mc 28

मीरा चरित 
भाग- 28

‘बस, इतनी-सी बात? लो पधारो। मैं चलती हूँ भोजन करनेके लिये। आपके मुख से भोजन का नाम सुनते ही जोर की भूख लग आयी है।'-मीरा उठकर माँ के साथ चल पड़ी।

'अरी, तुम सब केवल इसके आगे-पीछे ही घूमती हो? इस भोली बेटी को संसार की ऊँच-नीच भी तो समझाया करो जरा।' -झालीजी ने दासियों की ओर देखकर कहा।
'अरे अन्नदाता! हमारी भला समझाने जैसी हैसियत कहाँ?' मिथुला ने कहा—'बाईसा हुकम ने तो सब शास्त्र पढ़े हैं। बड़े-बड़े विद्वान् भी बोल नही पाते इनके आगे।' 
'ये शास्त्र ही तो आज बैरी हो गये।' उन्होंने निश्वास छोड़कर कहा और बेटी के साथ भोजनशाला की ओर मुड़ गयीं। वे मनमें सोच रही थीं-
'क्यों नहीं अन्नदाता ने इसे अन्य लड़कियों की भाँति सामान्य रहने दिया? इसकी विशिष्टता अब सबका सिरदर्द बन गयी है। इसके लिये अब जोगी राजकुँवर कहाँ से ढूंढे?'

सायंकाल अकस्मात् विचरते हुए काशी के संत रैदासजी का मेड़ते में पधारना हुआ। दूदाजी बहुत प्रसन्न हुए। यद्यपि रैदास जाति के चमार थे, किन्तु संतों की, भक्तों की कोई जाति नहीं होती। वे तो प्रभु के निजजन-प्रियजन हैं बस। दूदाजी ने शक्तिभर उनका सत्कार किया और जिस कक्ष में योगी श्रीनिवृत्तिनाथजी ठहरे थे, उसी कक्ष में उन्हें आवास प्रदान किया। मीराको बुलाकर उनका परिचय दिया। वह प्रसन्न हो उठी। मन-ही-मन उन्हें गुरु मानकर मीरा ने प्रणाम किया। उन्होंने कृपा-दृष्टिसे उसे निहारते हुए आशीर्वाद दिया- ‘प्रभु चरणोंमें दिनानुदिन तुम्हारी प्रीति बढ़ती रहे।'

आशीर्वाद सुनकर मीरा के नेत्र भर आये। उसने कृतज्ञता से उनकी ओर देखा। उस असाधारण निर्मल दृष्टि और मुखके भाव देखकर संत सब समझ गये। उसके जानेके पश्चात् उन्होंने दूदाजी से उसके विषयमें पूछा। सब सुनकर वे बोले– 'राजन! तुम्हारे पुण्योदय से घर में गंगा आयी है। अवगाहन कर लो जी भरकर। सब-के-सब तर जाओगे।'

रात को राजमहलके सामनेवाले चौगान में सार्वजनिक सत्संग समारोह हुआ। रैदासजी के उपदेश-भजन हुए। दूसरे दिन रैदासजी के कक्ष में दूदाजी के आग्रह से मीरा ने भजन गाकर उन्हें सुनाये-

लागी मोहि राम खुमारी।
रिमझिम बरसै मेहरा भीजै तन सारी हो।
चहुँ दिस दमकै दामणी, गरजै घन भारी हो।
सतगुरु भेद बताइया खोली भरम किंवारी हो। 
सब घर दीसै आतमा सब ही सूँ न्यारी हो।
दीपक जोऊँ ग्यान का चढूँ अगम अटारी हो। 
मीरा दासी रामकी इमरत बलिहारी हो।

मीरा के संगीत - ज्ञान, पद-रचना और स्वर-माधुरी से संत बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा- 'तुम्हारे गुरु कौन हैं बेटी?'
"कल मैंने अपने प्रभुके सामने निवेदन किया था कि मेरे लिये गुरु भेजें और फिर निश्चय किया कि आज गुरु पूर्णिमा है, अतः जो भी संत आज पधारेंगे, वे ही प्रभु द्वारा निर्धारित मेरे गुरु होंगे। कृपाकर इस अज्ञ को स्वीकार करें!'-मीरा ने पुनः उनके चरणों में प्रणाम किया। उसकी आँखों से निकलकर दो बूँदें धरा पर गिर पड़ीं।

'बेटी!' सन्त ने सिरपर हाथ रखकर कहा-'तुम्हें कुछ अधिक कहने सुनने की आवश्यकता नहीं है। नाम ही निसेनी है और लगन ही प्रयास, दोनों ही बढ़ते जायँ तो अगम अटारी घट में प्रकाशित हो जायेगी। इन्हीं के सहारे उसमें पहुँच अमृतपान कर लोगी। समय जैसा भी आये, पाँव पीछे न हटे, फिर तो बेड़ा पार है।' वे हँस दिये।
'मुझे कुछ प्रसाद मिले!'- मीराने हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

संत ने एक क्षण सोचा। फिर गले से अपनी जप-माला और इकतारा मीरा के फैले हाथों पर रख दिये। उसने उन्हें सिर से लगाया, माला गले में पहन ली और इकतारे के तार पर उँगली रखकर उसने रैदासजी की ओर देखा। उसके मन की बात समझकर उन्होंने इकतारा उसके हाथ से लिया और बजाते हुए गाने लगे-

प्रभुजी, तुम चन्दन हम पानी। 
जाकी अँग अँग बास समानी।
प्रभुजी, तुम घन बन हम मोरा।
जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभुजी, तुम दीपक हम बाती। 
जाकी जोति बरे दिन राती।
प्रभुजी, तुम मोती हम धागा।
जैसे सोनहि मिलत सुहागा।
प्रभुजी, तुम स्वामी हम दासा। 
ऐसी भगति करे रैदासा।

भजन पूरा करके उन्होंने पुनः उसे मीराके हाथमें पकड़ा दिया। मीरा ने उसे बजाते हुए गाया-

कोई कुछ कहे मन लागा।
ऐसी प्रीत लगी मनमोहन ज्यू सोने में सुहागा।
जनम-जनम का सोया मनुवा, सतगुरु सबद सुन जागा।
मात-पिता सुत कुटुम कबीला, टूट गया ज्यूँ तागा।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भाग हमारा जागा।

संत रैदास दो दिन मेड़ता में रहे। उनके जाने से मीरा को सूना-सूना लगा। वह सोचने लगी—'दो दिन सत्संग का कैसा आनन्द रहा। सत्संग में बीतने वाला समय ही तो सार्थक है। उनकी चित्तवृत्ति सदा निजानंद में कैसी रमी रहती है? प्रभु! ऐसी अवस्था मेरी कब होगी?'  वह गाने लगी..

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज।
मैं अबला बल नाँय गुंसाई, तुम ही मेरे सरताज।
मैं गुणहीन गुण नाँय गुसाई, तुम समरथ महाराज।
थाँरी होय के किण रे जाऊँ, तुम ही हिवड़ा रो साज।
मीरा के प्रभु और न कोई राखो अबके लाज।

विवाह का प्रस्ताव......

एक दिन मीरा अपने कक्ष के झरोखे में बैठी गिरधरलाल के बागे सी रही थी कि उसका ध्यान बाहर की ओर गया। वीरमदेवजी का खास सेवक रेशम के वस्त्र से ढका हुआ चाँदी का थाल लेकर रनिवास की ओर आ रहा था। मीरा को लगा कि वह मूँछों-ही-मूँछोंमें मुस्करा रहा है, प्रसन्नता अंग-अंग से छलकी पड़ती है।
 'ऐसा क्या है? कहीं बाबोसा ने अथवा बावजी हुकम ने ठाकुरजी के लिये कोई सामग्री तो नहीं भेजी?'

वह उठकर द्वार से बाहर निकल आयी। ऊपर से देखा कि रनिवास के बड़े चौक में होकर किशन चित्तौड़ी रानी के महल की ओर घूम गया तो उसकी उत्सुकता समाप्त हो गयी। वह लौटकर कक्ष में प्रवेश कर ही रही थी कि  ‘फूलाँ' (वीरमदेवजी की बीचवाली पुत्री फूलकुँवरी) दौड़ी आयी-
‘जीजा! जीजा! मेरे साथ पधारो।' उसने हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा।
'क्या है बाईसा ? कहाँ ले जा रही हैं आप मुझे?'– मीरा ने उसे लाड़ करते हुए पूछा।
'आप पधारो तो।'

बहिन का मन रखने के लिये मीरा साथ-साथ चल पड़ी। राणावतजी के महल की ओर घूमते ही वह समझ गयी कि किशन जो लाया है, वही दिखाने के लिये ले जाया जा रहा है।
क्रमशः

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