वृन्दावन सत लीला 1

🙏श्री राधाबल्लभ जयति 🙏
🙏श्री हित हरिवंशचन्द्रों जयति 🙏

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत

श्री वृन्दावन सत लीला
प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन।
प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।।

चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि।
नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।।

वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह।
नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।।

यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर ।
वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।।

दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन।
नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।।

सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई।
एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।।

सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव
चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।।

हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास
कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।।

प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ
हिये हुलास।
तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।।

कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि ।
वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।।

हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।
चित्रित चित्र विचित्र गति, छबि की उठत तरँग।।11।।

वृन्दावन झलकन झमक,फुले नैन निहारि।
रवि शशि दुतिधर जहाँ लगि, ते सब डारे वारि।।12।।

वृन्दावन दुतिपत्र की, उपमा कौं कछु नाहि।
कोटि - कोटि बैकुण्ठ हूं, तेहि सम कहे न जाहिं ।।13।।

लता  - लता सब कल्पतरु, पारिजात सब फूल।
सहज एक रस रहत है, झलकत यमुना कूल ।।14।।

कुंज -  कुंज अति प्रेम सों, कोटि  - कोटि रति मैन।
दिनहिं सनवाल रहत है, श्री वृन्दावन ऐन ।।15।।

विपिनराज राजत दिनहिं, बरसत आनन्द पुंज।
लुब्ध सुगन्ध पराग रस, मधुप करत मधु गुंज।।16।।

अरुण नील सित कमल कुल, रहे फूलि बहुरंग।
वृन्दावन पहिरे मनों, बहु बिधि बसन सुरंग।।17।।

हितसों त्रिबिध समीर बहै, जैसी रुचि जिहि काल।
मधुर - कोकिला, कूजत मोर मराल ।।18।।

मण्डित यमुना वारि यों, राजत परम् रसाल।
अति सुदेस सोभित मनों, नील मनिन की माल।।19।।

विपिन धाम आनन्द कौ, चतुरई चित्रित ताहि।
मदन केलि सम्पति सदा,तेहि करि पूरन आहि।।20।।

देवी वृन्दाबिपिन की,वृन्दा सखी सरूप।
जेहि विधि रुचि होई दुहुन की,तेहि विधि करत अनूप।।21।।

छिन - छिन बन की छबि नई, नवल युगल के हेत।
समुझि बात सब जीय की,सखि वृन्दा सुख देत।।22।।

गावत वृन्दाविपिन गुन, नवल लाडिलीलाल।
सुखद लता फल फूल द्रुम, अदभुत परम् रसाल।।23।।

उपमा वृन्दाबिपिन की,कहि धौं दीजै काहि।
अति अभूत अदभुत सरस, श्री मुख बरनत ताहि।।24।।

आदि अन्त जाकौ नहीं, नित्य सुखद बन आहि।
माया त्रिगुन प्रपञ्च की, पवन न परसत ताहि।।25।।

वृन्दाबिपिन सुहावनो, रहत एक रस नित्त।
प्रेम सुरंग रँगे तहाँ , एक प्रान द्वे मित्त।।26।।

अति स्वरूप सुकुमार तन, नव किशोर सुखरास।
हरत प्राण सब सखिन के,करत मन्द मृदु हास।।27।।

नयारौ है सब लोक ते, वृन्दावन निज गेह।
खेलत लाडली लाल जहँ, भीजे सरस् स्नेह।।28।।

गौर- श्याम तन मन रँगे, प्रेम स्वाद रस सार।
निकसत नहिं तिहि ऐन तें, अटके सरस् विहार।।29।।

बन है बाग सुहाग कौ, राखयौ रस में पागि।
रूप रंग के फूल दो, प्रीति लता रहे लागि।।30।।

मदन सुधा के रस भरे, फूलि रहे दिन रैन।
चहुँदिश भृमत न तजत छिन, भृंग सखिन के नैन ।।31।।

कानन में रहैं झलकि कै, आनन विवि विधु काँति।
सहज चकोरी सखिन की, अखियाँ निरखि सिरांत ।।32।।

ऐसे रस में दिन मगन, नहि जानत निशि भोर।
वृन्दावन में प्रेम की , नदी बहै चहुँ ओर।।33।।

महिमा वृन्दा बिपिन की,कैसे कै कहि जाय।
ऐसे रसिक किशोर दोऊ, जामे  रहे लुभाय।।34।।

विपिन अलौकिक लोक में, अति अभूत रसकन्द।
नव किशोर इक वैस द्रुम, फुले रहत सुछन्द।।35।।

पत्र फूल लता प्रति, रहत रसिक पिय चाहि ।
नवल कुँवरि दृग छटा जल, तिहि करि सींचे आहि ।।36।।

कुँवरि चरन अंकित धरनि, देखत जिहि-जिहि ठौर ।
प्रिया चरन रज जानि कै, लुठत रसिक सिरमौर ।।37।।

वृन्दावन प्यारौ अधिक, बातें प्रेम अपार ।
जामें खेलति लाडिली, सर्वसु प्रान अधार ।।38।।

सबै सखी सब सौंज लै, रँगी जुगल ध्रुव रँग ।
समै समै की जानि रुचि, लियै रहति है सँग ।।39।।

वृन्दावन वैभव जितौ, तितौ कह्यौ  नहिं जात ।
देखत सम्पति विपिन की, कमला हु ललचात ।।40।।

वृंदावन की लता सम, कोटि कल्पतरु नाहिं।
रज की तूल बैकुंठ नही, औऱ लोक किहि माहिं।।41।।

श्रीपति श्रीमुख कमल कह्यौ, नारद सौं समुझाइ।
वृन्दावन रस सबन तें, राख्यो दूरि दुराइ।।42।।

अंश- कला औतार जे, ते सेवत है ताहि।
ऐसे वृन्दाविपिन कों, मन- वच कै अवगाहि ।।43।।

शिव - विधि - उद्धव सबन के, यह आशा है चित्त।
गुल्म लता ह्वै सिर धरै, वृन्दावन  रज नित्त।।44।।

चतुरानन देखयौ कछू, वृन्दाविपिन प्रभाव।
द्रुम - द्रुम प्रति अरु लता प्रति, औरै बन्यौ बनाव।।45।।
 
आप सहित सब चतुर्भुज, सब ठाँ रह्यौ निहार।
प्रभुता अपनी भूल गयौ, तन मन के रह्यौ हार ।।46।।

लोक चतुर्दश ठकुरई, संपति सकल समेत।
सब तजि बस वृन्दाविपिन, रसिकन कौ रस खेत ।।47।।

सकहि तौ वृन्दाविपिन बसि, छिन- छिन आयु विहात।
ऐसो समौ न पाइये, भली बनी है घात।।48।।

छाँड़ि स्वाद सुख देह के, औऱ जगत की लाज।
मनहिं मारि तन हारि कै, वृन्दावन में गाज।।49।।

वृन्दावन के बसत ही, अंतर जो करै आनि ।
तिहि सम शत्रु न और कोऊ, मन बच कै यह जानि।।50।।

वृन्दावन के वास कौ , जिनके नही हुलास ।
माता- मित्र - सुतादि - तिय, तज ध्रुव तिनकौ पास ।।51।।

और देश के बसत ही, अधिक भजन जो होइ।
इहि सम नही पूजत तऊ, वृन्दावन रहै सोई।।52।।

वृन्दावन में  जो कबहुँ , भजन कछु नहिं होय।
रज तौ उड़ि लागै तनहिं, पीवै यमुना तोय।।53।।

वृन्दाविपिन प्रभाव सुनि आपनो ही गुन देत ।
जैसे बालक मलिन कौं , मात गोद भर लेत ।।54 ।।

और ठौर जो यतन करै, होत भजन तऊ नाहिं ।
हाँ फिरै स्वारथ आपने, भजन गहे फिरै बाँह ।।55।।

और देश के बसत ही, घटत भजन की बात।
वृन्दावन में स्वारर्थो , उलटि भजन ह्वै जात।।56।।

यद्यपि सब औगुन भरयौ, तदपि करत तुव ईठ।
हितमय वृन्दाविपिन कौं, कैसे दीजै पीठ ।।57।।

वृन्दावन के अनत ही, जेतिक द्योस विहात ।
ते दिन लेखे जिन लिखो वृथा अकारथ जात ।।58 ।।

भजन रसमई विपिन धर, समुझि बसै जो कोई।
प्रेम -   बीज तेहि खेत तें, तब ही अंकुर होय।।59।।

यद्यपि धावत विषै कौं, भजन गहत बिच पानि ।
ऐसे वृन्दाविपिन की सरन गही ध्रुव आनि।।60।।

बसिबो वृन्दाविपिन कौ, जिहि तिहि बिधि दृढ़ होइ।
नही चूकै ऐसौ समौ, जतन कीजिये सोइ।।61।।

कँह तू कहँ वृन्दाविपिन ,आनि बन्यौ भल बान।
यहै बात जिय समुझि कै,आपनो छाँड़ सयान ।।62।।

छीन भंगुर तन जात है, छाँड़हि विषै अलोल।
कौड़ी बदले लेहि तू, अदभुत रतन अमोल ।।63।।

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