mc 42

मीरा चरित 
भाग- 42

एक ने अपनी बारी आते ही कहा—'मारो मत अन्नदाता! मैंने कूकड़ो बोलताँ (मुर्गा बोलते) पेलाँ ही इण झरोखा शू एक जणा बस्तर थाम नीचे उतरतो देख्यो। वो कढ़ाव रे भड़े जाय अठी-उठी देखतो जावे अर दोई-दोई हाथा शू खावा लागो। म्हँने तो धूजणी छूटगी, ज्यूँ आँख्या मींच लीधी, पाछो चढ़तो देख्यो जद साँस वापरी।' 

'कौनसे झरोखे से उतरा वह?’

'वह झरोखा, अन्नदाता!'- उसने हाथ के संकेत से बताया।
 'झूठ तो नहीं बोल रहा? बात झूठ निकली तो खाल खींचकर भूस भरवा दूँगा।'
सरदार ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि इस महल में तो जवाँईसा और बाईसा पौढ़े थे रात को। अब कौन किसको कुछ कहे? किसके धड़ पर दो सिर हैं कि खास जवाईसा के लिये ऐसी बात मुख से निकाले? पर बात छिपी नहीं, सरकती हुई गणेश ड्योढ़ी में पहुँची और वहाँ से राजमाता के कानों में पड़ी। क्रोध से उनका गौर मुख आरक्त हो उठा। उन्होंने श्रीजी को संदेश भेजा। 
महाराणा ने पधारकर अभिवादन किया-'अन्नदाता! हुकम बखशावें।'

'अपनी बहिन के लिये तुम्हें मेड़ते के अतिरिक्त कहीं राजपूत का बेटा नजर नहीं आया? मेरी पितृहीन पुत्री को तुमने घोड़े की रातिब खाने वालों को सौंप दी?'
सारी बातें सुनकर दीवानजी ने कहा-'हुजूरकी नाराजगी मेरे सिर माथे। मुझे एक दिनका समय दें। कल प्रातः आपको निवेदन करूंगा कि जवाँईसा कैसे हैं?'
'कैसे हैं सो तो दिखायी दे गया है न! इन्हीं की भतीजी लाने की और सोच रहे हो, सो नहीं होगा। बेटी डूबी सो डूबी, पोता नहीं डुबाने दूँगी।'
'जैसा आपका हुकम होगा वही होगा, बाई हुकम! अब मुझे आज्ञा हो।' दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही अन्तःपुर में सूचना पहुँची कि हाथी पागल होकर गणेश ड्योढ़ी पर खड़ा है, अत: जवाँई राणा से निवेदन है कुत्ता बारी (छोटे द्वार) से बाहर पधार जायँ ।
थोड़ी देर में खबर पहुँची कि छोटे जवाँईसा बाहर पधार गये हैं। महाराणा तो मेड़तिया राठौड़ की राह देख रहे थे। हाथी की बात सुनते ही वीरमदेवजी की चढ़ गयी- 'क्यों, कुत्ताबारी से क्यों?'

'हाथी पागल हो गया है सरकार! पकड़ में नहीं आ रहा।'–सेवक ने हाथ जोड़ करके निवेदन किया।
'मैं देखूँ? ऐसा कैसा पागल है कि महावतों और चित्तौड़ोंके बसमें नहीं आ रहा।'
एक-दो ने और बरजने का प्रयत्न किया, किन्तु वे 'अरे देखने तो दो' कहते हुए ड्योडी में आ गए और बंद द्वार खोल दिया। इन्हें देखते ही हाथी झपटा। 
उसने उन्हें लपेटने को सूँड बढ़ायी। वे कूदकर एक ओर हो गये, पर सूँड़ पकड़कर जोर से मरोड दी। हाथी चिंघाड़ उठा। क्रोध से तिलमिलाकर हाथी पुनः बढ़ा। उन्होंने कनपटी पर घूंसा मारा। हाथीको चक्कर-सा आ गया। अब सांप और नेवले का खेल होने लगा। हाथी उन्हें सूँड़ में लपेटने, दाँत से छेदने और पैर से रौंदने के प्रयत्न में था और वे उसकी पकड़ में न आकर उसे थकाकर वश में करने का प्रयत्न कर रहे थे। बचने के प्रयत्न में कहीं-न-कहीं उसकी दुखती रग पर घूँसा जड़ देते। तमाशा देखने के लिये भीतर से दासियों और बाहर से महावतों, चाकरों और राजपूतों की भीड़ जमा हो गयी। महाराणा की आज्ञा से कई लोग तीर धनुष, भाले और गुर्ज लिये खड़े थे कि यदि हाथी जवाँईसा को पकड़ ले तो उसे तुरंत मार दिया जाय।

 अंत में वीरमदेवजी ने हाथी की सूँड़ पकड़कर मरोड़ दी और मरोड़ते ही गये। वह चिंघाड़ता हुआ भूमि पर जा गिरा। तब उन्होंने मस्तक पर अपना दाहिना पाँव अड़ाकर हाथों से खींचकर उसके दाँत उखाड़ लिये। उन्हीं दाँतों को ऊपर उठाकर सिर पर प्रहार किया और हाथी के मुख से रक्त की नाली-सी बह चली। वह शांत हो गया।हाथी के मुख से आती गंध से वीरमदेवजी समझ गये थे कि यह पागल हुआ नहीं, इसे दारू पिलाकर पागल किया गया है। क्यों? यह प्रश्न मन में उठते ही घोड़ों की रातिब का कड़ाह याद हो आया। उन्होंने मन-ही-मन दीवानजी की बुद्धि की प्रशंसा की और निश्चय कर लिया कि हाथी को वश में करने के बदले मारना ही है। दोनों दाँत हाथ में लिये ही वे महाराणा के समीप गये और उनके सम्मुख फेंककर बोले- 'दीवानजी! जानवराँ ने दारू पाय र म्हाँरो बल कँई परखो? कदी काम पड़े तो याद करावजो। चित्तौड़ के खातिर माथो कटा दूँ ला (दीवानजी! जानवरों को शराब पिलाकर हमारे बल की क्या परीक्षा करते हैं? कभी विपत्ति आये तो याद करियेगा। चित्तौड़ के लिये अपना माथा कटा दूँगा)।'

महाराणा ने उठकर उत्साह और स्नेह से बहनोई को बाँहों में भरकर वक्ष से लगा लिया। इस खुशी में गोठ (दावत) और नजर न्यौछावर हुई। इस घटना ने सिसौदियों के मन में मेड़तियों का मान बढ़ा दिया। उस वंश की बेटी अब इस कुल में आये, यह हर्ष और सम्मान की बात मान ली गयी। महारानियाँ अपनी दुलारी ननद गौरलदे से मीरा के विषय में पूछतीं और वे उसके रूप-गुणों की प्रशंसा करते न थकती। 

'वह भगवान की बड़ी भक्त है भाभीसा!' एक दिन उन्होंने साहस करके कह दिया- 'अपने भगवान् के सामने उसे कुछ नहीं सूझता। सभी गुण हैं, पर वह भक्ति को सबसे प्रधान मानती है। उसके गुण भी भगवान के लिये ही हैं। जैसे वह कवियत्री है, पर अपने इस गुण का प्रयोग वह भगवान के भजन रचने में ही करती है। आप श्रीजी से निवेदन कर दीजिये; कहीं ऐसा न हो कि बाद में विवाद उठे। मैं तो दोनों ओर से बँधी हूँ।'

बात महाराणा ने भी सुनी। उन्होंने कहा- 'अरे, भक्ति है कहाँ? किसी भाग्यवान को ही मिलती है वह। चिंता की बात नहीं, हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू है। यदि वह संसारी है तो ऐसी सुन्दर सुशील बहू मिलेगी और भक्त है तो हमें तार देगी।'
क्रमशः

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