mc 44

मीरा चरित 
भाग- 44

वहीं उनका सत्कार करके विदा कर देते हैं। सब कहते हैं कि इन बाबाओं ने ही मीरा जैसी सुन्दर, सुशील कन्या का सत्यानाश किया है।'
'म्हूँ आप रे पगाँ पडू भाई!'– मीरा रो पड़ी। 'भगवान् आपरो भलो करेला।'– आगे वह बोल नहीं पायी। 'आप पधारो जीजा! मैं लेकर आता हूँ, किन्तु किसी को ज्ञात न हो।कहते हैं कि विवाह के अवसर पर साधु-दर्शन अशुभ होता है।' आह, कैसा अज्ञान! सुख का मार्ग सुझानेवाले, हरि-नाम की अलख जगाने वाले अशुभ हैं और शुभ कौन हैं-ये विषयों की कीचड़ में मुख घुसाये रहने वाले?"

'जीजा! मैंने सुना है कि आप जीमण नहीं आरोगतीं, वस्त्राभूषण धारण नहीं करतीं। ऐसे में अगर मैं साधु बाबा को ले आऊँ और आप गाने-रोने लग गई तो सबके सब मुझ पर बरस पड़ेंगे।'
'नहीं भाई! अभी जाकर मैं वस्त्राभूषण पहन लेती हूँ। गिरधरलाल का प्रसाद रखा है। संत को जीमा कर मैं भी खा लूँगी और आप जो कहें, मैं करने को तैयार हूँ।' 
'और कुछ नहीं जीजा ! विवाह के सारे टोटके सहज कर लीजियेगा। कोई हठ न करियेगा, अन्यथा आप जानती हैं कि विवाह न होनेपर सिसौदियों की तलवारें म्यान से बाहर हो जायँगी और चूड़ियाँ तो फिर मेड़तियों ने भी नहीं पहनी हैं। चित्तौड़ के सामने मेड़ता कितनी देर सलामत रहेगा, यह आप सोच लीजियेगा। मैं अपने मन से कुछ नहीं कह रहा हूँ जीजा ! ये बातें राजकुल के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के हृदय में फाँस की भाँति गड़ रही हैं। आपकी विदाई होने पर ही सब सुख की साँस लेंगे।'

'बहन-बेटी इतनी भारी होती है भाई?'

'जबतक संबंध नहीं होता, विशेष भार नहीं लगता। संबंध हो जाने पर वह दत्ता होती है और अपने पास रहती है थाती के रूप में। आने वाले उसे लिये बिना भला क्यों जायँगे और न मिलने पर वे अपने अपमान का बदला लेने में कैसे कसर रखेंगे?'
'यदि उनके सामने उस धरोहर की अर्थी उठे तो? तब तो कुछ न करेंगे?'
 'जीजा!' जयमल केवल सम्बोधन बोलकर रह गये। फिर कहा- 'मैं नहीं जाता किसी बाबा को लेने।'
'ले आओ भाई! मैं वचन देती हूँ कि ऐसा कुछ न करूँगी, जिससे मेरी मातृभूमिपर संकट आये अथवा परिजनों का मुख मलिन हो। आप सबकी प्रसन्नता पर मीरा न्यौछावर है। बस, अब तो पधारो आप।'

गिरधरदासजी ने जब श्यामकुँज में प्रवेश किया तो वहाँ का दृश्य देख वे चित्रवत् रह गये। चार वर्ष की मीरा अब पन्द्रह वर्ष की होने वाली थी। सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज्जित उसका रूप खिल उठा था। सुन्दर साड़ी के अन्दर घन कृष्ण केशों की मोटी नागिन-सी चोटी लटक रही थी। होठों पर मुस्कान और प्रेममद से छके नयनों में विलक्षण तेज था। श्यामकुँज देवांगना जैसे उसके रूप से प्रभासित था। गिरधरदास उसे देखकर श्रीठाकुरजी के दर्शन करना भूल गये।

संत को प्रणाम करने के लिए मीरा आगे बढ़ी। उसके नूपुरों की झंकार ने उन्हें सावधान किया। वर रूप में सजे गिरधर गोपाल के दर्शन करके उन्हें लगा कि वे वृंदावन के किसी निभृत एकांत निकुंज में आ खड़े हुए है। उन्हें देखकर एकाएक श्यामसुन्दर ने मूर्ति का रूप धारण कर लिया और लली अचकचाकर वैसे ही खड़ी रह गयी हो। उनकी आँखों में आँसू भर आये। श्यामकुँज का वैभव और उस दिव्यांगना प्रेम पुजारिन को देखकर उन्होंने ठाकुरजी से कहा—'इस रमते साधु के पास सूखे टिक्कड़ और प्रेमहीन हृदय की सेवा ही तो मिलती थी तुम्हें। अब यहाँ देखकर जी सुखी हुआ। किन्तु लालजी! इस लाड़, दुलार और प्रेम वैभव में इस दास को भुला मत देना।' 
उन्होंने मीरा से कहा-'प्रभु के आदेश से अब मैं द्वारिका जा रहा हूँ बेटी! यदि कभी द्वारिका आओगी तो भेंट होगी अन्यथा....। लालजी के दर्शन की अभिलाषा थी, सो पूरी हो गयी।' उन्होंने उठते हुए वस्त्र-खंड से आँसू पोंछे।
'गिरधर गोपाल की बड़ी कृपा है महाराज! आशीर्वाद दीजिये कि सदा ऐसी ही कृपा बनाये रखें। ये मुझे मिलें या न मिलें, मैं इनसे मिली रहूँ। आप बिराजें महाराज! प्रसाद आरोग कर पधारें!' उसने केसर से प्रसाद लाने के लिये कहा और स्वयं तानपूरा लेकर गाने लगी-

साँवरा म्हारी प्रीत निभाज्यो जी। 
थें छो म्हारा गुण रा सागर औगण म्हारा मति जाज्यो जी।
 लोकन धीजै म्हाँरो मन न पतीजै मुखड़ा रा सबद सुणाज्यो जी
म्हें तो दासी जनम जनम की म्हारे आँगण रमता आज्यो जी। 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बेड़ो पार लगाज्यो जी।

पद की मधुरता और प्रेम भरे भावों से गिरधरदासजी तन्मय हो गये। कुछ देर बाद आँखें खोलकर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा। उसके सिर पर हाथ रखकर अन्तस्थल से मौन आशीर्वाद दिया। केसर द्वारा लाया गया प्रसाद ग्रहणकर एक बार पुनः ठाकुरजी के दर्शन किये। प्रणाम करके वे बाहर निकल गये। मीरा ने झुककर उनके चरणों में मस्तक रखा तो दो बूँद अश्रु संत के नेत्रों से निकल उसके मस्तक पर टपक पड़े।
 'अहा, संतों के दर्शन-सत्संग से कितनी शांति-सुख मिलता है? यह इन लोगों को कैसे समझाऊँ? वे कहते हैं कि हम भी तो प्रवचन सुनते ही हैं। हमें तो रोना-गाना-हँसना कुछ भी नहीं आता। अरे, कभी खाली होकर बैठें, तब तो भीतर कुछ जाय? बड़ी कृपा की प्रभु! जो संत दर्शन कराये। और जो हो, सो हो, पर अपने प्रियजनों-निजजनों-संतों-प्रेमियों के बीच निवास दो, उनके अनुभव, उनके मुख से झरती तुम्हारे रूप-गुणों की चर्चा प्राणों में जोर हिलोर उठा देती है।जगत के ताप से तपे मन-प्राण शीतल हो जाते है। मैं तो तुम्हारी हूँ तुम जो चाहो, वही हो, वही हो! मैंने तो अपनी चाह तुम्हारे चरणों मे रख दी है।’

वैवाहिक गठबन्धन.....

अक्षय तृतीया का प्रभात। प्रातः काल मीरा पलंग पर से सोकर उठी तो दासियाँ चकित रह गयीं। उन्होंने दौड़कर झालीजी और राणावतजी को सूचना दी। उन्होंने आकर देखा कि मीरा विवाह के साज से सजी है। बाँहों में खाँचों समेत दाँत का चंदरबायी का चूड़ला है। (विवाह के समय वर के यहाँ से वधू को पहनाने के लिये हाथी दाँत की चूड़ियाँ आती हैं, जिसपर सोने के पानी से चित्रकारी की जाती है। इसे चन्दरबायी का काम कहा जाता है।
क्रमशः

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