mc19

मीरा चरित 
भाग- 19

रह-रहकर उसके नेत्र अर्धनिमीलित हो जाते हैं। पुकारने पर वह उनकी ओर देखती तो है, किन्तु जैसे उस दृष्टिमें जीवन न हो। 
कुछ ही समयमें वह उठकर बाहर चल पड़ी। मंगला दौड़कर झालीजीके पास पहुँची- 'कुँवरानीसा! बाईसा उठ र बारे पधार रिया है।' (कुँवरानीसा ! बधाई हो, बाईसा उठकर बाहर पधार रही हैं।)

बिना किसी ओर देखे मीरा धीमी गतिसे सीधे गुरु श्रीनिवृत्तिनाथजी के कक्षमें पहुँची। 'गुरुदेव!' उसके रुँधे कंठसे वाणी फूटी और वह जड़की भाँति उनके चरणोंमें गिर पड़ी। प्रसन्नताके आवेगमें भरकर गुरुने छोटी-सी सुयोग्य शिष्या को उठाकर छातीसे लगा लिया।

इस समय तक पूरे गढ़में उसके चैतन्य होनेकी बात फैल गयी थी, अतः दूदाजी, बाबा बिहारीदासजी, राजपुरोहित, वीरमदेवजी, रायसल और रतनसिंहजी उस कक्षके द्वार पर उपस्थित होकर गुरु-शिष्याके मिलनका यह अद्भुत दृश्य देख रहे थे। कइयोंकी आँखें भर आयीं।

'बेटी! तुम-सी शिष्या पाकर मैं धन्य हुआ।'- श्रीनिवृत्तिनाथजीने उसे गोदसे नीचे उतारते हुए कहा।

पुनः प्रणाम करके मीराने अपनी आँसू भरी आँखें उनकी ओर उठायी. कंठ कुछ भी कहनेमें असमर्थ हो गया था। गुरुजीके साथ कक्षसे बाहर आकर मीराने बाबा बिहारीदासजी, राजपुरोहितजी, दूदाजी, वीरमदेवजी, रायसल और रतनसिंहको भूमिपर सिर रखकर प्रणाम किया। रतनसिंहके अतिरिक्त सभीने सिरपर, पीठपर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया।

'इसे कुछ आहारके लिये आज्ञा प्रदान करें। - दूदाजीने उसे गोदमें उठाये हुए श्रीनिवृत्तिनाथजीसे कहा।

"काली मिर्च, मेथी, धनिया और मिश्री उबालकर सर्वप्रथम यही पेय इसे छानकर पिलाया जाय। इसके पश्चात् चावलकी खिचड़ीमें पर्याप्त घी डालकर दें।'

रनिवासमें भी सबको उसने प्रणाम करना चाहा, किन्तु वीरमदेवजीको बड़ी पत्नी सोलंकिनीजीने उसे गोदमें उठा लिया—'बस, बस बेटे! बहुत हुआ। तू तो महात्मा बन गयी है मेरी लाड़ली! अहा, इस रूप गुणकी खानको अन्नदाता हुकम न जाने क्यों साधु बना रहे हैं।'

यद्यपि मीरा अब भी पूर्णत: सामान्य नहीं हुई थी, फिर भी अपनी बड़ी माँकी बात सुनकर वह धीरेसे हँस पड़ी-
'मैं तो आपकी वही मीरा हूँ म्होटा भाभा हुकम! देखिये न वही वस्त्र और सब कुछ तो वही है.... ।'

अकस्मात् उसे अपने गिरधरकी याद आयी। वह एकदम छटपटा करके उनकी गोदसे उतरी और श्याम कुंजकी ओर दौड़ी। बच्चे भी साथ भागे, स्त्रियाँ अवाक् देखती रह गयीं।

'मेरे स्वामी! मेरे प्रभु!'- उसने सिंहासनसे उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और नयनोंकी बरखासे भिगोने लगी। ‘किसने तुम्हारी पूजा की ? किसने खिलाया-पिलाया और सुलाया तुम्हें? तुम्हारी सेवा छोड़कर मैं किस समाधि, ध्यान और योगकी पंचायतमें पड़ गयी। क्षमा करो, अब ऐसा न होगा।'

मंगलाने बताया कि पहले दिन चम्पा और मिथुलाकी सहायतासे छोटी कुँवरानीसा (मीराकी माँ) ने और बादके दोनों दिन जोशीजीने गिरधर गोपालकी सेवा की थी।

महत्वाकांक्षी जयमल से विचार-विनिमय.....

एक महीने बाद योगी श्रीनिवृत्तिनाथजी विदा हो गये। अब मीरा योग छोड़कर पूर्णतः भक्ति की ओर झुक गयी। परम्परा के अनुसार उसे शस्त्र शिक्षा दी जाने लगी। जयमल छोटा होनेपर भी इस विषयमें आगे था। मीराकी तलवार जब 'थाप' खाती (आड़ी पड़ती) तो वह हँसकर कहता-  'जीजा, कसकर मूंठ पकड़िये न! ढीली रहनेपर तो थाप खायेगी ही, उल्टे आपके हाथमें भी मूंठ से चोट आ जायेगी। देखिये! ऐसे कसकर पकड़िये मूंठको, मानो इसे दबाकर तोड़ देना हो, अन्यथा बैरीको तुस (चोकरका एक टुकड़ा, दाना) जितनी चोट भी नहीं आयेगी और वह अपनी कर गुजरेगा।'

'बैरी! कौन बैरी?'-मीराने पूछा।

'जिसपर आप तलवार चलाना चाहेंगी।'

'मैं तो किसीपर तलवार नहीं चलाना चाहती भाई!' 'तो क्या यह इकतारा है जीजा! अथवा कि रसोईघरका चिमटा? यह तो तलवार है जीजा! तलवार, जिससे रणभूमिमें धर्म-अधर्म और धरतीके वारे-न्यारे होते हैं।'

'अच्छा, यह तो बताओ जयमल! ये युद्ध क्यों होते हैं भला?'

'इसलिये जीजा! कि.... ' वह थोड़ा ठहरा और कुछ दूर खड़े अपने काका रायसलकी ओर देखा, जो वीरमदेवसे भी अधिक वीर माने जाते थे। उनकी ओर देखकर जयमलने कहा-'काकोसा कहते हैं "लोग जोरू, जर और जमीनके दीवाने होते हैं। जब ये दीवाने किसी के ऊपर आ पड़ते हैं न, तब उनकी रक्षाके लिये हमें दौड़ना पड़ता है।" जीजा! मुझे बहुत हौंस है युद्ध में जानेकी। कौन जाने कब इसकी आज्ञा मिलेगी। जब मैं कल्पनामें देखता हूँ कि किसी आततायीने किसी निर्धनकी स्त्रीको अथवा बच्चोंको छीन लिये हैं, उसके पशु हाँक ले गये हैं, खड़ी खेती में आग लगा दी है अथवा सुखी सम्पन्न राज्य पर आक्रमण कर दिया है तो दाँत भींचकर अपना यह पट्टनी अश्व दौड़ा देता हूँ और मेरी दोधारी तलवार सपासप चलकर उन अन्यायियोंका रक्तपान करती है। उन सबको मार-भगाकर दीनोंको त्राण देकर, उस रक्त-गंगामें स्नान करके मुझे जो सुख और शांतिका अनुभव होता है वह कहा नहीं जाता।'
जयमलने अपनी तलवारकी नोंक भूमि में टेकते हुए कहा..!!

'और युद्धमें आपको एक भी घाव नहीं लगता?'
मीराने हँसकर पूछा।
 'लगता क्यों नहीं? कई बार तो मैं स्वप्न देखता हूँ कि अन्यायियों के शवों की खूब मोटी शय्या बिछाकर मैं उसपर चिर निद्रामें शयन कर गया हूँ। मेरे हाथ की असि-मूंठ तक रण-रंग में रँगकर हाथमें ऐसी चिपक गयी है कि मेरे गिरनेपर भी हाथसे छूटी नहीं। मेरा शिरस्त्राण दूर जा गिरा है, कवच छिन्न-भिन्न हो गया है, सारी देह घावों से भरी है और उनमें से उफन-उफन करके रक्त निकल रहा है, किन्तु जीजा! भागकर पीठ पर मैंने एक भी घाव नहीं खाया है, एक भी नहीं। उस शवों से पटी पड़ी, उस रक्त की कीचके बीच कोई चारण पुकार उठता है 

रे कमधजिया! उठ परो, थने पुकारे दीन।
बैरी आया पाँवणा, कर सतकार उठीन।।

ऐसे समय में भी जीजा! मैंने देखा अपनी थरथराती, लोहू झरती देह को लेकर मैं उठ खड़ा हुआ हूँ। तलवार ऊँची करके पुकार उठा हूँ–'हर-हर महादेव! जय चारभुजानाथकी! जय रघुनाथकी!' मेरी उस हुंकारसे दसों दिशाएँ काँप रही हैं, धरती डोल रही है।'

मीराने देखा जयमलकी आँखें अस्वाभाविक हो उठी हैं, उसकी छाती फूल गयी है और साँसकी गति बढ़ गयी है।

एक गहरी निश्वास छोड़कर जयमल ने कहा-'मेरा यह स्वप्न कब पूरा होगा? मैं शीघ्र-से-शीघ्र सब सीख लेना चाहता हूँ। मेरी उतावली देखकर बचेट (बीचवाले) काकोसा हँसते हैं और कहते हैं कि थोड़े ठहर तो जाइये बावजी! चारभुजानाथकी कृपासे आप महावीर बनेंगे। जीजा! लोग कहते हैं कि इन्हीं अत्याचारियों के मारे भगवान को अवतार लेना पड़ता है। मेरा बस चले तो मैं ही मार दूँ सबको। भगवान को क्यों कष्ट करना पड़े?'
क्रमशः

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