mc 24

मीरा चरित 
भाग- 24

मीरा के प्रभु गिरधर नागर।
आय दरस धो सुख के सागर।

आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी। सखियाँ उसे धीरज देनेके लिये कीर्तन करने लगी-

वृज जीवन नंद लाल, पीत वसन पुष्प माल।
मोर मुकुट तिलक भाल, जय जय लोचन विशाल।

 कुछ समय बाद वह फिर गाने लगी, चम्पाने मृदंग और मिथुला ने मँजीरे सँभाल लिये-

जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में।
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ। 
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ।
गुरुजन कठिन कानि कासों री कहिये।
हम भईं गुल काम लता वृन्दावन रैना। 
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना।
गुरुजन कठिन कानि कासों री कहिए।
मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये।

उसकी आँखें मुँद गयीं। निमीलित पलकों तले लीला-सृष्टि विस्तार पाने लगी। वह गोप सखा के वेशमें आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ़ रही है। उसके हाथ में कभी वृक्ष का तना, कभी झाड़ी के पत्ते आ जाते है। वह थक गई और व्याकुल हो पुकार उठी-- "कहाँ हो गोविंद! आह मैं नही ढूंढ पा रही हूँ। श्यामसुन्दर! कहाँ हो..कहाँ हो..कहाँ हो..??"

तभी गढ़परसे तोप छूटी। चारभुजानाथ के मन्दिरके नगारे, शंख, शहनाई एक साथ बज उठे। समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया।
'चारभुजानाथ की जय! गिरिधरण लाल की जय! गढ़बोर पति की जय ! बोल छौगाला छैलकी जय!' 

उसी समय मीराने देखा-जैसे सूर्य-चन्द्र भूमिपर उतर आये हों, उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योतिस्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किये सौन्दर्य-सुषमा-सागर श्यामसुन्दर खड़े मुस्करा रहे हैं। वे आकर्ण दीर्घं दृग, उनकी वह हृदयको मथ देनेवाली दृष्टि, वे कोमल अरुण अधर-पल्लव, बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका, वह स्पृहा-केन्द्र विशाल वक्ष, पीन प्रलम्ब भुजाएँ, कर-पल्लव, कदली खंभ-सी पीताम्बर परिवेष्टित जंघाएँ, जानु शोभाखान पिंडलियाँ और नूपुर मंडित चारु चरण।

 एक दृष्टि में जो देखा जा सका.... फिर तो दृष्टि तीखी धार-कटार से उन नेत्रों में उलझकर रह गयी। क्या हुआ? क्या देखा? कितना समय लगा? कौन जाने? समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है, अन्यथा अपनी उपस्थिति का ज्ञान कराने के अपराध में कहीं अपना अस्तित्व ही खतरे में न पड़ जाय, यह आशंका उसे चैन नहीं लेने देती, अतः प्रभु-प्रेम पान के लिये वह प्रेमी की चरण रज में अपने को विलीन करके ही शांति पाता है। दाहिने हाथ की वंशी बायें हाथ में लेकर श्यामसुन्दर ने अपना दाँया हाथ मीरा की ओर बढ़ाया, उसका हाथ थाम तनिक अपनी ओर खींचा। वह तो अनायास ही प्राणहीन पुत्तलिका की भाँति उनके वक्ष पर आ गिरी।
'इतनी व्याकुलता क्यों; क्या मैं कहीं दूर था?'
अपना कपोल उसके मस्तक पर टिकाकर उन्होंने स्नेहसिक्त स्वरमें पूछा। 

प्रातः मूर्छा टूटनेपर मीराने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही हैं। उसने तानपूरा उठाया। सखियाँ उसे सचेत हुई जानकर प्रसन्न हुई। कीर्तन बंद करके वे भजन सुनने लगीं-

म्हारा ओलगिया घर आयाजी।
तन की ताप मिटी सुख पाया, हिलमिल मंगल गाया जी।
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूँ मेरे आनंद छाया जी। 
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ, भौं का दरद मिटाया जी।
चंद कूँ निरख कुमुदणि फूलै, हरिख भई मेरी काया जी।
रग रग सीतल भई मेरी सजनी, हरि मेरे महल सिघाया जी।
सब भक्तन का कारज कीन्हा, सोई प्रभु मैं पाया जी।
मीरा बिरहणि सीतल भई, दुख दुंद दूर नसाया जी।

इस प्रकार आनन्द-ही-आनन्द में अरुणोदय हो गया। दासियाँ उठकर उसे नित्यकर्मके लिये ले चलीं।

वृन्दावनविहारी के लिये संदेश......

श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव सम्पन्न होनेके पश्चात् बाबा बिहारीदासजी ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की। भारी मनसे दूदाजी ने स्वीकृति दी। यह बात मंगला ने आकर मीरा को बतायी। सुनकर ऐसा लगा मानो किसी ने काँटा चुभा दिया हो। ठाकुरजी की ओर देखकर बोली- 'अपने निजजनों-प्रेमीजनों के बीच निवास दो गोपाल! तुम्हारी चर्चा और उनके अनुभव सुनने से प्राणों की ज्वाला ठंडी होती है। अब अच्छा नहीं लगता यह सब, मुझे.... ले.... चलो.... ले.... चलो.... प्रिय!'

मंगला सिर झुकाये सुनती रही। उसी समय मिथुलाने आकर बताया कि बाबा बिहारीदासजी बाईसा की वर्षगाँठ तक रुकनेके लिये राजी हो गये हैं। मीरा उठकर बाबाके पास चली। मंगलाने आगे आकर सूचना दी। मीरा ने कक्षमें जाकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया- 'बाबा! आप पधार रहे हैं?' उसने भरे गले से पूछा।

'हाँ बेटी! वृद्ध हुआ अब तेरा यह बाबा। अंतिम समय तक वृन्दावनमें श्रीराधामाधव के चरणों में ही रहना चाहता हूँ।'

'बाबा! मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे भी.... ।' - मीराने दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर रोते हुए कहा-'मुझे भी ले चलिये न बाबा!'

'श्रीराधे! श्रीराधे!'—बिहारीदासजी कुछ बोल नहीं पाये। उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा। कुछ समय पश्चात् उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरते कहा— 'हम सब स्वतंत्र नहीं हैं पुत्री! वे जब जहाँ जैसा रखना चाहें...., उनकी इच्छामें ही प्रसन्न रहें। भगवत्प्रेरणा से ही मैं इधर आया। सोचा भी नहीं था कि यहाँ ऐसा रत्न पा जाऊँगा! इतने समय तक रहूँगा यहाँ! तुम्हारी संगीत शिक्षा में मैं तो निमित्तमात्र रहा। तुम्हारी बुद्धि, श्रद्धा, लगन और भक्ति ने मुझे सदा ही आश्चर्यचकित किया है। तुम्हारी सरलता, भोलापन और विनय ने हृदयबके वात्सल्य पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया। राव दूदाजी के प्रेम, विनय और संत-सेवा के भाव, इन सबने मुझ विरक्त को भी बाँध लिया है। जब-जब जानेका विचार किया, एक अव्यक्त पीड़ा हृदय में उठ खड़ी होती किन्तु बेटा! जाना तो होगा ही।' 

'बाबा! मैं क्या करूँ? मुझे आशीर्वाद दीजिये कि.... ।'– मीरा की हिचकी बँध गयी– ‘मुझे भक्ति प्राप्त हो, अनुराग प्राप्त हो, श्यामसुन्दर मुझपर प्रसन्न हों!' उसने बाबाके पैर पकड़ लिये।

बाबा कुछ बोल नहीं पाये, उनकी आँखों के आँसू चरणों पर पड़ी मीरा के सिर को सिक्त करते रहे। फिर भरे गले से बोले- 'श्रीकिशोरीजी और श्यामसुन्दर तुम्हारी मनोकामना पूरी करें! बेटी! मैं जब एक ओर तुम्हारी भाव-भक्ति को और दूसरी ओर समाज के बंधनों का विचार करता हूँ तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठते हैं। बार-बार प्रभुका स्मरण करके उनसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरी बेटी का मंगल हो, मंगल हो ! चिन्ता न करो पुत्री!
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला