mc 40

मीरा चरित 
भाग-40

म्हारो सगपण तो सूँ साँवरिया जग सूँ नहीं विचारी।
मीरा कहे गोपिन को व्हालो म्हाँ सूँ भयो ब्रह्मचारी। 
चरण शरण है दासी थॉरी पलक न कीजे न्यारी।

मीरा धीरे-धीरे भाव जगत्‌ में खो गयी।

वह सिर पर छोटी कलशी लिये यमुना जल लेकर लौट रही है। उसके तृषित नेत्र इधर-उधर निहारकर अपना धन खोज रहे हैं। निराशा-आशा उसके पद उठने नहीं देती। निराशा कहती है कि अब नहीं आयेंगे वे। चल, घर चली चल और आशा कहती है कि यहीं कहीं होंगे, अभी आ जायेंगे। नयन-मन ठंडे कर ले, घर जाने पर संध्या से पूर्व दर्शन-लाभ की आशा नहीं। इसी ऊहापोह में दो पद शीघ्र और चार पद धीमे चलती जा रही थी कि किसी ने उसके सिर से कलशी उठा ली। उसने अचकचाकर ऊपर देखा, कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे हैं। हीरक दंत प्रवाल अधरों की आभा पा तनिक रक्ताभ हो उठे हैं और अधरों पर दंत-पंक्ति की उज्ज्वलता झलक रही है। नेत्रों में अचगरी जैसे मूर्त हो गयी। लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहरती नहीं। लज्जा नीचे और प्रेम-उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है। कलशी से ढले पानी से वस्त्र और सर्वांग आर्द्र हैं। 'कलशी दे दो' यह कहते हुए भी नहीं बन पा रहा है। वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े। वह चौंककर चीख पड़ी, साथ ही उन्हें देखकर बेतरह लजा गयी। उसके गाल-कान लाल हो गये।

'डर गयी न?' उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़कर कहा- 'चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें!'

सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये। 'क्या लगा तुझे, कोई वानर अथवा भल्लुक कूद पड़ा, है न?'– उन्होंने ठोड़ी ऊँची करते हुए पूछा।
'मैं क्या कहूँ?'
'ऐ! बोलेगी नहीं तो मैं और सताऊँगो। तेरी यह मटुकिया है न, याको फोर दऊँगो और... और... का.... करूँगो? उन्होंने सोचते हुए एकदम से कहा 'तेरी नाक खींच दूँगो और.... ।'

उसे उनकी इस भंगिमा पर बेतहाशा हँसी आ गयी। वे भी हँसने लगे, पूछा- 'अभी क्या पानी भरने का समय है? दोपहर में घाट नितान्त सूने रहते हैं। जो कोऊ सचमुच भल्लुक आ गया तो?'
'तुम हो न।' उसके मुख से निकला।
'मैं क्या यहाँ बैठा ही रहता हूँ? गौएँ नहीं चरानी मुझे?'
'एक बात कहूँ?'– मैंने सिर नीचा किये हुए कहा।
'एक नहीं सौ कह, पर माथा तो ऊँचा कर! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू।'–उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा।
'अच्छो-अच्छो मुख नीचो ही रहने दे। कह, का बात है?'
'तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है?'- बहुत कठिनाई से मैने कहा
 'तो सखी! तुझे मैं अप्रसन्न दिखायी द रहो हूँ?'
'पर.... ।' मैंने कहा ।
'पर मैंने तेरी मटुकिया ले ली, तोंकू वा सो गंगा स्नान कराय दियो, यही?'
'यह नहीं....।'
'फिर कहा? तेरो घड़ो फोर दऊँगो, यही?'
'नाय।'
'तो फिर तू बतावे क्यों नाय? कबकी यह नाय, वह नाय करे जाय।'

 'सुना है तुम प्रेम से वश होते हो।'

'मोकू वश करके कहा करेगी सखी! नथ डालेगी, कि पगहा बाँधेगी? मेरे वश हुए बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला?'
'सो नहीं।'
'बाबा रे बाबा! तो सों तो भगवान् हू हार जायँ।'
'श्यामसुन्दर!'
'हाँ, कह तो, कबसे पूछ रहो हूँ। मोढ़ों पूरो खुले हुँ नाय। एक हुँ बत पूरी नाय निकसै। मैं बारो-भोरो कैसे समझूँगो?' 
'सुनो श्यामसुन्दर!' मैंने आँख मूँदकर पूरा जोर लगाकर कह दिया।
'मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिये।'
'सो कहा होय सखी?'– उन्होंने अनजान होकर पूछा।

अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये। घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी।

 'रोवै मत!'– उन्होंने बाँहों में भर मेरे सिर पर अपना कपोल रखते हुए कहा-'और अनुराग कैसो होवे री?'
 'सब कहें, उसमें अपने सुख की आशा-इच्छा नहीं होती।'
‘तो और कहा होय?'–श्यामसुन्दर ने पूछा।
'तुम्हारे सुख की इच्छा।'
‘और कहा अब तू मोकू दुःख दे रही है?'– वे हँसकर दूर जा खड़े हुए।
'ऐं....!' मैंने आश्चर्य से देखा।
'ले अपनी कलशी, बावरी कहीं की।' उन्होंने घड़ा मेरे सिर पर रखा और वन की ओर दौड़ गये। मैं सिर पर घड़ा लिये ठगी-सी बैठी रही।

वीरमदेवजी का अद्भुत शौर्य......

चित्तौड़ से गिरजाजी के पुत्र-जन्म का शुभ समाचार आया। शिशु के कुंकुम रंजित पद-चिह्न अंकित श्वेत रेशमी वस्त्र लेकर राजखवास (नाई) सवारों सहित बधाई लेकर मेड़ता आया। ढोल-नगारों से मेड़ता का गढ़ कई दिनों तक गूँजता रहा। महाराणा सांगा ने प्रथम बार भानजे को गोद में लिया तो उसे पचास हजार रुपयों की वार्षिक आमदनी का परगना चाँणोद घाणेराव प्रदान किया। महीने भर बाद वीरमदेवजी पत्नी को लिवाने चित्तौड़ पधारे। साथ में कुँवर जयमल भी गये। 
चित्तौड़ में भोजराज को देखकर जयमल को लगा कि वे कुम्हला गये हैं। रंग फीका पड़ गया है। वे पहले के हँसने बोलने और खाने-पीने वाले भोजराज कहीं खो गये। उनकी ठौड़ धीर-गम्भीर और एकान्त में बैठ आकाश की ओर देखते हुए लम्बी निश्वासें छोड़ने वाले भोजराज प्रकट हो गये। जाने-अनजाने जयमल मीराकी चर्चा कर बैठते तो जैसे भोजराज की आँखों में सूक्ष्म-सी चमक आ जाती। उस दृष्टि से उत्साहित होकर वे अपने और मीरा के बचपन और उनकी भक्ति के चमत्कार की बातें सुनाते जाते। भोजराज मुख से भले कुछ न कहते, पर बीच-बीच में अपनी बड़ी-बड़ी पलकें उठाकर वे जयमल की ओर देखते।यद्यपि अपने मन के घाव को वे पूर्ण शक्ति और सावधानी से गुप्त रखते थे, पर उनकी आँखें चुगली खा ही जातीं। वह प्यासी दृष्टि जयमल को बता ही देती कि मीरा की चर्चा उन्हें प्रिय है । कोई तीसरा ही आकर उनकी एकान्त गोष्ठी को विराम देता।जवाँईसा के पधारने से चित्तौड़ के राजमहलों में हर्ष-उत्साह की बाढ़ आ गयी। ऐसे मौके कभी-कभार ही मिलते हैं कि बहिनें-बहिनें मिलें, साढू-साढू मिलें । 

रात को अलग-अलग महलों में दोनों जमाईसा-बाईसा भोजन आरोग रहे हैं।दमामणियाँ डावड़ियाँ (दासियाँ) और ठुकराणियाँ (राजपूतोंकी स्त्रियाँ) गीत गा रही हैं। भाई-भौजाइयों की मनुहारें-न्यौछावरें आ रही हैं और इधर से उनके लिये भेजी जा रही हैं।
क्रमशः

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