mc96
मीरा चरित
भाग- 96
‘मुझसे नहीं देखा जाता, नहीं देखा जाता..... नहीं.... देखा जाता....’- श्याम कुँवर के स्वर टूट गये।
‘मेरे साथ पधारो मालकिन।हम उन्हें सचेत करने का प्रयत्न करें’- चमेली उनका हाथ थामकर अपनी स्वामिनी के पास लाई और उनके पास बिठा दिया।श्याम कुँवर बाईसा आँसू भरी आँखों से देखा उनके म्होटा माँ के मुख पर अनिवर्चनीय आनन्द झर रहा है, उनकी देह पुलकित, नेत्र निर्झर और आनन्द की अधिकता से होठ खुल गये हैं।उनके बीच से उनकी सुघड़ स्वच्छ दंत पँक्ति झाँक रही थी।उनकी देह रह रह करके मानों शीताधिक्य से काँप उठती थी।उनकी मुखाकृति ऐसी हो गई थी कि पहचान पाना कठिन था।चमेली गोमती और गंगा को बुला लाई।उदयकुँवर बाईसा, श्याम कुँवर बाईसा अपनी दासियों सहित बैठ कर कीर्तन करने लगीं -
‘मोहन मुकुन्द मुरारे कृष्ण वासुदेव हरे’
दो घड़ी बाद मीरा के पलक-पटल धीरे-धीरे उघड़े किन्तु आनन्द के वेग से पलकें पुनः मुंद जातीं। कीर्तन के स्वर ऊँचे होते गये।उसके साथ ही उनके अंगों में क्रमशः चेतना आती गई।जैसे ही उनके नेत्रों में अपने लिए पहचान पाई श्यामकुँवर बाईसा ने अधीरतापूर्वक अपना मस्तक उनकी गोद में रख दिया। वे आँसू ढारती हुई सुबकने लगीं।मीरा का वात्सल्यपूर्ण कर कमस उनकी पीठ और माथे पर घूमने लगा।उदयकुँवर बाईसा ने उठकर उनके चरणों में मस्तक रखा तो उन्होंने हँस कर अपनी गोद में खींच लिया, गालों पर हाथ फेरकर दुलार किया।दासियाँ रंग के कुण्डे पिचकारियाँ साफ करने में लग गईं।
‘आपको क्या हो गया था बड़ा हुकुम’- श्याम कुँवर बाईसा ने रूँआसे स्वर में पूछा।
‘कुछ भी तो नहीं, कभी कभी पागलपन की लहर सी आती है, तब कुछ ध्यान नहीं रहता।तू क्यों इतनी घबरा गई बेटा।इन छोरियों ने बताया नहीं तुझे कि ऐसा तो होता ही रहता है।’
‘बताया तो था हुकुम, पर मुझे धीरज बँधता ही न था।आपकी ऐसी डरावनी मूरत मैनें कभी नहीं देखी।’
‘कैसे देखती? छ: वर्ष की आयु में तो ससुराल चली गई पूत।उससे पहले गढ़ के सारे महल तेरे थे।कहाँ खाया, कहाँ खेली और कहाँ सोई, कुछ ठिकाना नहीं।अब उठ मेरी सोनचिड़ी, स्नान करके प्रसाद आरोगो।मेरी बेहोशी ने सबको अस्त व्यस्त कर रही दिया।’
भोजन प्रसाद के बाद विश्राम के समय मीरा ने काँचली में से कुछ निकाल कर श्यामकुँवर बाईसा के हाथ में थमा दिया। उसने मुट्ठियाँ खोलकर देखा तो वन केतकी के दो पुष्प और एक पेड़ा। उसने साभिप्राय माँ की तरफ़ देखा।
‘प्रभु ने दिये हैं। प्रसाद खा लो और फूलों को संभाल कर रखना’- मीरा ने उत्तर दिया।
‘ओह बड़ा हुकुम’- कहती हुई श्याम कुँवर बाईसा उनसे लिपट गई।
जयमल को दीक्षा.....
एक दिन बैठे बैठे ही श्याम कुँवर बाईसा एकाएक हँस पड़ीं, मानों कोई बात याद आ गई हो और फिर चुप हो गईं।
‘क्या हुआ, अचानक हँसी कैसे आई?’- मीरा ने पूछा।
‘कुछ नहीं ऐसे ही’
‘कुछ तो है, मेरे सुनने योग्य न हो शायद’
‘ऐसा न फरमायें हुजूर।वैसे बड़ों की बात करना बालकों के लिए उचित नहीं है’- श्याम कुँवर बाईसा ने संकोच से माथा झुका लिया- ‘आप वहाँ पधार ही रहीं हैं, वहीं सुन लीजियेगा’
‘ऐसी क्या बात है कि तुमसे कही नहीं जाती। माँ से भला क्या संकोच? यहाँ तो कोई पराया है नहीं और न ही यहाँ तुम्हारी ससुराल है।’
‘हुकुम है तो अर्ज करती हूँ।दो वर्ष पूर्व की बात है।कुँवर सा हुकुम (जयमल) अपने लिए एक महल बनवा रहे थे।दिन में एकाध बार उसके निरीक्षण के लिए वहाँ पधारते।महल बनवाने में पानी की ज़रूरत रहा ही करती है (पखाल जो चमड़े की बनी हुई बहुत बड़ी मशक होती है,उसमें तालाब से पानी भर भरके लाया जाता था।पानी से भरी पखाल इतनी भारी होती है कि उसे पाड़ा ही ढो सकता है।) पखाल से पानी लाने वाले छोरे ने एक दिन दूदासर से अर्ज की- कि एक साधु तालाब के किनारे बैठा है।उसने हुजूर को कहलवाया है कि मैं अन्न नहीं खाता,इसलिए दो सेर दूध किसी के हाथ भेज दें।
कुँवर सा हुकुम को न जाने क्या सूझी, दीवानजी को फरमाया-‘ देखो तो दीवानजी, इस बाबुड़ा की हिम्मत, इसे कोई और नहीं मिला दूध माँगने को, सीधे मुझे कहलवाया।’
फिर उस छोरे से कहा- ‘जा रे, जाकर कह देना उस मोड़े से कि इस पाड़े का दूध निकाल कर पी ले।’
‘अरे’- मीरा ने चौंक कर कहा- ‘ऐसी भोंडी बात कह दी’
‘हुकुम’
‘बहुत बुरा किया, फिर?’
‘पखाल खाली करके छोरा उसे पुनः भरने के लिए पाड़े को लेकर तालाब पर पहुँचा तो साधु ने पूछा- ‘तूने अपने राजा से मेरी बात कही?’
‘वे राजा नही उनके बेटे हैं’- लड़के ने कहा- ‘मैने उनसे अर्ज की थी।’
‘क्या कहा उन्होंने?’
‘कहा कि इस पाड़े का दूध दुह कर पी लो’- लड़के ने हँसते हँसतेकहा।
‘अच्छा ऐसा कहा उसने? बहुत अंहकार है तेरे राजा को?’- कहते कहते साधु उस पाड़े के पास पहुँचे।लड़का पानी की डोलची भर भर करके पखाल में डाल रहा था।पाड़ा पानी में ही खड़ा था।साधु ने पास जाकर पाड़े के माथे पर हाथ रखा और मुँह से ‘सीताराम’ नाम का उच्चारण किया।छोरे ने आश्चर्य पूर्वक देखा कि उनके सीताराम बोलते ही पाड़े के बड़े बड़े थन निकल आये, पावों के बीच में न समाये ऐसी बड़ी गादी और चारों थनों से झरती दूध की मोटी मोटी धारायें।देखते ही छोरे ने पाड़े को महल की ओर दौड़ाया।
‘कह देना अपने राजा से कि मैं तो पियूँ कि न पियूँ, पर तुम पी लो पाड़े का दूध’- भगते हुये लड़के के कान में साधु की वाणी गूँजी।
कुँवरसा हुकुम ने देखा कि पाड़े के पाँवों के पास दूध की कीच मच रही है।साधु की बात सुनाते हुए लड़के ने कहा- ‘देखिए सरकार, यह तो भैंस बन गया।’ किंतु कुँवर सा हुकुम ने आश्चर्य से देखा कि वह भैंस नहीं बना था, वह भैंसा ही था, केवल उसके थन निकल आये थे और उनसे अनवरत दूध झर रहा था।
‘कहाँ है वह साधु?’- उन्होंने पखाल्ये छोरे से पूछा।उनके स्वर की कड़क न जाने कहाँ गुम हो गई थी- ‘चल, मुझे दिखा तो।’
किंतु तालाब पर वह साधु कहीं नहीं दिखाई दिये।राजमहल लौटकर चारों ओर सवार दौड़ाये।साँझ को दो चार कोस की दूरी पर एक पेड़ के नीचे बैठे हुए मिले।सूचना पाकर कुँवरसा पधारे और चरण पकड़ कर माफी माँगीं।
क्रमशः
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