mc 38

मीरा चरित 
भाग- 38

‘रावले छोटे भाई रतनसिंहजी की पुत्री के सम्बन्ध का प्रस्ताव लेकर वे श्रीजी के सम्मुख उपस्थित होंगे। सुना यह भी है कि बाईसा सुन्दर, गुणवती, कवि और भक्त हैं। किसी योगी से उन्होंने योग और संगीत की शिक्षा भी पायी है। स्वभाव तो ऐसा है, मानो गंगा का नीर हो।'– पूरणमल ने प्रसन्न स्वरमें कहा।
 "तुझे कैसे ज्ञात हुई इतनी सारी बातें?'- पूरणमल की बातें भोजराज के हृदय की प्यासी धरती पर प्रथम मेघ-सी बरसीं, जिसकी एक-एक बूंद आतुरतापूर्वक उन्होंने सोख ली।

 ‘कुछ तो सरदारों की बातों से ज्ञात हुई, कुछ मैंने स्वयं ही इधर-उधर सेवकों-बालकों से जानकारी ली।'
'क्या आवश्यकता आ पड़ी थी तुझे?'– भोजराज ने देह के कंप से लड़ते हुए पूछा। 
'सरकार ! वे कल हमारी स्वामिनी होंगी। बालकों को, सेवकों को उत्सुकता रहती ही है। यदि यह सब सच है और मेवाड़ को ऐसी महारानी मिल जाय तो सोने को सुगन्ध प्राप्त हो और भाग्य खुल जाये हमारा।'
'तुझे कुछ बोलनेकी अकल भी है? क्या कह गया तू? पता नहीं, किसको महारानी बनाने के सपने देख रहा है। दाजीराज (पिताजी) को पूछा भी है? वे इस आयु में विवाह करना चाहते भी हैं? कोई राजनैतिक कारण भी दिखायी नहीं देता। मेड़ता से तो पहले ही अच्छे सम्बन्ध हैं, फिर?'–भोजराज ने अनजान बनते हुए कहा।
'अरे सरकार! यह श्रीजी के विवाह की बात नहीं है।' पूरणमलको अपनी भूल ज्ञात हुई। वह सुधारते हुए बोला- 'यह तो राज के सम्बन्ध की बात है।'

हृदय और देह की पुलक को छिपाते हुए भोजराज ने कृत्रिम क्रोध दिखाया "क्यों रे अकल के दुश्मन! पता नहीं, तू कौन-सी बाईसा को मुझसे जोड़कर कब से महारानी-महारानी करके मुझे दाजीराज के सामने ही सिंहासनपर बिठाना चाहता है या उनके कैलाशवास की सूचना भी तुझे किसी ज्योतिषी ने दी है?"

एकदम चौंकने से पूरणमल के हाथ रुक गये। वह घबराकर बोल उठा 'क्षमा, क्षमा सरकार! मेरे मन में ऐसी दुर्भावना नहीं थी। जाने कैसे जीभ फिसल गयी।'
 'ठीक है, अब जीभ को, बुद्धि की डोरी से बाँधकर रखा कर! समझा? तेरे मुखसे निकली बात मेरे मन की बात समझी जाती है। यह बात समझ ले पूरणमल, कि चित्तौड़ का राज्य एकलिंगनाथ का है। इसके दीवान जिस सिंहासन पर बैठते हैं, त्याग और बलिदान उसकी सीढ़ियाँ हैं। मुझ जैसे सैकड़ों भोज और तुझ जैसे हजारों पूरणमल उसकी मर्यादा पर न्यौछावर किये जा सकते हैं। कभी यह न समझ लेना कि मुझे उस सिंहासन का लोभ है।' 

उसी क्षण पूरणमल पर मानो सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया, वह सहमकर बोल उठा–'हुकम सरकार!'
'अब तो एकाध दिन में विदा लेकर चित्तौड़ चले चलें?'- भोजराज ने कवचकी कड़ियाँ ढीली करनेका संकेत करते हुए कहा।

कड़ियाँ ढीली करके तरकस के फीते बाँधते हुए पूरणमल ने सोचा- 'कैसा पत्थर मन का है यह युवराज ! न इसे राज्य का लोभ है न सगाई की बात में रुचि। एक मुस्कान भी तो नहीं आयी होठों पर, न ही कुछ पूछा उन बाईसा के विषय में। साधारण युवक तो प्रसन्नता सँभाल ही नहीं पाते। पर ये क्या साधारण व्यक्ति हैं? चार वर्ष से इनकी सेवा में हूँ। कभी व्यर्थ बात और व्यर्थ चेष्टा नहीं देखी। साथियों से विनोद भी करते हैं तो ऐसा कि अन्य को शिक्षा मिले। अन्याय के प्रति जितने असहनशील हैं, गुरुजनोंके प्रति, धर्म और न्याय के प्रति उतने ही सहनशील हैं। राजसिंहासन पर बैठने वाले के हृदय को भगवान् पत्थर का बनाकर धरती पर भेजता है, तभी राज्य चलते हैं। सच भी है, पत्थर के भगवान् ही तो पूजे जाते हैं।'

दूसरे दिन सचमुच ही भोजराज ने वीरमदेवजी से विदा माँगी। यह सुनकर और भतीजे का मलिन मुख देख गिरजाजी ने हँसकर पूछा-'क्यों बावजी! रणाङ्गण में भी आपको घर याद रहता है?’
'आप रणकी बात फरमाती हैं भुवासा! चित्तौड़ तो मुझे कैलाश में भी याद आयगा।'— भोजराज ने उत्साह से कहा।
'और बाई हुकम (माँ) ? विवाह के बाद भी बाई हुकम इतनी ही याद रहेंगी?' भुवा के सम्मान में उन्होंने मस्तक झुका लिया, पर विवाह की बात सुनते ही एक अश्रुसिक्त मुख अन्तर में उद्भासित हो उठा।यद्यपि वीरमदेवजी की सभी पत्नियों को भोजराज अपने सगे भतीजे से प्रिय लगते, वे सभी उनका दुलार करते न थकतीं, भोज भी उन सभी का समान सम्मान करते, पर अब यहाँ मेड़ता में मन नहीं लगता।

उनका मन तो अब चित्तौड़ में भी नहीं लगता। न जाने क्यों, एकान्त अधिक प्रिय लगने लगा। एकान्त होते ही उनका मन श्यामकुँज के भीतर घूमने लगता। रोकते-रोकते भी वह उन बड़ी-बड़ी झुकी झुकी आँखों, पाटल वर्ण से छोटे-छोटे अधरों, स्वर्ण गौर वर्ण, सुचिकण कपोलों पर ठहरी अश्रु बूँदों, सुघर नासिका, उसमें लगी हीरक कील, कानों में लटकती झूमर, वह आकुल व्याकुल दृष्टि, उस मधुर कंठ-स्वर के चिन्तन में खो जाता। वे सोचते- 'एक बार भी तो उसने आँख उठाकर नहीं देखा मेरी ओर। क्यों देखे? क्या पड़ी है उसे? उसका मन तो अपने आराध्य में लगा है। यह तो तू ही है, जो खो आया है अथवा पुष्प की भाँति चढ़ा आया है अपना हृदयधन, जहाँ स्वीकृति के कोई आसार नहीं, कोई आशा नहीं।'
लोगों ने भोजराज का बदला हुआ स्वभाव देखा तो सोचा-'अब महाराजकुमार का बचपन गया। उसकी ठौर यौवन की धीरता ने ले ली है। सम्भवतः विवाह सम्बन्ध की बातों से लाज के कारण एकान्त में रहने लगे हैं।
क्रमशः

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