mc 43

मीरा चरित 
भाग- 43

आँहों भरी आँसुओं की कराह.....

विवाह की तैयारी में मीरा को पीठी (हल्दी) चढ़ी। उसके साथ ही दासियाँ गिरधरलाल को भी पीठी करने और गीत गाने लगीं। मेड़ते में हर्ष, उत्साह समाता ही न था। मीरा तो जैसी थी, वैसी ही रही। किसी भी टोटके-टमने, नेग-चोग में उसे श्यामकुँज से खींचकर लाना पड़ता था। जो करा लो, सो कर देती । न कराओ तो गिरधरलाल के बागे, मुकुट, आभूषण सवाँरती, श्यामकुंज में अपने नित्य के कार्यक्रम में लगी रहती। खाना पीना, पहनना उसे कुछ भी न सुहाता। श्यामकुँज अथवा अपने कक्ष का द्वार बंद करके वह पड़ी-पड़ी रोती रहती। उसके विरह के पद जो भी सुनता, रोये बिना न रहता, किन्तु सुनने को, देखने को समय ही किसके पास है? मेड़ता के भाग जगे हैं कि हिन्दुआ सूरज का युवराज इस द्वार पर तोरण वन्दन करने आयेगा। उसके स्वागत में सब बावले हुए जा रहे हैं, कौन देखे-सुने कि मीरा क्या कह रही है-

तुम सुणो दयाल म्हॉरी अरजी। 
भव सागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थाँरी मरजी। 
या संसार सगो नहीं कोई साँचा सगा रघुबर जी।
मात-पिता अर कुटुम कबीलो सब मतलब के गरजी।  
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो, चरण लगावो थाँरी मरजी।

वह अपनी दासियों-सखियों से पूछती कि कोई संत प्रभु का संदेशा लेकर आये हैं? उसकी आँखें सदा भरी-भरी रहतीं -

कोई कहियो रे प्रभु आवन की, आवन की मनभावन की। 
आप न आवै लिख नहिं भेजे, बान पड़ी ललचावन की।
ऐ दोउ नैण कह्यो नहिं मानै नदिया बहै जैसे सावन की। 
कहा करूँ कछु बस नहिँ मेरो पाँख नहीं उड़ जावन की।
मीरा कहै प्रभु कब रे मिलोगे चेरी भई तेरे दाँवन की। 

वह आत्महत्या की बात सोचती-

ले कटारी कंठ चीरूँ कर लऊँ मैं अपघात।
आवण आवण हो रह्या रे नहीं आवण की बात।

किन्तु आशा मरने नहीं देती। जिया भी तो नहीं जाता, घड़ीभर चैन नहीं था-

घड़ी एक नहीं आवड़े तुम दरसण बिन मोय। 
तुम ही मेरे प्राण हो कैसे जीवण होय।
धान न भावे नींद न आवै बिरह सतावे मोय। 
घायल सी घूमत फिरूँ मेरो दरद न जाणे कोय॥ 
दिवस तो पथ उडिकतां रे रैण गमायी रोय। 
प्राण गमायाँ झूरताँ रे नैण गमायाँ रोय।
जो मैं ऐसी जाणती रे प्रीति कियाँ दुख होय। 
नगर ढिंढोरा फेरती रे प्रीत न कीजो कोय॥ 
पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ ऊभी मारग जोय। 
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगा तुम मिलियाँ सुख होय।

 कभी वह अन्तर्व्यथा से व्याकुल होकर अपने प्राणधन को पत्र लिखने बैठती। कौवे से कहती -'तू ले जायगा मेरी पाती, ठहर मैं लिखती हूँ।' किन्तु एक अक्षर भी लिख नहीं पाती। आँखों की झड़ी कागज को गला देती, कलम भीग जाती-

पतियाँ मैं कैसे लिखूँ लिखी ही न जाई। 
कलम धरत मेरो कर कँपत हिय न धीर धराई। 
मुख सो मोहिं बात न आवै नैन रहे झराई। 
कौन बिध चरण गहूँ मैं सबहि अंग थिराई। 
मीराके प्रभु आन मिलें तो सब ही दुख बिसराई।

जब नहीं लिखा जाता तो वह काग से कहती- 'तू ही मेरा संदेश कह देना-
जाय प्रीतम सों यो कहि रे, थारी बिरहण धान न खायी। 
बेगि मिलौ प्रभु अंतरजामी, तुम बिन रह्यो न जायी।
मीरा दासी व्याकुल फिरे पिव पिव करत बिहायी।
संदेशों म्हारा प्रीतम सों कागा तू ले जायी।

वह दिन - दिन दुबली होती जा रही थी। देह का वर्ण फीका हो गया, मानों हिमदाह से मुरझायी कुमुदिनी हो। झालीजी ने यह बात रतनसिंहजी से कही। उन्होंने वैद्यजी को भेज दिया। वैद्यजी ने परीक्षा करके बताया- 'बाईसा को कोई रोग नहीं, केवल दुर्बलता है।'

वैद्यजी की बात पर मीरा हँस दी-

थें दरद न जाण्यो सुण वैद अनारी ।
थें जाओ वैद घर आपणे रे, थाँ ने खबर नहीं म्हारी। 
दरद को थें मरम न जाणो, करक कलेजा माँही।
प्राण जाण को सोच न मोही, नाथ दरस द्यो आ री। 
जीव दरसण बिन यूँ तरसे, ज्यूँ जल बिन पनवारी।
कहा कहूँ कछु कहत न आवै, सुण लो आप मुरारी। 
मीरा के प्रभु कबर मिलोगा, म्हें जनम जनम सूँ थाँरी।

वैद्यजी के जाने के बाद मीरा गाने लगी-

ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरो दरद न जाणे कोय। 
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किण बिध होय।
गगन मँडल पर सेज पिया की किण बिध मिलना होय। 
घायलकी गति घायल जाणे जो कोई घायल होय।
जौहर की गति जौहरी जाणे और न जाणे कोय।
दरद की मारी बन बन डोलूँ बैद मिल्या नहीं कोय। 
मीरा की प्रभु पीर मिटै जद बैद साँवरिया होय।

रात-रात भर जागकर दीर्घ निश्वास छोड़ती रहती। तनिक-सी आहट पर चौंक उठती —

नींद नहीं आवै री सारी रात।
करवट ले ले सेज टटोलू पिया नहीं मेरे साथ।
सगली रैन मोहि तड़फत बीती सोच सोच जिया जात। 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर आण भयो परभात।

ज्यों-त्यों कर तनिक झपकी आई थी कि कोई खटका हुआ। वह   चौंककर जग गयी। सिर उठाकर देखा, कुछ भी तो न था। अचानक ही चौंक गयी कि यह सुगन्ध कहाँ से आ रही है? केसर चन्दन की गंध से महल गमगमा उठा था। मीरा व्याकुल हो उठी- ‘यह क्या किया मैंने? प्रीतम आये और मुझे बैरिन निंदिया आ गयी? अब कहाँ पाऊँ उन्हें?'

'बाईसा ! बाईसा हुकम!'- केसर दौड़ी हुई आयी। उसका मुख प्रसन्नता से खिला था और दौड़ने के कारण साँस चढ़ रही थी।
‘जिन्होंने आपको गिरधरलाल बख्शे, वे संत पधारे हैं।'
'कहाँ?'– मीराने उतावली से पूछा। 'वे तो नगरके मन्दिरमें हैं।'
केसर ने कहा।
'उन्हें राजमन्दिर में बुला ला केसर! मैं तेरा अहसान मानूँगी।'
'अहसान क्या बाईसा हुकम! मैं तो आपकी चरणरज हूँ। मैं घर से आ रही थी तो उन्होंने मुझसे सब बात कहकर यह प्रसाद तुलसी दी और कहा कि मुझे एक बार प्रभु के दर्शन करा दो। कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। बाईसा! उनका नाम भी गिरधरदास है।'

मीरा उठकर महलों में गयी। किसी से भाई जयमल को बुलवाया और सारी बात कही– 'उन संत को आप श्यामकुँज में ले पधारिये भाई!'
'जीजा! किसी को ज्ञात हुआ तो गजब हो जायगा। आजकल जो भी संत पधारते हैं, सभी को राजपुरोहितजी नगर के बीचवाले मन्दिर में ठहराते हैं।
क्रमशः

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