mc 26

मीरा चरित 
भाग- 26

‘नहीं बेटा! पर वे मीरा के शिक्षा गुरु हैं, दीक्षा गुरु नहीं।'–दूदाजी ने उत्तर दिया।
'आप रुकिये न भाई!'- मीराने हँसकर कहा।
'मैं क्या झूठ कह रहा हूँ बाबोसा?'

'सुनो बेटी ! इस क्षेत्र में अधिकारी को वंचित नहीं रखा जाता। तृषित यदि सरोवर के समीप नहीं पहुँच पाता तो सरोवर ही प्यासे के समीप पहुँच जाता है। तुम अपने गिरधरसे प्रार्थना करो। वे उचित प्रबंध कर देंगे।'

'गुरु होना आवश्यक तो है ना बाबा?'

'आवश्यकता होनेपर अवश्य ही आवश्यक है। यों तो तुम्हारे गिरधर स्वयं जगद्गुरु हैं। गुरु शिक्षा ही तो देते हैं, शिक्षा जहाँ से भी मिले, ले लो।'
'मन्त्र?'
उसके इस छोटे से प्रश्न पर दूदाजी हँस दिये—'भगवान का प्रत्येक नाम मंत्र है बेटी ! उनका नाम उनसे भी अधिक शक्तिशाली है, यही तो अबतक सुनते आये हैं।'
'वह कानों को ही प्रिय लगता है बाबोसा ! आँखें तो प्यासी ही रह जाती हैं।'- अनायास ही मीरा के मुखसे निकल पड़ा, पर बात का मर्म समझ में आते ही सकुचा करके उसने दूदाजीकी ओर पीठ फेर ली ।
'उसमें इतनी शक्ति है बेटी कि आँखोंकी प्यास बुझाने वाले को भी खींच लाये।'–उसकी पीठ की ओर देखते हुए मुस्करा कर दूदाजीने कहा।

'जाऊँ बाबोसा?'– मीराने पीठ फेरे हुए ही पूछा।
"जाओ बेटी!"
'जीजाने यह क्या कहा बाबोसा? और लाज काहे की आयी उनको?'
 'वह तुम्हारे क्षेत्र की बात नहीं है बेटा! बात इतनी ही है कि भगवान् के नाम में भगवान से भी अधिक शक्ति है और उस शक्ति का लाभ नाम लेने वाले को मिलता है।'

मीरा ने श्यामकुँज में जाकर अपने गोपाल के सम्मुख बैठ इकतारा उठाया-

मोहि लागि लगन गुरु चरनन की। 
चरन बिना मोहे कछु नहिं भावे, जग माया सब सपनन की। भवसागर सब सूख गयो है, फिकर नहीं मोही तरनन की।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आस लगी गुरु सरनन की। 

म्हाँरा सतगुरु बेगा आजो जी। म्हारे सुख री सीर बहाजो जी॥
तुम बिछुडूया दुख पाऊँ जी। म्हें मन माहीं मुरझाऊँ जी
म्हें कोयल ज्यूँ कुरलाऊँ जी। कुछ बाहर नहीं कह पाऊँ जी॥
मोहि बाघण बिरह सतावै जी। कई किया पार न पावै जी।
ज्यूँ जल त्यागा मीना जी। तुम दरसण बिन खीना जी।
 ज्यूँ चकवी रैण न भावे जी। वा ऊगो भाण सुहावै जी।
 ऊँ दिन कदै करोला जी। म्हारै आँगण पाँव धरोला जी।
अरज करै मीरा दासी जी। गुरु पद रज की प्यासी जी।

रातको स्वप्नमें मीरा ने देखा- 'महाराज युधिष्ठिर की सभा में प्रश्न उठा है कि प्रथम पूज्य, सर्वश्रेष्ठ कौन है, जिसका प्रथम पूजन किया जाय?' ऋषियों-मुनियों की ओर से ध्वनि आयी- 'श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण ही प्रथम पूजा के योग्य हैं।' 
वृद्ध महारथी और ज्ञानवृद्ध परम भागवत भीष्म पितामह ने उठकर उनकी बात को दुहराया—'युधिष्ठिर! श्रीकृष्ण ही प्रथम पूज्य हैं।' क्षत्रिय सभा में मर्मर ध्वनि उठी, उसी समय कनिष्ठ पाण्डव सहदेव उठे–
'हम श्रीकृष्ण का प्रथम पूजन कर रहे हैं। जिसे यह न रुचे, सह्य न हो, उसके सिर पर मेरा वाम पद।'

मीराका हृदय गर्वसे भर उठा। उसने नेत्र उठाकर ऊँचे सिंहासन पर विराजित उस मेघवर्ण दिव्य वपु की ओर देखा-

'ओह छवि-सुषमा की उत्ताल लहरें लेता हुआ सौन्दर्य सागर! नन्हा-सा तो मानव-मन, उसमें यह अपार रूप-सागर समावे ही कैसे? जो थोड़ा बहुत समाता है, उसे सीमा में बँधी यह वाणी कैसे वर्णन कर पाये?' वे अरुण, अमल, मृदुल चारु चरण अपने दोनों हाथों में भरकर, देवी पांचाली के हाथों में थमी झारी से ढलते जल और नेत्र-जल से धर्मराज ने अच्छी तरह धोये। कृष्णा ने आँचल से भली प्रकार पोंछकर उन्हें धीरे से सुकोमल पाद-पीठ पर रखा। वह प्रक्षालन-जल अपनी देह पर छिड़क करके पान किया और फिर पूजा आरम्भ की। गंग-जनक, हर-हिय-धन, सिन्धुजा-कर-लालित पादपद्मोंकी कुंकुम, केशर, अक्षत, पुष्प भेंट से अर्चना की और इसके बाद "भरत खंड के इस तुच्छ राज्य की भेंट सहित यह प्रथम पांडव श्री चरणों मे प्रणत है।" 
कहकर युधिष्ठिर ने अयोनिजा देवी याज्ञसेनी के साथ अपनी ही चढ़ाई हुई पूजन सामग्री पर मस्तक धर दिया। उनके साथ ही कोटि कोटि मस्तक झुक गए। ऋषियों और ब्राह्मणों की ओर से स्वर उठा-
"कृष्णम वंदे जगदगुरूम"
उस घोष के साथ ही मीरा की आँख खुल गईं।

'कहाँ; कहाँ गये मेरे प्राण ! मेरे सर्वस्व !'-वह व्याकुल हो उठी-  ‘वे करुणा-कृपापूर्ण बड़े-बड़े नयन, वह मधुर मुस्कान, युधिष्ठिर कैसे चाव से चरणों को धो रहे थे, उनके हाथ मानो उन चरणों से विलग होना ही न चाहते हों। देवी द्रौपदी और धर्मराज के मुख पर विनय, प्रेम और समर्पण के वे भाव.. अपनी ही चढ़ायी वे वस्तुएँ.... वह बहुमूल्य पूजन समारम्भ उन्हें अत्यन्त तुच्छ लग रहा था। उनकी क्षण-क्षण चंचल होती वह विवश दृष्टि मानो कहती थी कि यह चक्रवर्ती पद, धरा की यह सम्पत्ति, मेरी यह देह, ये प्राण, आह ! कुछ भी तो ऐसा नहीं जो इन चरणों में चढ़ाकर तनिक-सा संतोष पा जाऊँ। यह सब तो पहले से ही इनका है, मैं इन्हें क्या भेंट करूँ? यह अल्पमति, अल्पप्राण युधिष्ठिर तो सदा से तुम्हारा ही है। केवल मेरे संतोष के लिये स्वीकृति प्रदान करके मुझे गौरव प्रदान करो मेरे प्रभु! धर्मराज के भाव कितने दिव्य हैं? ऐसे दिव्य भाव मुझे कब प्राप्त होंगे? कब प्राणोंकी व्याकुलता उन्हें कृपा-परवश करेगी? वे सब लोग कह रहे थे कि 'कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्'
सच, तुम्हीं तो सच्चे गुरु हो। आज तुम जिस संत के रूप में पधारोगे, मैं उनको ही गुरु मान लूँगी।'

नित्यकर्मों से निवृत्त होकर उसने गिरधर गोपाल को नया शृंगार धारण कराया, गुरु भाव से उनकी पूजा की और फिर गाने लगी-

री, मेरे पार निकस गया सतगुरु मारया तीर।
बिरह झाल लगी उर अंतर ब्याकुल भया सरीर।
इत उत चित्त चलै नहीं कबहूँ डारी प्रेम जंजीर।
कै जाणे म्हारो प्रीतम प्यारो और न जाणे पीर।
कहा करूँ मेरो बस नहीं सजनी नैण झरत दोउ नीर। 
मीरा कहे तुम मिलिया बिन, प्राण धरत नहीं धीर।

बंद नेत्रों से झरते जल ने उसके वक्ष को भिगो दिया। प्राणों की व्याकुलता ने कंठ पर मानो आवेग की श्रृंखला चढ़ा वाणी को कैद कर लिया।
क्रमशः

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