सत लीला 2

कोटि - कोटि हीरा रतन, अरु मनि विविध अनेक।
मिथ्या लालच छाँड़ि कै, गहि वृन्दावन एक ।।64।।

नहिं सो माता - पिता नहिं, मित्र पुत्र कोऊ नाहिं।
इनमे जो अंतर करै, बसत वृन्दावन माहिं  ।।65।।

नाते जेते जगत के, ते सब मिथ्या मान।
सत्य  नित्य आनन्द मय, वृन्दावन पहिचान ।।66।।

बसिके वृन्दाविपिन में, ऐसी मन में राख ।
प्राण तजौ बन ना तजौ, कहौ बात कोऊ लाख।।67।।

चलत फिरत सुनियत यहै, (श्री) राधाबलभलाल ।
ऐसे वृन्दाविपिन में ,बसत रहौ सब काल।।68।।

बसिबौ वृन्दाविपिन कौ, यह मन में धरि लेहु।
कीजै ऐसौ नेम दृढ़, या रज में परै देह।।69।।

खण्ड – खण्ड ह्वै जाइ तन, अंग -अंग सत टूक ।
वृन्दावन नहिं छाँड़िये, छाँड़िबौ है बड़ चूक ।।70।।

पटतर वृन्दाविपिन की,कहिं धौं  दीजै काहि।
जेहि बन की ध्रुव रेनु में, मारीबौ मंगल आहि।।71।।

वृन्दावन के गुनन सुनि,हित सौं रज में लोट।
जेहि सुख कौं पूजत नहीं, मुक्ति आदि सत कोट ।।72।।

सुरपति - पशुपति- प्रजापति, रहे भूल तेहि ठौर ।
वृन्दावन वैभव कहौ, कौन जानिहै औऱ ।।73।।

यद्यपि राजत अवनि पर, सबतें ऊँचौ आहि।
ताकि सम कहिये कहा, श्रीपति बंदत ताहि।।74।।

वृन्दावन वृन्दाविपिन, वृन्दा कानन ऐन।
छिन - छिन रसना रटौ कर, वृन्दावन सुख दैन।।75।।

वृन्दावन आनन्द घन , तो तन नशवर आहि।
पशु ज्यों खोवत विषै रस, काहि न  चिंतत ताहि।।76।।

वृन्दावन वृन्दा कहत, दुरित वृन्द दुरि जाहिं।
नेह बेलि रस भजन की, तब उपजै मन माहिं।।77।।

वृन्दावन श्रवनन सुनहि, वृन्दावन को गान।
मन वच कै अति हेत सौं, वृन्दावन उर आन।।78।।

वृन्दावन को नाम रट, वृन्दावन कौं देख।
वृन्दावन सों प्रीति कर, वृन्दावन उर लेख ।।79।।

वृन्दा विपिन प्रनाम करि, वृन्दावन सुख खान।
जो चाहत विश्राम ध्रुव, वृन्दावन पहिचान ।।80।।

तजि कै वृन्दाविपिन कौं, और तीर्थ जे जात।
छाँड़ि विमल चिंतामणी, कौड़ी कौं ललचात।।81।।

पाइ रतन चिन्हों नहीं, दिनों कर तें डार ।
यह माया श्रीकृष्ण की, मोह्यौ सब संसार।।82।

प्रगट जगत में जगमगै वृन्दाविपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं, यह माया कौ रूप।।83।।

वृन्दावन कौ यश अमल, जिहि पुराण में नाहिं।
ताकी बानी परौ जिन, कबहुँ श्रवनन माहिं।।84।।

वृन्दावन कौ यश सुनत, जिनकै नहीं हुलास।
तिनकौ परस न कीजिये, तज ध्रुव तिनकौ पास।।85।।

भुवन चतुर्दश आदि दै, ह्वै है सबकौ नास।
एक छत वृन्दाविपिन घन, सुख कौ सहज निवास ।।86।।

वृन्दावन इह विधि बसै, तजि कै सब अभिमान।
तृण तेन नीचौ आप कौं, जानै सोई जान ।।87।।

कोमल चित्त सब सों मिलै, कबहुँ कठोर न होइ।
निस्प्रेही निर्वेरता, ताकौ शत्रु न कोइ।।88।।

दूजे – तीजे जो जुरै, साक – पत्र कछु आय।
ताही सों सन्तोष करि, रहै अधिक सुख पाय ।।89।।

देह स्वाद छूट जाहिं सब, कछु होइ छीन शरीर।
प्रेम रंग उर में बढ़े,  बिहारै यमुना तीर।।90 ।।

युगल रूप की झलक उर, नैन रहै झलकाइ।
ऐसे सुख के रंग में, राखै मनहिं रँगाइ।।91।।

आवै छवि की झलक उर, झलकै नैनन वारि।
चिंतत साँवल–  गौर तन, सकहि न तनहिं सँभारी ।।92।।

जीरन पट अति दीन लट, हिये सरस् अनुराग।
विवस सघन बन में फिरै, गावत युगल सुहाग ।।93।।

रस में देखत फिरै बन, नैनन बन रहै आइ।
कहुँ–कहुँ आनन्द रंग भरी, परै धरनि थहराइ ।।94।।

ऐसी गति ह्वै कबहुँ, मुख निसरत नहिं बैन।
देखि– देखि वृन्दाविपिन, भरि– भरि ढारै नैन।।95।।

वृन्दावन तरु–तरु तरे, ढरै नैन
सुख नीर।
चिंतत फिरै आबेस बस, साँवल –गौर शरीर।।96।।

परम् सच्चिदानंद घन, बृन्दाविपिन सुदेश ।
जामें कबहुँ होत नहिं, माया काल प्रवेश।।97।।

शारद जो सत कोटि मिलि, कलपन करैं विचार।
वृन्दावन सुख रंग कौ, कबहुँ न पावै पार ।।98।।

वृन्दावन आनन्द घन, सब ते उत्तम आहि।
मोते नीच न और कोऊ, कैसे पैहों
ताहि।।99।।

इत बौना आकाश फल, चाहत है मन माहिं ।
ताकौ एक कृपा बिना , और यतन कछु नाहिं ।।100।।

कुँवरि किशोरी नाम सों, उपज्यो दृढ़ विश्वास ।
करुणानिधि मृदु चित्त अति, ताते बढ़ी जिय आस ।।101।।

जिनकौ वृन्दाविपिन है, कृपा तिनहि की होइ।
वृन्दावन में तबहि तौ, रहन पाइ है सोइ।।102।।

वृन्दावन सत रतन की, माला गुही बनाइ।
भाल भाग जाके लिखी, सोई पहिरै आइ।।103।।

वृन्दावन सुख रंग की, आशा जो चित्त होइ।
निशि दिन कंठ धरै रहै, छिन नहिं टारै सोइ।।104।।

वृन्दावन सत जो कहै, सुनि है नीकी भाँति।
निसदिन तेहि उर जगमगे, वृन्दावन की काँति।।105।।

वृन्दावन कौ चितंबन, यहै दीप उर बार।
कोटि जन्म के तम अघहि, कोटि करै उजियार ।।106 ।।

बसिकै वृन्दाविपिन में इतनो बड़ौ सयान।
युगल चरण के भजन बिन, निमिष न दीजै जान ।।107।।

सहज विराजत एक रस, वृन्दावन निज धाम।
ललितादिक सखियन सहित, क्रीडत स्यामा श्याम ।।108।।

प्रेम सिंधु वृन्दाविपिन, जाकौ अंत न आदि।
जहाँ कलोलत रहत नित, युगल किशोर अनादि।।109।।

न्यारो चौदह भवन तै, वृन्दावन निज भौन।
तहाँ न कबहुँ लगत है महा प्रलय की पौन।।110।।

महिमा वृन्दाविपिन की, कहि न सकत मम जिह।
जाके रसना द्वे सहस, तीनहुँ काढी लीह।।111।।

एती मति मोपै कहा , शोभा निधि बनराज।
ढीठो कै कछु कहत हौं, आवत नहिं जिय लाज।।112।।

मति प्रमान चाहत कह्यौ, सोऊ कहत लजात।
सिंधु अगम जेहि पार नहिं, कैसे सीप समात।।113।।

या मन के अवलंब हित, कीन्हों आहि उपाय।
वृन्दावन रस कहन में,मति कबहुँ उरझाय ।।114।।

सोलह सै ध्रुव छ्यासिया,पून्यौ अगहन मास।
यह प्रबन्ध पूरन भयौ, सुनत होत अघ नास।।115।।

दोहा वृन्दाविपिन के , इकसत षोड़स आहि।
जो चाहत रस रीति फल, छिन –छिन ध्रुव अवगाहि।।116।।

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला