mc 31

मीरा चरित 
भाग- 31

मैं कैसे अब दूसरा पति वर लूँ? और कुछ न सही, शरणागत समझकर ही रक्षा करो.... रक्षा करो! अरे, ऐसा तो निर्बल-से-निर्बल राजपूत नहीं होने देता। यदि कोई सुन भी लेता है कि अमुक कुमारी ने उसे वरण किया है तो प्राणप्रण से वह उसे बचाने का, अपने यहाँ लाने का प्रयत्न करता है। तुम्हारी भी शक्ति तो अनन्त हैं, करुणावरुणालय हो, शरणागतवत्सल हो, पतितपावन हो, दीनबंधु हो, अनन्त-सौन्दर्य-पारावार हो, भक्त-भयहारी हो....! कहाँ तक गिनाऊँ..... इन्हीं बातों को सुन-सुनकर तो हृदय में आग लगी। श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! तुम्हारी लगायी यह आग अब दावाग्नि बन गयी है। अब मेरे बसकी नहीं रही....। इतनी अनीति मत करो मोहन.... ! मत करो.... मत करो! मेरे तो तुम्हीं रक्षक हो, तुम्हीं सर्वस्व हो, अपनी रक्षा के लिये मैं किसे पुकारूँ? किसे पुकारूँ... ।'

मीरा अचेत हो गयी। उस हँसी-खुशी, राग-रंग के बीच कोई न जान सका कि दुःख के अथाह सागर में डूबकर अपने कक्ष में मीरा अचेत पड़ी है।

वीर शिरोमणि राव दूदाजी का महाप्रयाण.....

राव दूदा जी अब अस्वस्थ रहने लगे थे। अपना अंत समय समीप जानकर ही सम्भवतः उनकी ममता मीरा पर अधिक बढ़ गयी थी। उसके मुख से भजन सुने बिना उन्हें दिन सूना लगता। मीरा भी समय मिलते ही उनके पास जा बैठती। उनके साथ भगवत् चर्चा करती। अपने और अन्य संतों के रचे हुए पद सुनाती। ऐसे ही उस दिन भी मीरा श्यामकुंज में गिरधरलाल की सेवा-पूजा करके पद गा रही थी-

म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो।
पल पल ऊभी पंथ निहारूँ, दरसण म्हाँने दीजो। 
म्हें तो हूँ बहु औगुण वाली, औगुण सब हर लीजो।
हूँ तो दासी थाँ चरणाँ की, मिल बिछुड़न मत कीजो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरि चरणाँ चित दीजो।

 प्रणाम करके तानपूरा एक ओर रखा तो गंगा ने बताया-   'राजपुरोहित जी आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
पुरोहितजी ने बताया—‘महाराज आपको याद फरमा रहे हैं।'

 मीरा ने जाकर देखा कि दूदाजी के पलंग के समीप वीरमदेव, रायसल, रायमल, रतनसिंह और पंचायण पाँचों पुत्र, राजपुरोहितजी, राजवैद्यजी, दीवानजी आदि मुख्य-मुख्य व्यक्ति बैठे हैं।
'मुझे किसी ने बताया ही नहीं कि बाबोसा का स्वास्थ्य आज इतना गिर गया है और जोधपुर से छोटे कुँवरसा (रायमल) और काकोसा (पंचायण) भी पधार गये हैं।'- मीरा ने मनमें सोचा।

सहसा आँखें खोलकर दूदाजी ने पुकारा-'मीरा!'
'मैं हाजिर हूँ बाबोसा !'
 मीरा तत्परता से उठकर उनके समीप पहुँच गयी। दूदाजी बोले- 'मीरा ! भजन गाओ बेटी!'

स्वामी सब संसार के हो, साँचे श्री भगवान।
स्थावर जंगम पावक पाणी, धरती बीच समान। 
सबमें महिमा तेरी देखी, कुदरत के करबान।
विप्र सुदामा को दारिद खोयो, व्हाला की पहिचान। 
दो मुट्ठी तन्दुल की चाबी, दीनों द्रव्य महान।
भारत में अर्जुन के आगे, आप भये रथवान। 
उसने अपने कुल को देखा, छुट गये तीर कमान।
ना कोई मारे ना कोई मरता, तेरा यह अग्यान। 
चेतन जीव तो अजर अमर है, यह गीता को ग्यान।
मो पर तो प्रभु किरपा कीजो, बाँदी अपनी जान। 
मीरा गिरधर सरण तिहारी, लगे चरण में ध्यान।

पद पूरा हुआ। दूदाजी ने चारभुजानाथ के दर्शन की इच्छा प्रकट की। तुरन्त पालकी मँगायी गयी। उन्हें पालकी में पौढ़ाकर चारों बेटे कहार बने। भाइयों के आग्रह से वीरमदेव जी छत्र लेकर पिता के साथ चले। दो घड़ी तक वे दर्शन करते रहे। लौटते समय पुजारी खूबीरामजी ने चरणामृत, तुलसीमाला और कंठी प्रसाद भेंट किया। वहाँ से लौटकर श्यामकुंज में गिरधर गोपाल के दर्शन किये– 'अब चल रहा हूँ स्वामी! अपनी थाती मीरा को सँभाल लेना प्रभु!' उन्होंने मन-ही-मन कहा। महल में लौटकर वे आँखें मूँदकर सो गये। मीरा ने उनके भाल का पसीना पोंछा।
'वैद्यजी परीक्षा की आज्ञा चाहते हैं दाता हुकम!'– रतनसिंह ने कहा। आँखें मूँदे हुए ही उन्होंने जरा-सा हाथ हिलाकर संकेत किया 'थोड़ा रुको।'

कुछ देर बाद उन्होंने आँखें खोलीं- 'अब आपकी दवा के दिन बीत गये वैद्यजी! अब तो "औषधं जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणो हरिः" है। मेरी दो अभिलाषाएँ हैं।' 
उन्होंने वीरमदेव की ओर देखा।
 'हुकम दीजिये!'  पाँचों बेटे एक साथ बोल पड़े।
'पंचायण! रायमल! तुम दोनों मेड़ता से बाहर रहते हो। देखो, जिसकी सेवा में हो, कभी स्वामिभक्ति में दाग न लगने देना। यदि कभी जोधपुर और मेड़ता में ठन जाये तो भाई समझकर युद्ध से मुख न मोड़ लेना। मेरे रक्त को लजाना मत।' सुनकर दोनों भाइयों की आँखें भर आयीं। हाथ जोड़कर उन्होंने मस्तक झुका दिये।
'रतनसिंह मेरी तलवार लाओ तो !'

रतनसिंह उठकर उनकी तलवार लाये। दोनों हथेलियों पर रखकर थोड़ा झुक गये। दूदाजी में उस तलवार को देखकर जैसे जोश भर गया। बायें हाथ में लेकर दाहिने हाथ से कोषमुक्त किया। कोष नीचे रखकर धार पर बायें हाथ का अंगूठा फेरा । यौवनकाल के कितने ही रणांगण उनके मानस में घूम गये। इस शौर्य-सहायिका ने कितने दुष्टों की बलि ली, कोई गणना नहीं। 'रक्ताशनी माँ करालिके! अब तक मैं बड़े गर्व से तुम्हें धारण करता रहा हूँ। क्षात्रधर्म के अनुसार तुम्हें संतुष्ट करता रहा हूँ। जगदम्बे! प्रजाजन रक्षण और अत्याचारियों के दमन हेतु धारण की हुई इस शक्ति द्वारा जान-अनजान में मुझसे जो अपराध बन पड़े हों, उनके लिये क्षमा माँगता हुआ माँ! अब मैं इस शक्ति से विदा लेकर तुमसे काल से जूझने की आतंरिक शक्ति की याचना करता हूँ! इसके साथ ही सांसारिक व्यवहार, कर्तव्य और कामनाओं का, कि जो शेष रह गयी हों, उनका अब पूर्ण रूप से विसर्जन करता हूँ। बेटा वीरमदेव! उठो, यह तलवार शक्ति-शौर्य की सहायिका है। इसे मेरी आज्ञासे अब तुम धारण करो। माँ दुर्गा की आराधना करते हुए प्रजा की रक्षा के लिये तुम इसे स्वीकार करो। इसके साथ ही प्रजारक्षण, अन्याय का दमन और कर्तव्य का यह महत् भार भी तुम्हारे सबल स्कन्ध वहन करें!'

पिता की आज्ञा से वीरमदेव उनके पलंग के समीप जाकर और विनयपूर्वक दोनों हाथ फैलाकर झुक गये। दूदाजी ने दोनों हाथों में लेकर सिर से लगाकर राजा के समस्त कर्तव्यों सहित वह भारी करवाल वीर पुत्र के हाथों पर रख दी। वीरमदेव राजपुरोहित जी और पिता को प्रणाम करके यथास्थान बैठ गये।
'आपकी वे दो अभिलाषाएँ दाता हुकम?'–उन्होंने पूछा।
क्रमशः

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