mc 37

मीरा चरित 
भाग- 37

भोजराज की अंतर्वेदना और अंतर्द्वंद्व ....

डेरे पर आकर वे कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा गिरे। पर वहाँ भी चैन न मिला, लगा पलंग पर अंगारे बिछे हों। वे धरती पर जा पड़े। कमर में बँधी कटार चुभी। खींचकर दूर फेंकने लगे कि कुछ सोचकर ठहर गये-उठ बैठे। कटार को म्यान से निकाला, एक बार अँगूठा फेरकर धार देखी और दाहिना हाथ ऊपर उठाकर उसे छाती पर तान लिया... । एक क्षण.... जैसे बिजली चमकी हो, अंतर में मीरा आ खड़ी हुई। उदास मुख,कमल-पत्र पर ठहरे ओस-कण से आँसू गालों पर चमक रहे हैं। जलहीन मत्स्या-सी आकुल-व्याकुल दृष्टि मानो कह रही हो–‘मेरा क्या होगा?' उन्होंने तड़पकर कटार फेंक दी। मरते पशु-सा धीमा आर्तनाद उनके गले से निकला और वे पुनः भूमि पर लोटने लगे।
मेदपाट का स्वामी, हिन्दुआ सूर्य का ज्येष्ठ कुमार और लाखों वीरों का अग्रणी, जिसका नाम सुनकर ही दुष्टों के प्राण सूख जाते हैं और दीन-दुःखी श्रद्धा से जय-जय कर उठते हैं। रनिवास में प्रवेश करते ही दासियाँ राई-नौन उतारने लगती हैं और दुलार करती माताओं की आँखों में सौ-सौ सपने तैर उठते हैं। जिसे देखकर एकलिंगनाथ के दीवान की छाती गौरव से फूलकर दुगुनी हो जाती है, और उमराव अपने भावी नायक को देखकर संतोष की साँस लेते हैं। वही.... वही.... वही नरसिंह आज घायल शूर की भाँति धरा पर पड़ा तड़फ रहा है। आशा-अभिलाषा और यौवन की अर्थी उठ गयी। उनका धीर-वीर हृदय प्रेम-पीड़ा से कराह उठा। एकलिंगनाथ के लाड़ले का कलेजा, जो सहस्रों बैरियों को देखकर उत्साह से उछल पड़ता था, आज पानी हो नेत्रों की राह बह गया। चित्तौड़ का युवराज आज दीन-हीन हो धूल में लोट रहा हैं। जिसके पसीने के स्थान पर हजारों वीर रक्त बहाने को तैयार रहते हैं, जिसकी एक हाँक पर वन-व्याघ्र तक सहम उठते हैं, उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, महँगे राजसी वस्त्र और केश धूलि-धूसरित हो गये। इस दुःख में भाग बँटाने वाला, धीरज देने वाला उन्हें कोई दिखायी नहीं दिया। तब.... तब.... कहाँ जाकर ठंडे हों? यह धीमा दाह... कैसे.... शांत हो ? पर शांत हो कैसे? यही तो वे नहीं चाहते। यह व्याकुलता पीड़ा चरम सीमा तक बढ़े, पर प्राण न जायँ....!

'थे ही म्हारा सेठ बोहरा ब्याज मूल कॉई जोड़ो। 
गिरधर लाल प्रीत मति तोड़ो। 

भोजराज के बहरे कान सुन रहे हैं-
'मीराके प्रभु गिरधर नागर, रस में विष काँई घोलो।'

'बावजी हुकम! बावजी हुकम!'- बाहर से पुरुष कंठ का स्वर आया। वे चौंककर उठ बैठे-'आह भोज! तेरे भाग्य में एकान्त का सुख ही कहाँ लिखा है? उठ; उठ जा।'

'खट..., खट..., खट...- द्वार पर फिर खटका हुआ और भोजराज का गम्भीर कंठ पुकार उठा-  'कौन है?'
'यह तो मैं हूँ हुकम ! पूरणमल'
'क्या है?'— जैसे घन गरज उठे हों।
'आखेट पर पधारने के सभी प्रबन्ध हो गये। मैं शस्त्र धारण कराने हाजिर हुआ हूँ।'–पूरणमल ने विनम्रता से उत्तर दिया।
मन में आया, कह दूँ कि सिर में दर्द है, किन्तु नहीं। अभी भुवासा, फूफोसा और सब लोग इकट्ठे हो जायँगे। खुशी पूछने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ तो दो-तीन दिन तक समाप्त ही न होगा। निश्वास छोड़कर बोले- 'थोड़ा ठहर! अभी खोलता हूँ।'

उन्होंने खड़े होकर वस्त्र झड़काये। मुहँ धोया, पानी पिया, गीले हाथ केशों पर फेरकर साफा बाँधा, कटार उठाकर कमरबंध में लगायी और आरसी में मुँह देखा। आश्चर्य और दुःख से उनका मुँह खुल गया। अपना ही चेहरा अनजाना लगा उन्हें। आँखें सूज गयी हैं, होंठ सूखे और मुँह उतरा हुआ। उन्होंने होठों पर जीभ फेरकर मुस्कराने का प्रयत्न किया, किन्तु मुस्कान के बदले होठों पर एक करुण रेखा खिंचकर रह गयी।वे हारकर पलंग पर बैठ गये—'क्यों आ गया मैं यहाँ? बाई हुकम (माँ) ने तो ना फरमाया था; मैंने ही जिद्द की। हाय, कैसा दुर्भाग्य है इस अभागे मन का? कहाँ जा लगा यह, जहाँ इसकी रत्तीभर परवाह नहीं, चाह नहीं। पाँव तले रुँदने का भाग्य लिखाकर आया बदनसीब। 'मीरा!' कितना मीठा नाम है यह, जैसे अमृत से बना हो - सींचा गया हो। अच्छा, इस नामका अर्थ क्या है भला? नहीं जानता न तू? पर पूछूं किससे? पूरणमल जानता होगा? हिस्स! किसी से नहीं पूछा जा सकता। अब तो.... अब तो.... उन्हीं से पूछना होगा। चित्तौड़ आनेपर.... ।' उनके होठों पर मुस्कान, हृदय में विद्युत् तरंग थिरक गयी। वे मीरा से मानो प्रत्यक्ष बात करने लगे- 'मुझे केवल तुम्हारे दर्शन का अधिकार चाहिये.... तुम प्रसन्न रहो, तुम्हारी सेवा का सुख पाकर यह भोज निहाल हो जाय, मुझे और कुछ नही चाहिए..कुछ नही।’

'बावूजी हुकम!'

भोजराज जैसे स्वप्न से जगे– 'एकलिंगनाथ! मेरी लज्जा रखना प्रभु! मन में कहते हुए उन्होंने उठकर द्वार खोल दिया।
'शीघ्रता कीजिये बावजी हुकम! फूफोसा हुकम और भाणेज बना भी पधार गये हैं।'– पूरणमल जल्दी-जल्दी हथियार बाँधते हुए बोला- 'ये वस्त्र तो मैले हो गये हैं। दूसरे धारण करा दूँ? ऐसी धूल कहाँ लगी?'
'कहाँ लगी और कहाँ न लगी, सो सब कैफियत अभी देनी होगी? समय तो शस्त्र बाँधने का भी नहीं है और तू वस्त्र बदलने की बात कर रहा है।'
‘बाहर सब लोग हैं इसीसे.... ।'
'सो क्या तेरी सगाई करनी है कि लोग सोचेंगे मालिक इतना गंदा है तो सेवक कैसा होगा और सगाई टूट जायगी? यह बात हो तो वस्त्र बदल लूँ।'— भोजराज ने हँसकर कहा। पूछा- 'घोड़ी तैयार है?'
'हुकम! तैयार है।'– पूरणमल ने लजाते हुए कहा।
'अब भुवासा पधारें तो शीघ्र विदा कराकर घर चल चलें। मुझे तो घर की, चित्तौड़ की याद आती है।'

'सुना है....।'– पूरणमल कहते-कहते ठहर गया। मन में सोचा कि कौन जाने बावजी हुकम को बात अच्छी न लगे, सुनकर कहीं अप्रसन्न न हों।
'क्या सुना है?'– भोजराज ने पूछा।
'सरकार नाराज तो नहीं होंगे?"
'क्यों, नाराज होने जैसी बात है? यदि ऐसा है तो कहने को उतावला ही क्यों हुआ?'
'बात तो पुरस्कार पाने जैसी है, पर बड़े लोगों के मन की कैसे जान सकते हैं।'
 'पुरस्कार भले न मिले, पर रुष्टता का दण्ड भी न मिलेगा। अब आफरा झाड़ले अपना, कह दे!' -भोजराज ने हँसकर कहा।
'सुना है अपने साथ यहाँ के पुरोहितजी महाराज भी चलेंगे।'
'क्यों?"
क्रमशः

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