mc 41

मीरा चरित 
भाग- 41

सेवकों को पलक झपकाने का भी अवकाश न हो, ऐसे अपने-अपने मुरतबके अनुसार सावधान कार्यरत दिखायी देते हैं। अटाले (रसोई) से ऊपर महल तक थोड़ी थोड़ी दूर खड़ी पंक्तिबद्ध दासियाँ विविध भोजन सामग्रियाँ इस हाथसे उस हाथ पहुँचा रही हैं। दौड़-भागकी हड़बड़ में कोई सेवक अथवा दासी इन खड़ी हुई दासियों से टकरा जाती तो कभी कोई रसमयी सामग्री छलककर दोनों के वस्त्र सिक्त कर देती। देखनेवाले हँसते और टकराने वाले या तो एक दूसरे को उलहने भरी दृष्टि से देखकर अपने-अपने काम में लग जाते अथवा खड़ी हुई दासी आनेवाले पर बरस पड़ती– 'परो बल रे, हाँप खादा। आँख्याँ फूटगी कई? म्हाँरा गाभा बिगाड़या, अणी सियाला री रातमें साँपडनो पड़ेला। आंधी-बबूल्या री नाई दौड़तो फरे (अरे साँप खाय तुझे। आँखें फूट गयीं? दिखता नहीं तुझे? मेरे वस्त्र बिगाड़े, इस शीत भरी रातमें नहाना पड़ेगा, आँधी-वर्तुलकी भाँति दौड़ता है मरा) ।'

 ऊपर महल में गद्दी पर मसनद के सहारे बाईसा-जवाँईसा बिराजे, सामने चाँदी का बाजोठ (चौकी) और उस पर सोने का बड़ा थाल, जिसमें विविध भोजन सामग्री परोसी हुई, दोनों जीम रहे हैं। साली-सलहजें पहेलियाँ पूछ रही हैं या उन्हें हँसाने के लिये अटपटी बातें कर रही हैं। एक कृशांगी बहू ने पर्दे के पीछे से तोतली बोली में कहा—‘मेरे प्याले भतीजे, जब तू जन्मा तो मैंने वहाँ छाला काम किया, पल मेले को कोई खानेको नहीं पूछता था, सो तेली माँ के लिये बनाये छीले का चम्मचा चाट गयी, छो मेली जीभ जलकर काली हो गयी।'

'अहा, भुवासा! बड़ा कष्ट पाया आपने।'– वीरमदेवजी बोले- 'अब मेड़ते पधारें। आपका भतीजा अब बड़ा हो गया है। वैद्यजी से आपकी चिकित्सा करवा देगा।'
 "अरे ओ मेड़ते के महाराज! मैं चित्तौड़ का महाजन हूँ। आपके जन्म के समय मेरे यहाँ से अजवायन-सोंठ उधार गये थे, उसका हिसाब बाकी है, उगाही को आया हूँ। यह चोपन्या (बही) है। पीछे से सूप (अनाज फटकनेवाला सूप) पीटा गया।"
‘सेठजी! जरा बाहर पधारिये। देखूँ बही खाता। पूरे मेड़ते में अजवायन सौंठ न मिले कि चित्तौड़ के बाजार तक दौड़ना पड़ा। खैर, कहिये ब्याज सहित कितना हुआ? चुका तो मैं दूँ, किन्तु तब, जब सेठजी बही लेकर पर्दे से बाहर आकर हिसाब दिखायें।'
'जवाँईसा आपके पीछे किसका बल है?'
'हमारे आगे-पीछे सब ओर चारभुजानाथ का बल है।'
'आपका मूल कहाँ है?'
'जोधपुर।'
'चतुर कौन?'
'बुहारी (झाडू)।'
'राक्षसों में कौन वंश कुमार हैं?'
'राठौड़; माथा कट जाने पर भी रण में खंग चलाते रहते हैं, इसलिये कबन्ध का विरद प्राप्त हुआ। कबन्ध एक राक्षस था, जिसे राम ने मारा।' 

धड़ जाड़ो पग पातला लाँबी चाँच सुढ़ार।
नर पेल्या नारी बोले सुरता करो विचार॥

 'सारस'– वीरमदेवजी ने उत्तर दिया। 

उधर दासियों के पाँव और हाथ दुःख चले। भोजन का अंत ही आता न दिखता था। दूसरे महल की दासियाँ भी इधर देखने-सुनने आ गयीं। 
'जवाँईसा बहुत धीरे आरोगते हैं?'– एक ने पूछा।
'धीरे!' 
दूसरी ने आश्चर्य से आँखें फाड़ते हुए, कोई सुन न ले, ऐसे धीरे से कहा-  'यहाँ तो खड़े-खड़े पाँव और जीमण झेलते-झेलते हाथ थक गये हैं। जितना जाता है सब.... ' उसे हाथ से खाने का संकेत करते हुए बात पूरी की-  'सब स्वाहा'
'हैं, इतना? '
'दस-बीस आदमी भी न खा सकें, इतना'
थोड़ी खुसर-फुसर यह बाईसा के कानों में पड़ गयी। संकोच के मारे उन्होंने छिपाकर भोजन बंद करने का संकेत किया।
 'बस!'– वीरमदेवजी का घंटानाद जैसा स्वर गूँजा । दासियों ने संतोष की साँस ली।

'क्या हुआ? आप क्यों घूम रहे हैं? शरीर तो स्वस्थ है? कोई राजनैतिक समस्या.... ।'- आधी रात के समय पति को शयन-कक्ष में हाथ पीछे बाँधे घूमते देखकर गौरलदे (गिरजाजी) बेचैन हो गयीं। उन्होंने बहुत से प्रश्न एक साथ पूछ लिये।
'मुझे भूख लगी है।'–वीरमदेवजी ने उनकी बात काटकर कहा।
 'भूख? उसी समय पेट भरकर आरोग लेते.... ।'– गिरजाजी ने विवशता से कहा।
'तुम्हीं ने तो मना किया था।'
'रसोई तो बंद हो गयी, अब.... ?'– गिरजाजी जानती हैं कि यह किसी गूजर, पटेल या साधारण राजपूत का घर नहीं है कि किवाड़ खोल भोजन निकाल लायें ।

 'भूख के मारे मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाता जा रहा है। तुम्हारे यहाँ तो पोपाँ बाई री पोल है, दोपहर से पहले भोजन मिलने वाला नही है और तब तक तो मेरे प्राण निकल जायँगे।'
गिरजाजी ने सिर झुका लिया। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझता था।

 'नीचे यह क्या है कड़ाहों में?'—वीरमदेवजी ने झरोखों से झाँककर नीचे चौक में देखते हुए पूछा।

'यह तो घोड़ों की रातिब ठंडी हो रही है।'- गिरजाजी ने निराशा से कहा। 
'मैं तो उतर रहा हूँ।'-पत्नी कुछ समझे, तब तक तो वीरमदेवजी ने अपने साफे का छोर झरोखे में लगी पत्थर की जाली से बाँधा और भीत से पाँव अड़ाकर उसके सहारे नीचे उतरने लगे। साफा कम पड़ने पर वे उसे छोड़ नीचे कूद गये।

'धब्ब' की आवाज सुनकर कड़ाहों के चारों ओर सोये हुए चर्वादारों (साईस) में से एक की नींद खुल गयी। उसने मुँह उघार करके देखा कि रावण जैसे डील-डौल का एक व्यक्ति उसकी ओर बढ़ रहा है तो उसकी घिग्गी बँध गयी, वह थर-थर काँपने लगा।

*वीरमदेवजी ने एक-दो कड़ाहों में से थोड़ा चखा और फिर एक में से जल्दी-जल्दी दोनों हाथ से खाने लगे। कौन जाने रातिब अधिक स्वादिष्ट थी या वे इतने भूखे थे कि कड़ाह खाली हो गया। चर्वादार ने एक बार और आँखें खोलकर देखने की हिम्मत जुटायी, पर यह हाल देखकर डर के मारे पुनः मुख ढँक लिया। क्या कोई मनुष्य इतना खा सकता है? ऐसा शरीर किसी दैत्य अथवा भूत का ही हो सकता है। कहीं मुझ पर दृष्टि पड़ गयी तो हड्डियाँ चबाकर रख देगा। चर्वादार आगे नहीं सोच सका। वीरमदेवजी दोनों हाथ झाड़कर झरोखे के नीचे आये, उछलकर साफे का पल्ला पकड़ा और दीवार पर पाँव जमाते हुए ऊपर जा पहुँचे।

सबेरा होते ही चर्वादारों में कूकाकूक मची।
 'कड़ाह खाली किसने किया?'– उनके सरदार ने पूछा। कोई जाने, तब तो बताये । सरदार ने सबको बीस-बीस कोड़े लगाने की आज्ञा दी। सड़ासड़ कोड़े पड़ते रहे और चर्वादार कराहते रहे।
क्रमशः

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