mc 22

मीरा चरित 
भाग- 22

दूदाजीने पोती को छाती से लगा लिया–'तूने भाबूसे पूछा नहीं?
 'पूछा! वे तो कहती है कि वह तो तुझे बहलानेके लिये कहा था। पीतलकी मूरत भी भला किसी का पति होती है? अरे, बड़ी माँ के पैर पूज! यदि मेवाड़ की राजरानी बन गयी तो भाग्य खुल गया समझ। आप ही बताइये बाबोसा ! वे क्या केवल पीतलकी मूरत हैं? संतने कहा था कि ये प्रतीक हैं। प्रतीक वैसे ही तो नहीं बन जाता? कोई हो, तभी तो उसका प्रतीक बनाया जा सकता है। जैसे आपका चित्र कागज भले हो, पर उसे कोई भी देखते ही कह देगा कि ये दूदाजी राठौड़ हैं। आप हैं, तभी तो आपका चित्र बना है। यदि गिरधर नहीं तो फिर प्रतीक कैसा? भाबू कहती हैं- भगवान को किसने देखा है? कहाँ हैं? कैसे हैं? वे कहीं हों, कैसे भी हों, पर हैं, तभी न मूरत बनी है, चित्र बनते हैं। ये शास्त्र, संत सब क्या झूठे हैं? इतनी बड़ी उम्रमें आप क्यों राज्य का भार बड़े कुँवरसा पर छोड़कर माला फेरते हैं? क्यों मन्दिर पधारते हैं? क्यों सत्संग करते हैं? क्यों लोग अपने प्रियजनोंको छोड़कर उनको पानेके लिये साधु हो जाते हैं?'

राव दूदाजी अपनी दस वर्ष की पौत्री की बातें सुनकर चकित रह गये। उनसे कुछ क्षण बोला न गया।

'आप कुछ तो कहिये बाबोसा! मेरा जी घबराता है। किससे पूछूँ यह सब? भाबू ने क्यों पहले ऐसी बात कही और अब क्यों उस पर पानी फेर रही हैं? जो नहीं हो सकता, उसका क्या उपाय? अब मैं क्या करूँ? अच्छा बाबोसा! आप ही बताइये क्या तीनों लोकोंके धणी (स्वामी) से भी मेवाड़का राजकुँवर बड़ा है? और यदि है तो होने दो, मुझे नहीं चाहिये।'

'तू रो मत बेटा! धैर्य धर।'-उन्होंने दुपट्टे के छोर से मीरा का मुँह पोंछा 'तू चिन्ता मत कर। मैं सभीसे कह दूँगा कि मेरे जीते जी मीराका विवाह नहीं होगा। तेरा वर गिरधर गोपाल हैं और वही रहेगें, किन्तु मेरी लाड़ली! मैं बूढ़ा हूँ। कै दिनका मेहमान? मेरे मरनेके पश्चात् भी यदि ये लोग तेरा ब्याह कर दें तो तू घबराना मत। सच्चा पति तो मन का ही होता है। तन का पति भले कोई बने, मन का पति ही पति है। गिरधर तो प्राणी मात्रका धणी है, अन्तर्यामी है वह। मनकी बात उससे छिपी तो नहीं है बेटा ! तू निश्चिन्त रह।’ 
'सच फरमा रहे है बाबोसा?'
'सर्व साँची बेटा'
'तो फिर मुझे तन का पति नही चाहिए। मन का पति ही पर्याप्त है'
दूदा जी से आश्वासन पाकर मीरा के मन को राहत मिली।

प्रेम की पीर के नीर.......

दूदाजी की गोदसे उतरकर मीरा श्यामकुँज की ओर दौड़ गयी। कुछ क्षण अपने प्राणाराध्य गिरधर गोपाल की ओर एकटक देखती रही। फिर तानपूरा झंकृत होने लगा। आलाप लेकर वह गाने लगी-

आओ मनमोहना जी, जोऊ थांरी बाट।
खान पान मोहि नेक न भावे, नैणन लगे कपाट।
 तुम आयाँ बिन सुख नहीं, मेरे दिल में बहुत उचाट।
 मीरा कहे मैं भई रावरी, छाँड़ों नाहिं निराट।

भजन पूरा हुआ तो अधीरतापूर्वक नीचे झुककर दोनों भुजाओं में सिंहासन सहित अपने हृदयधन को बाँध चरणों में सिर टेक दिया। नेत्रों से झरती बूँदें उनका अभिषेक करने लगीं। हृदय चीख रहा था—'आओ, आओ, मेरे सर्वस्व! इस तुच्छ दासीकी आतुर प्रतीक्षा सफल कर दो। आज तुम्हारी साख और इसकी प्रतिष्ठा दाँव पर चढ़ गयी है। बचा लो.... इसे बचा लो। मुझे बताओ, मैं क्या करूँ?... क्या करूँ?... क्यों तुम मुझे इतने अच्छे लगते हो? क्यों?.... क्यों?.... क्यों तुमने मुझे अन्य लोगों जैसा नहीं बनाया?.... क्यों अच्छे लगते हो?.... क्यों अच्छे लगते हो.... क्यों अच्छे लगते हो....?'

वह फूट-फूट करके रो पड़ी। मिथुलाने समीप बैठ धीरेसे पुकारा 'बाईसा हुकम! बाईसा हुकम! थोड़ा धीरज धारण कीजिये। मैं नाचीज आपको क्या समझाऊँ ? दिन सदा एकसे नहीं रहते। ये अन्तर्यामी हैं; आपकी व्यथा इनसे छिपी तो नहीं है। मुँह खोलकर इनसे कहिये तो.... ।'

मीरा ने सिर उठाकर मिथुला की ओर देखा। हृदय को बेध देने वाली वह आँसू भरी दृष्टि... । मिथुला भीतर तक हिल गयी। उसने एक हाथसे मुख पोंछने लिये वस्त्र और दूसरे से तानपूरा उठाकर स्वामिनी की ओर बढ़ाया। उसकी अपनी आँखें छलछला आयीं तो नेत्र नीचे कर लिये।

'मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता मिथुला।'

'यही बात आप इनसे अर्ज करें बाईसा! ये सर्वसमर्थ हैं। यह दासी तो आपकी चरण-रज है। क्या आश्वासन दे पायेगी यह? यह तानपूरा लीजिये। कुछ तो मन हल्का होगा।'

उसके आग्रह पर मीरा ने तानपूरा थाम लिया—

सखी! म्हाँरो कानूड़ो कालजा री कोर।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहे कुण्डल की झकझोर।
वृंदावन की कुँज गलिन में नाचत नंदकिशोर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कँवल चितचोर।

मन थोड़ा हल्का हुआ तो उसने मिथुला की ओर देखा- 'मिथुला! तुझे
क्या लगता है? क्या वे मेरी पीड़ा जानते हैं? मेरी प्रार्थना सुनकर कभी वे मेरी सुध लेंगे? वे बहुत..... बहुत.... बड़े.... हैं मिथुला ! मेरी क्या गिनती? मुझ जैसे करोड़ों जन बिलबिलाते रहते हैं किन्तु मिथुला ! मेरे तो केवल वही एक अवलम्ब हैं। न सुनें, न आयें, तब भी मेरा क्या वश है?' उसने मिथुला की गोद में मुँह छिपा लिया।

'आप क्यों भूल जाती हैं बाईसा! वे भक्तवत्सल हैं, करुणासागर हैं, दीनबंधु हैं। भक्तकी पीड़ा वे नहीं सह पाते, दौड़े आते हैं।'

'किन्तु मैं भक्त कहाँ हूँ मिथुला?'- मीराने रोते हुए कहा- 'भजन ! मुझसे बनता ही कहाँ है। मुझे तो केवल वे अच्छे लगते हैं बस ! वे मेरे पति हैं मिथुला। मैं उनकी हूँ, मैं उनकी हूँ। वे कभी अपनी इस सेविकाको अपनायेंगे क्या? उनके तो सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ हैं। और भी न जाने कहाँ कितने प्रेमैकप्राण उन्हें पुकारते होंगे! उनके बीच मेरी यह प्रेमहीन रूखी-सूखी क्षीण पुकार सुन पायेंगे वे? क्या लगता है मिथुला! कभी वे इसकी ओर देखेंगे भी? मुझे कोई कूल-किनारा दिखायी नहीं देता....।'
वह अचेत होकर मिथुला की गोदमें लुढ़क गयी।

श्रीकृष्णजन्माष्टमी का उत्सव....

आज जन्माष्टमी है। राजमन्दिर और श्यामकुँज में प्रातः से ही उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। मीरा का मन आज बहुत विकल है। वह स्वगत कहने लगी 'दस जन्माष्टमियाँ निकल गई, सूनी ही गयीं सब... क्या आज भी? नहीं, नहीं ऐसा नहीं होगा। आज प्रभु अवश्य पधारेंगे।
क्रमशः

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