mc 120

मीरा चरित 
भाग- 120

उसी समय वे ड्योढ़ी से सूचना दिलवा कर अंत:पुर में माँ के कक्ष में पधारे-
‘भाभा हुकुम, मैं आपको कहाँ मिला, जब आप बाहर महलों में पधारीं?’
‘आपके पूजन कक्ष से पहले जो कक्ष है, जहाँ आप विश्राम करते हैं, उसी के द्वार से बाहर आते हुये मैनें आपको देखा।आपने हँसकर पूछा कि आज आप यहाँ कैसे?’
मैनें उत्तर दिया- ‘आपकी तलवार से सभी डरते हैं, इसलिए मैं आई हूँ कि चाहे जो हो बिना खबर किये तो जोधाणे की सेना भीतर घुस आयेगी।’
‘फिर?’
‘क्यूँ पूछो हो लालजी? फेर आप घोड़ा माथे विराज लड़न ने पधारिया (क्यों पूछते हो लालजी, फिर आप घोड़े पर सवार होकर लड़ने पधारे)।’
माँ की बात पूरी होते ही जयमल उनके चरण पकड़ कर फूट पड़े- ‘आप धन्य हो भाभा हुकुम, आप धन्य हैं, धन्य हैं जोधाणनाथ और धन्य हैं वे जो मारे गये।अभागा एक मैं ही रहा, हा.... हतभाग जयमल।तेरे लिये रघुनाथजी ने इतना कष्ट झेला।’
वे अगँरखे से आँसू पोछते बाहर चले गये।रनिवास के सेवक सेविकायें जहाँ के तहाँ चित्र लिखित से रह गये।उन्होंने बाहर आकर पूजा की सामग्री मगाँई।
घुड़शाला में जाकर उन्होंने उस अश्व की पूजा आरती की, भोग लगाया और औधें लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया।पूज्य और पुजारी दोनों की आँखे झर रहीं थीं।उन्होंने देखा वह पाणादार कुम्मैत अश्व जो कई भीषण युद्धों में उनका साथी रहा, अश्रुपात करते हुये थर थर काँप रहा था।उन्होंने आवाज देकर अश्व परिचायक को बुलाया और स्वयं झपटकर उसकी पिछाड़ी और गले का बंधन खोल दिया।पिछाड़ी खुलते ही वह बैठ गया।उसकी पूरी देह रोमांचित थी।जयमल वहीं भूमि पर उसका मुख अपनी गोद में लेकर बैठ गये।
‘केकाण’- उस पर हाथ फेरते हुये उन्होंने गदगद कंठ से कहा- ‘केकाण, तू पशु होकर भी धन्य हो गया भाई, और.... और..... यह जयमल मनुष्य होकर भी जन्म भर अभागा ही रहा।प्रभु ने ... इसे ... दर्शन.... योग्य .... नहीं.... समझा भाई, इसलिए.... मैं तेरा .... दर्शन.... तेरा स्पर्श.... प्राप्त.... करने आया .... हूँ।तू मुझे कृतार्थ.... कर दे, मेरे भाई।मेरे.... जीवन ... रक्षक... मेरे साथी.... मुझ पर .... कृपा कर.... कृपा... कर।’
जयमलजी उसके मुख पर अपना मस्तक टिकाकर रोते हुये कहते रहे।उन्हें ज्ञात ही नहीं हुआ कि कब घोड़े ने गर्दन ढीली कर पैर पसार दिये।घुड़शाला केसामने उनके भाई पुत्र सेवक सब आश्चर्य चकित उन्हें देख रहे थे।भाई पृथ्वीराज ने उनके समीप आकर उनके हाथ पर हाथ धर कर धीरे से कहा- ‘केकाण चला गया सरकार’
चौंककर जयमलजी ने सिर उठाया।कंधे पर पड़ा हुआ दुपट्टा उसके सिर के नीचे देकर वे उठ खड़े हुये।भाई से नजर मिलते ही उनसे लिपट गये- ‘तुम सब भाग्यशाली हो भाई।तुम्हें रघुनाथजी ने दर्शन दिये।तुम्हारा यह अधम भाई वंचित रह गया।अपने चरणों की धूल दो तो यह पवित्र हो जाये.....।’
‘सरकार यह सौभाग्य हमें किसके कारण प्राप्त हुआ? हुजूर के चरणों के प्रताप से।हुजूर की भक्ति ने हमें यह दिन दिखाया और दर्शन करके भी हम कहाँ समझ पाये दर्शन के महत्व को? अदर्शन की पीड़ा को सरकार ने और दर्शन के आह्लाद को केकाण ने समझा।हम सब तो पहले भी और पीछे भी, वैसे ही हैं।’
भाईयों ने उन्हें महल में ले जाकर शयन कराया और अन्य उनके केकाण की अंतिम यात्रा में लगे।

वृत सुनकर मीरा की आँखों से आँसू बहने लगे- ‘सचमुच पशु होकर भी केकाण धन्य हो गया।तूने दर्शन किए रघुनाथजी के?’
‘हुकुम जब अन्नदाता हुकुम के वेश में नीचे पधार कर अश्वासीन हो रहे थे, तब गीत गाती हुई स्त्रियों के मध्य मैं भी विदा करने गई थी।’
‘भाई और उनमें कुछ फर्क नजर आया था?’
‘नहीं सरकार, और तो सब वैसा ही था, केवल होठों की मुस्कान अधिक मोहक मीठी थी।दृष्टि भी अधिक प्रभावशाली थी बस।’
‘धन्य हो गई तू भी।श्याम कुँवर बाईसा का पुत्र भी युवा हो गया होगा? वह भी युद्ध में जाता होगा न?’
‘नहीं हुकुम, वे बना तो देवलोक पधार गये थे बचपन में।अब जो हुये अभी छ: वर्ष के हैं।इनका नाम माधवदास रखा गया था, पर जब कुछ कुछ बोलने लगे तब मनमन- मनमन कहते।इससे सभी मनमनदास कहने लगे।’
‘अब तो सब कुशल है मेड़ते में? तू क्यों भागी आई पगली।सुख से रहती वहीं’- मीरा ने कहा।
मंगला अर्ज करने लगा- ‘मेरी कुशल, मेरा सुख तो इन चरणों में हैं हुकम।जहाँ ये चरण हैं वही मैं। वहाँ तो आपके आदेश के बंधन में बंधकर रह जाना पड़ा।रही बात अब कुशल की, सो सरकार, जोधाणनाथ की तृष्णा-कोप मिटे तो कुशलता समीप आये। जोधाणनाथ के कारण राव जयमल को मेड़ता छोड़ना पड़ा। कुछ दिन इधर-उधर गुजारने के बाद वे चित्तौङ चले आये। महाराणा उदयसिंह जी ने बड़ा आदर-सत्कार कर उन्हें अपने पास रखा और चित्तौड का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त कर दिया।नवीन राजधानी उदयपुर बन जाने से महाराणा अधिकतर वहीं विराजते थे।इस कारण चित्तौड़ दुर्ग के सारे अधिकार उन्होंने जयमलजी को सौंप दिये।
जब अन्नदाता मेड़ते छोड़ अन्यत्र पधारने लगे तो मैंने वहाँ से वृन्दावन आने का निश्चय कर लिया। उनसे और बाईसा हुक्म से आज्ञा प्राप्त करके मैं यात्रियों के साथ वृन्दावन के लिये चल पड़ी।बाईसा हुकुम की इच्छा थी कि मैं उन्हीं के पास रहूँ।वे कहती थीं- ‘मंगला जीजी, तुम मेरे पासरहती हो तो ऐसा लगता है कि म्हाँरा माँ यहीं कहीं मेरे समीप है।उनकी उपस्थिति का भान मुझे मुसाबतों से जूझने और जीने का बल देता है।’ वृन्दावन जाने का मेरा मन देख उन्होंने फरमाया- ‘जाओ जीजी जाओ। अपने सुख के पीछे मैं तुम्हारा सुख क्यों मिट्टी करूँ।म्हाँरा म्होटा माँ को पाँवाधोक अर्ज करना। अर्ज करना उनके दौहित्र का पावाँधोक भी।अर्ज करना कि मैं कितनी ही दूर क्यों न रहूँ, मन सदा अपने बड़ा हुकुम के चरणों की ही परिक्रमा लगाता रहता हैं।अपनी इस छोरू, अपनी श्याम को भूल न जायें, बस इतनी कृपा बनी रहे। कभी-कभार याद करके अपनी गोद की लाडली श्यामा को सनाथ बनाये रखें’- इतना कहते-कहते वे बेतहाशा रोने लगीं।’

यह सुन मीरा की आँखों में आँसू भर आये और लाडली श्यामा के बचपन की अनेक स्मृतियाँ उसके मानस-पटल पर नृत्य करने लगीं।मंगला कहती जा रही थी- ‘जब मन बड़ा विकल और विह्वल हो जाया करता था तो वे मुझसे कहा करतीं थीं कि जीजी कैसा सुंदर था मेरा जीवन? दिन सुनहले और रात रूपहली थी।
क्रमशः

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