mc 27
मीरा चरित
भाग- 27
अपनी दशा को छिपाने के प्रयत्न में उसने सखियों की ओर से पीठ फेरकर भीत पर दोनों हाथों और सिर को टेक दिया। रुदन को मौन रखने के प्रयत्न में देह रह-रह करके झटके खाने लगी। स्वामिनी की यह दशा देख दासियाँ कीर्तन करने लगीं। चम्पा और चमेली उसके दोनों ओर खड़ी हो गयीं कि कहीं अचेत होकर गिर न पड़ें। उसी समय गंगा ने आकर माता झालीजी के पधारने की सूचना दी। चम्पा ने मीरा के सिर पर साड़ी ओढ़ाते हुए कान के समीप मुख ले जाकर धीमे स्वरमें कहा-
'धैर्य धारण कीजिये, कुँवरानीसा पधार रही हैं।' कठिन प्रयत्न करके मीरा ने अपने को सँभाला और नीचे बैठकर तानपूरे पर उँगलियाँ फेरी-
तो सों नेह लाग्यो रे प्यारा नागर नंद कुमार।
मुरली थारी मन हरयो बिसरयो घर त्योहार।
जब ते श्रवनन धुन परी, घर आँगण न सुहा।
पारधि ज्यूँ चूके नहीं, बेध दई मृगी आय।
पानी पीर न जानई, ज्यों मीन तड़फ मरि जा।
रसिक मधुप के मरम को, नहीं समुझत कमल सुभाय।
दीपक को तो दया नहीं, उड़ि उड़ि मरत पतंग।
मीरा प्रभु गिरधर मिले, जूँ पाणी मिल गयो रंग।
वीरकुँवरीजी ठाकुरजी को प्रणाम कर बैठ गयीं। मीरा ने भजन पूरा होने पर तानपूरा रखते समय माँ को देखा और उठकर चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया। बाँह पकड़ अपने समीप बैठाते हुए माँ ने उसका अश्रुसिक्त मुख देखा। पीठपर हाथ रखते हुए उन्होंने कहा-
'मीरा! क्या भजन गा-गा करके ही आयु पूरी करनी है बेटी? तेरी आयु की कन्याएँ दो-दो, तीन-तीन बार ससुराल हो आयी हैं। जहाँ विवाह होगा, वह लोग क्या भजन सुनने के लिये तुझे ले जायेंगे?'
'जिसका ससुराल और पीहर एक ही ठौर हो भाबू! उसे चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है?'
'मैं समझी नहीं बेटी!'
'महलों में मेरा पीहर है और श्यामकुँज ससुराल' मीरा ने सरलता से कहा।
'तुझे कब समझ आयेगी बेटी! कुछ तो जगत् व्यवहार सीख। बड़े-बड़े घरों में तुम्हारे सम्बन्ध की चर्चा चल रही है। इधर रनिवास में हम लोगों का चिन्ता के मारे बुरा हाल है। यह रात-दिन गाना-बजाना, पूजा-पाठ और रोना-धोना; इनसे संसार नही चलता। ससुराल में सास-ननद का मन रखना पड़ता है, पति को परमेश्वर मानकर सेवा-टहल करनी होती है। मीरा! सारा परिवार तुम्हारे लिए चिंतित है।’
भाबू! पति परमेश्वर है, इस बात को तो आप सबके व्यवहार को देखकर मैं समझ गयी हूँ। ये गिरधर गोपाल पति ही तो हैं और इन्हीं की सेवा में लगी रहती हूँ, फिर आप ऐसा क्यों फरमाती हैं?'
"अरे बैंड़ी (पागल)! कठै पीतल री मूरत ई किणी रो बींद व्हे वे कई? म्हूँ तो धापगी थारा सूँ! भगवान् एक छोरी दीधी आखा जमारा में, अर बा ई अधबेंडी (अरे पागल लड़की! पीतल की मूरत भी क्या किसी का पति हो सकती है? मैं अघा गयी हूँ। भगवान ने जीवन में एक ही बेटी दी और वह भी आधी पागल)।'
'माँ! आप क्यों अपना जी जलाती हैं? सब अपना-अपना भाग्य लिखाकर लाते हैं। मेरे भाग्य में यदि पागल होना ही लिखा है तो आप कैसे भाल के अंक मिटा देंगी? बाबोसा ने मुझे बताया है कि मेरा विवाह हो गया। अब और दूसरा विवाह नहीं होगा।'
'कब हुआ तेरा विवाह? हमने न देखा, न सुना। कब पीठी (हल्दी) चढ़ी, कब बरात आयी, कब विवाह-विदायी हुई? कन्यादान ही किसने किया? यह बाबोसा ने ही तुझे सिर चढाया है, अन्यथा तो अब तक ससुराल जाकर जूनी(पुरानी) हो जाती।'
'यदि आपको लगता है कि विवाह नहीं हुआ तो अभी कर दीजिये। न वर को कहीं से आना है न कन्या को। दोनों आपके सम्मुख हैं। दूसरी तैयारी ये लोग कर देंगी।'–उसने अपनी सखियों की ओर देखा। दो जनी जाकर पुरोहितजी और कुँवरसा को बुला लायेंगी।'- मीराने कहा।
'हे भगवान् ! अब मैं क्या करूँ? रनिवास में सब मुझे दोषी ठहराते हैं कि बेटी को समझाती नहीं और यहाँ यह हाल है कि सिर फोड़कर मर जाओ, तब इस लड़की के मस्तिष्क में एक बात नहीं घुसती। मेरी तो दोनों ओर मौत है।'
'आज गुरु पूर्णिमा है भाबू! आज यह सब बातें रहने दीजिये न! मेरे भी गुरुदेव पधारेंगे आज।'
'यह और क्या नयी बात सुन रही हू तेरे और कौन से गुरु पधारनेवाले हैं? वे बिहारीदास जी या वे हाथ-पैर तोड़ने-मरोड़ने और समाधि वाले निवृत्तिनाथजी?'
'ऐसा मत कहिये माँ! वे महात्मा हैं, संत हैं। उनकी निंदा से दोष लगता है।'
'मैं निंदा नहीं, सत्य बात कह रही हूँ। वे महात्मा और संत हैं ठीक, पर तुझे महात्मा और संत बनाकर उन्होंने हमारी आशा-अभिलाषाओं में काँटे बो दिये हैं। नारी का सच्चा गुरु पति ही होता है।'
'फिर भाबू! आप मुझे गिरधर की ओर से विमुख क्यों करती हैं? ये तो आपके ही सुझाये हुए पति हैं न?'
झालीजी ने उसे गोद में भर लिया-'अहा, जिस विधाता ने इतना सुन्दर रूप दिया, उसने ऐसी पागल बुद्धि क्यों दी कि यह सजीव मनुष्य और पीतल की मूरत में अन्तर ही नहीं समझती। वह तो उस समय तू जिद कर रही थी, इससे तुझे बहलानेको कह दिया था।'
'आप ही तो कहती हैं कि कच्ची हाँडी पर खींची रेखा मिटती नहीं और पकी हाँडी पर गारा नहीं ठहरता। उस समय कच्ची बुद्धि में आपने यह बिठा दिया कि गिरधर तेरे पति हैं। अब दस वर्ष की होनेपर कहती हैं कि वह बात तो बहलाने के लिये कही थी। भाबू! मैंने तो आज तक सुना-जाना है कि मनुष्य शरीर भगवत्प्राप्ति के लिये मिलता है, इसे व्यर्थ कार्यों में लगा देना मूर्खता है।'
'हे भगवान् ! मेरी सुमन सुकुमार बेटी को यह बाबाओं वाला पथ कैसे पकड़ा दिया गया? अब क्या होगा?'– झालीजी की आँखों से आँसू बरस पड़े।
'आप दुःख न करिये भाबू! कहिये, अभी मुझे क्या करना है, जिससे आप प्रसन्न हों।'
'देख, सूर्यनारायण ने आकाश में कितना पथ पार कर लिया, पर तूने अभी तक अन्न का दाना भी मुख में नहीं लिया। तू भूखी रहे तो क्या मेरे गले कुछ उतरेगा? मेरे भाग्य में विधाता ने तेरी चिन्ता करते-करते ही मरना लिखा है।'
क्रमशः
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