mc 84

मीरा चरित 
भाग- 84

दिन ढलने पर मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाऊँगी।तुम जाकर निवेदन कर देना कि मुझे भी बुजीसा हुकुम के दर्शन किए बहुत समय हो गया।आज कृपा करके उन्होंने याद फरमाया है तो दर्शनों के लिए हाजिर हो जाऊँगी’- मीरा ने कहा।
‘दाता हुकुम ने फरमाया है कि ठाकुरजी की आरती भोग आदि सब करके पधारें, अन्यथा सरकार वहाँ विराज नहीं सकेगीं ‘- दासी ने निवेदन किया।
मीरा ने हँस कर सिर हिला दिया।रात को जब मीरा सासजी के महल में पधारीं तो वहाँ सभी राजपरिवार की स्त्रियाँ उपस्थित थीं।उनकी दासियाँ और पासवानों(उपपत्नियाँ) को मिलाकर सौ डेढ़ सौ स्त्रियों का जमघट देख कर मीरा को कुछ आश्चर्य हुआ।उन्होंने अपनी सासों के चरणों में सिर झुकाया और देवरानियों को आशिर्वाद दिया।दासियों के अभिवादन स्वीकार करते हुए किसी के हाथ जोड़, किसी को सिर हिला, किसी को दृष्टि द्वारा और हँसकर एकाध बात करके सम्मान दिया।सबके यथास्थान बैठ जाने पर राजमाता जोधा जीजी(धनाबाई) ने फरमाया- ‘और सभी तो कहीं न कहीं इकट्ठे होते रहते हैं और मिलते ही हैं किंतु बानणी तुमसे मिलना सहज नहीं हो पाता, इसी कारण सोचा कि दो घड़ी बैठकर बात ही करेगें।’
‘बड़ी कृपा हुई, मैं तो हुजूर की बालक हूँ। यह दुर्भाग्य ही है मेरा कि राज की कोई सेवा नहीं बन आयी मुझसे।’- मीरा ने हाथ जोड़ कर निवेदनकिया।
‘अरे भाई, भक्तों का भगवानसे पिंड छूटे तो दूसरा याद आये न।’- छोटी माता हाड़ीजी ने हँसकर कहा- ‘कभी हमें भी याद कर लिया कीजिए कि हमारा भी उद्वार हो।’
‘प्रभु समर्थ है हुकुम, उद्वार उनकी कृपा से ही होता है’
‘मुझे आज्ञा हो तो कुँवराणीजी से कुछ पूछना है’- पासवानों (उपपत्नियों) की जाजिम पर बैठी हुई महाराज कुमार पृथ्वीराज की पासवानजी ने कहा।
‘पूछो न, ऐसी कौन सी बात है, जिसके लिए अलग से हुकुम लेना पड़े’- मीरा ने हँस कर कहा।
‘मेरी बहिन की बेटी को भूत लग गया है हुकुम, वह दिन रात दुबली होती जा रही है।औतरने (आवेश) के अलावा आँय बाँय करती है।बहुत टोटके किये, देवता, दिहाड़ी सबको सुमर लिया, पूज लिया किंतु उस पर कोई असर नहीं हुआ।मरने के बाद क्या सचमुच मनुष्य भूत बनता है हुकुम? यदि बनता है तो दूसरों के सिर क्यों लगता है? क्या हमको भी कभी भूत बनना पड़ेगा?’
‘भूत ही क्यों जगत में जितने भी प्राणी दिखाई देते हैं, वे सब मनुष्य योनि से निकले जीव हैं।मानव जीवन में किये गये कर्मों का फल भोगने के लिए ही दूसरी जूण(योनि) बनी है।अब रही दूसरों के लगने की बात, सो मरने के पश्चात भी स्वभाव तो साथ ही रहता है।जिसका स्वभाव संतोषी और भला है, वह भूत बने कि पशु, वह भला ही रहेगा और जिसका स्वभाव दुष्ट है वह मरने पर दुष्ट ही रहेगा।मन साथ रहने से तृष्णा बनी रहती है।उसी तृष्णा के वश होकर वह लोगों के पास जाता है।मैनें तो कभी देखा नहीं किंतु सुना है कि भूतों के मुँह सुई के छेद जैसे होते हैं।वे कुछ खा पी नहीं सकते।सड़े फलों का रस, मोरी का पानी, ऐसा ही वे कुछ ग्रहण कर सकते हैं अथवा मानव जन्म के उनके सम्बन्धी पिंड दें तो वह उन्हें प्राप्त होता है।संभव है इससे उन्हें मानसिक तृप्ति न होती हो।इसी कारण किसी की देह को माध्यम बना कर उसके मिस से खाते पीते और पहनते हैं।’

‘तभी भूत महल की ओर कोई नहीं जाता।जो भी जाता है वह या तो बीमार हो जाता है या मर जाता है’- हाड़ीजी ने कहा।
‘भगवान के नाम से भूत पास नहीं आते हुकुम।राम राम कहता हुआ मनुष्य कहीं भी जाये, भूत प्रेत किसी की मजाल नहीं उसके समीप आने की’- मीरा ने कहा।
‘सच फरमा रहीं है आप?’- हाड़ीजी ने आश्चर्य से पूछा।
‘इसमें आश्चर्य की क्या बात है हुकुम, भगवान का न म लेकर तो मनुष्य भवसागर पार कर लेतेहैं।भूत बेचारा किस खेत की मूली है? संतों का कहना है कि भगवान से भगवान का नाम बड़ा है।’
‘संतों की बात तो आप ही जानतीं होगीं।हमें तो आप एक बार भूत महल ही दिखा दीजिए।सुना है बहुत सुंदर बना है।आपके साथ रहेगीं तो भूत हमें भी कुछ नहीं कर पायेगें।’
‘जब आप फरमाइये।मैं तो प्रस्तुत हूँ’- मीरा ने कहा।
‘अभी चलें? फिर तो कौन जाने कब ऐसा अवसर मिले कि आपकी भक्ति के पट खुलें।जब भी किसा से पूछती हूँ यही उत्तर मिलता है कि कुवँराणीजी को तो चेत ही नहीं है।’
‘पधारे, भले ही’
‘फिर कभी पधार जायें, आज का ही क्या है? भूत महल में देखने जैसा है ही क्या?’- राजमाता पुवाँरजी सा (करमचंद पुवाँर बम्बोरी की बेटी) ने कहा- ‘कौन जाने कितनी पीढ़ियों से बंद  पड़े हैं वे महल।कहीं झाड़ू बुहारी नहीं लगी।कहीं पड़दड़ रहे होगें।भूत तो है नहीं वहाँ, किंतु साँप गौहरे अवश्य रहते होगें।ऐसी अँधेरी रात में वहाँ जायें और किसी को साँप ने डँस लिया तो रंग में भंग तो होगा ही, घर में हाण और जगत में हँसी भी होगी।’
‘अरे जीजा हुकुम, अभी आपको ज्ञात ही नहीं है कि भक्ति में कितनी शक्ति है।मैने तो सुना है कि कि वैद्यजी को श्री जी ने डाँटा सो डर के मारे मर गये।फिर लोग उठाकर उन्हें बीनणी के पास ले गये।इन्होने तो वैद्यजी को जीवित कर दिया।अपने तो वैद्य हकीम सब घर में ही हैं।लो उठो, रात अधिक हो जायेगी’- दासियों की ओर देखकर हाड़ीजी ने कहा- ‘तुम मशालें तैयार करो, जाओ।’

मीरा ने अपनी दासियों की ओर देखकर कहा- ‘तुम जाओ, प्रात: के उत्सव की प्रस्तुति करनी है।मैं बुजीसा हुकुम के साथ जा रही हूँ, फिर यहीं से किसी के साथ आ जाऊँगी।’
‘इन दोनों को भेज दीजिये’- मंगला ने काँपते कंठ से कहा- ‘मैं आपके साथ ही रहूँगी बाईसा हुकुम।’
‘नहीं मंगला तू भी जा।इन्हें सब समझाना पड़ेगा न?’
‘हाँ हाँ मंगला जा।तू यहाँ क्या करेगी? कुछ काम हुआ भी तो यह चार पाँच गाड़ियाँ भर जायें, इतनी खड़ी हं यहाँ’- हाड़ीजी ने हँसकर कहा- ‘अरे जीजा हुकुम (बड़ी सौत) आप विराजी कैसे हैं?  ऐसे तो विलम्ब हो जायेगा, पधारें।’
‘नहीं बहिन, तुम ही जाओ।मेरा मन नहीं करता जाने को।आँखों से दिखता नहीं।कहीं पाँव ऊँचा नीचा पड़ गया तो बुढ़ापे में हड्डियाँ जुड़ेगीं नहीं’- जोधीजी ने मना किया।
क्रमशः

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