नित्य केलि

श्री राधा चरण शरणम् मम्
नित्य केलि रस
श्री हरिदास

नित्य विहार सेवा मानसी-सेवा की भाँति केवल मानस प्रत्यक्ष ही नहीं होती,

वह प्रकट सेवा की भाँति इन्द्रिय-प्रत्यक्ष भी होती है। उपासक के मन एवं इन्द्रियों में प्रेम का प्रकाश होने के बाद वह अपने इन ही नेत्रों से युगल की अद्भुत रूप माधुरी का दर्शन करता है और अपने इनही कानों से उनके अद्भुत मधुर वचनों को सुनता है। वह अपनी इसी नासिका से उनके अंगों की अद्भुत सुगंध का आघ्राण करता है एवं अपने इनही हाथ-पैरों से उनकी अद्भुत सुखमयी परिचर्या में नियुक्त होता है।

श्री ध्रुवदास ने कहा है ‘जो उपासक मन और वाणी को एकत्र करके इस रस का गान करता है वह निश्चय सहचरि पद को प्राप्त होता है।
वह इनही नेत्रों से सम्पूर्ण सुख देखता है और अपने जीवन को सफल मानता है। नव मोहन एवं राधा प्यारी को निरख कर वह उन पर न्यौछावर हो जाता है।’

यह रस जो मन बच कै गाबै, निश्चै सो सहचरि पद पावै।
इनही नैननि सब सुख देखै, जनमसुफल अपनौं करि लेखै।
नव मोहन श्रीराधा प्यारी, हित ध्रुव निरखि जाई बलिहारी।[1]

इन्द्रियाँ जब प्रेममयी सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होती तब उनकी प्रत्येक क्रिया सेवा-सुख में वृद्धि करने वाली बन जाती है। इन्द्रियों के सामने प्रकट संसार के स्थान में नित्य प्रकट प्रेमोल्लास आ जाता है और वे सहज रूप से उसका उपभोग करने लगतीं हैं।

श्री नागरी दास बतलाते हैं ‘यदि इन्द्रियाँ अपने विषयों को छोड़ कर भजन[2] में स्थिर हो जाय तो उपासक सर्वत्र सेवा-सुख का भोग करता हुआ विचरण कर सकता है। उसको कहीं भी सुख की कमी नहीं रहती। भजन के बल से यदि इन्द्रियों के हाथों भाव का स्फुरण होले लगे तो सर्व गुणों से पूर्ण नित्य-विहार प्रत्यक्ष हो जाय और हृदय में नित्य नूतन चाव बढ़ता रहे।'

इन्द्री अपगुन त्यागि जो भजन माहिं ठहराँई।
जहँ-तहँ सुख विलसत फिरै तौ कहुँ टोटौ नाहिं।।

भजन बल इन्द्री हाथ जो फुरिबौ करिहै भाव।
सब गुन वस्तु विलोकि है नव-नव नित चित चाव।।

जय जय हरिवंश चरण शरणम्

जय जय श्री राधे

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