
क्रमशः

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