mc 35

मीरा चरित 
भाग- 35

उसने रैदासजी का इकतारा उठाया और गाने लगी-

म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। 
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।

नयनों की सीपों से मानो मोती झर रहे हों। वह अग-जग से बेखबर अपने प्राणाधार को मनाने लगी-

म्हारी सुध लीजो दीनानाथ।
 जल डूबत गजराज उबार्यो, जलमें पकड्यो हाथ। 
जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥ 
नरसी मेहता रे मायरे सगामें राखी बात। 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ।

राजकुँवर भोजराज की भीष्म प्रतिज्ञा....

भोजराज पहली बार भुवा गिरजाजी की ससुराल आये थे। भुवा के दुलार की सीमा न रही। एक तो हिन्दुआ सूर्य के पाटवी कुँवर, दूसरे भुवा के लाड़ले भतीजे और तीसरे मेड़ते के भावी जमाई होने के कारण इस महँगे दुर्लभ पाहुने की घड़ी घड़ी महँगी हो रही थी। पल-पल में लोग उनका मुख देखते रहते और मुख से कुछ निकलते ही उनके हुकम और इच्छा पूरी करने के लिये एक की ठौड़ दस दौड़ पड़ते। उनकी सुख-सुविधा में लोग स्वयं बिछे जा रहे हों कि क्या न कर दें इनकी प्रसन्नता के लिये।
जयमल और भोजराज की सहज ही मैत्री हो गयी। दोनों ही इधर-उधर घूमते-घामते फुलवारी में आ निकले। सुन्दर श्यामकुँज मन्दिर को देखकर भोजराज के पाँव उसी ओर उठने लगे। मीठी रागिनी सुनकर उन्होंने जयमल की ओर देखा। जयमल ने कहा- 'मेरी बड़ी बहिन मीरा है। इनके रोम-रोम में भक्ति बसी हुई है।'
'जैसे आपके रोम-रोम में वीरता बसी है।'– भोजराज ने जयमल की बात काटते हुए हँसकर कहा-
'भक्ति और वीरता, भाई-बहिन की ऐसी जोड़ी संसार में ढूँढ़ने से भी नहीं मिलेगी। विवाह कहाँ हुआ इनका?'
'विवाह? विवाह की क्या बात फरमाते हैं आप? विवाह का नाम सुनते ही जीजा की आँखों से आँसुओं के झरने बहने लगते हैं। कभी बचपन में आपके साथ सगाई की चर्चा चली थी तो इन्होंने रो-रो करके आँखें सुजा लीं। हुआ यों कि किसी बारात को देखकर जीजा ने काकीसा से पूछा कि हाथी पर यह कौन बैठा है? उन्होंने बतलाया कि नगर सेठ की लड़की का वर है। यह सुनकर इन्होंने जिद्द की कि मेरा वर बताओ। काकीसा ने इन्हें चुप करनेके लिये कह दिया कि तेरा वर गिरधर गोपाल है। बस, उसी समय से इन्होंने भगवान्‌ को अपना वर मान लिया है। रात-दिन भजन-पूजन, भोग-राग और नाचने-गाने में लगी रहती हैं। जब ये गाने बैठती हैं तो अपने आप मुख से भजन निकलते जाते हैं। बाबोसा के देहान्त के पश्चात् पुनः इनके विवाह की रनिवास में चर्चा होने लगी है। इसलिये अलग-थलग यहाँ श्यामकुँज में ही अपना अधिक समय बिताती हैं।’   जयमलने अपनी समझके अनुसार संक्षिप्त जानकारी दी।

'यदि आज्ञा हो तो ठाकुरजी और राठौड़ों की इस विभूति का मैं भी दर्शन कर लूँ?'
भोजराज ने प्रभावित होकर सर्वथा अनहोनी-सी बात कही। न चाहते हुए भी केवल उनका सम्मान रखने के लिये ही जयमल बोले- ‘यह क्या फरमाते हैं आप? पधारो।' 
उन दोनों ने सिंचाई के लिये बनी बहती नाली में हाथ-पैर धोये और मन्दिर में प्रवेश किया। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भोजराज ने सुना-

‘नरसी मेहता रे मायरे सगामें राखी बात। 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ।

वह भजन पूरा होते ही मीरा ने दूसरा आरम्भ कर दिया-

गिरधर लाल प्रीत मति तोड़ो। 
गहरी नदिया नाव पुरानी अधबिच में कॉई छोड़ो।
थें ही म्हाँरा सेठ बोहरा ब्याज मूल काँई जोड़ो। 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रस में विष काँई घोलो।

एक दृष्टि मूर्ति पर डालकर भोजराज ने उन्हें प्रणाम किया। गायिका पर दृष्टि पड़ी। अश्रुसिक्त मुख और भरे कंठ से हिय की बात संगीत के सहारे वह अपने आराध्य से कह रही थी। पतली उँगली इकतारे को झंकृत कर रही थी और नेत्रों से बहते आँसू वक्षस्थल भिगो रहे थे। उस मुरझाई कुमुदिनी को, जिसने अभी यौवन की देहरी पर पग धरा ही था - अंतर के रूप की शह पाकर स्थूल रूप मानो अपरूप हो उठा था। यह देखकर युवक भोजराज ने अपना आपा खो दिया। भजन पूरा होते ही जयमल ने चलने का संकेत किया। भोजराज को चेत हुआ, तब तक मीरा ने इकतारा एक ओर रखकर प्रणाम किया और आँखें खोली, मानो सूर्योदय होने पर कमल की पंखुरी खुली हो। जयमल ने कुँवर का हाथ पकड़कर बाहर चलने के लिये पाँव
उठाया, तभी मीरा ने तनिक दृष्टि फेरी और पूछा-'कौन है?' 
जैसे आम की डाली पर बैठी कोयल बोली हो-  ‘अहा, कितना मीठा स्वर है!'- भोजराज के मन ने कहा।

'मैं हूँ जीजा!'- भोजराजका हाथ छोड़कर त्वरित गति से मीरा की ओर बढ़ते हुए स्नेहयुक्त स्वर में जयमल ने कहा। समीप जाकर और घुटनों के बल पर बैठकर अंजलि में बहिन का आँसुओं से भीगा मुख लेते हुए आकुल स्वर में पूछा 'किसने दुःख दिया आपको?'  कहते-कहते बहिन की पीठ पर हाथ रखा तो उसके रुदन का बाँध टूट गया। भाई की छाती पर माथा टेक मीरा फूट-फूटकर रो पड़ी।
'आप मुझसे कहिये तो ! जयमल प्राण देकर भी आपको सुखी कर सके ..तो स्वयं को धन्य मानेगा।'
दस वर्ष का बालक जयमल जैसे अभिभावक हो उठा। मीरा क्या कहे, कैसे कहे? उसका यह दुलारा छोटा भाई कैसे जानेगा कि प्रेम-पीर क्या होती है? वह क्या जाने कि नारी पर एक ही बार तैलवान (विवाहकी एक रस्म) चढ़ता है। जगत के व्यवहार और अंतर के भावों से अनजान यह क्या जाने कि यह शीतल दाह कैसे प्राणों को सुखा देता है। यह स्वयं बालक हैं, अत: मेरी विपत्ति में कैसे सहायता कर पायेगा, पर डूबते हुए को तिनके से भी अवलम्ब की आशा होती है।

जयमल जब भी श्यामकुँज अथवा रनिवास में जाता और उसकी यह बड़ी बहिन सामने पड़ जाती तो अभिवादन करने पर सदा ही हाथ जोड़ मुस्कराकर कहती–‘जीवता रीजो जग में, काँटो नी भाँगे थाँका पग में (लम्बी आयु हो तुम्हारी, तुम्हारे पाँव में कभी काँटा भी न गड़े) !' अथवा 'शत शरद देखे वीर मेरा। हों गुल नसीब उनको, रहै पासबाँ अश्क मेरे।'
वह एकदम फड़क उठता-'वाह, जीजा ! वाह ! कैसी सुन्दर बात कही आपने, भाई हमेशा खुश रहे और बहिन रोती रहे। क्या कहने हैं हमारी राजपूती शान के।
क्रमशः

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