mc 125

मीरा चरित 
भाग- 125

आप मेरे पति का सन्देश लेकर पधारे हैं, अतः आप मेरे पूज्य हैं।यद्यपि मेरे प्राण मेरे प्रिय का सन्देश सुनने को आकुल हैं, फिर भी कोई सेवा स्वीकार करने की कृपा करें तो सेविका कृतार्थ होगी।’
‘सेवक की क्या सेवा देवा? स्वामी की प्रसन्नता ही उसका वित्त है और सेवा ही व्यसन।आपकी यदि कोई इच्छा हो तो पूर्ण कर मैं स्वयं को बड़भागी अनुभव करूँगा।’
‘अंधे को क्या चाहिये भगवन ! दो आँखें और चातक क्या चाहे - दो बूंद स्वाति जल।मेरे आराध्य की चर्चा कर हृदय को शीतलता प्रदान करें। क्या प्रभु कभी इस सेविका को भी स्मरण करते हैं? क्या दर्शन देकर कृतार्थ करने की चर्चा करते हैं? आप तो उनके अन्तरंग सेवक जान पड़ते हैं, अतः आपको अवश्य ज्ञात होगा कि उनको कैसे प्रसन्नता प्राप्त होती है? उन्हें क्या रुचता है? कैसे जन उन्हें प्रिय हैं? उनका स्वरुप, आभूषण वस्त्र,उनकी पहनिया, उनकी  क्रियायें, उनका हँसना-बोलना, स्नान, भोजन क्या कहूँ उससे सम्बंधित प्रत्येक चर्चा मुझे मधुर पेय-सी लगती हैं, जिससे कभी पेट न भरे, यह पिपासा कभी शांत नहीं होती। कृपा कर आप उनकी ही बात सुनायें।’
‘देवी ! आपका नाम लेकर मेरे स्वामी एकांत में भी विह्वल हो जाते हैं। उनके वे कमलपत्र से दो सुंदर नयन भर जाते हैं, कभी-कभी उनसे मुक्ता भी ढ़ुलक पड़ती है। केवल लोक-कल्याण के लिए ही आपको परस्पर वियोग सहना पड़ रहा है।'
‘मैं तो कोई लॊक-कल्याण नहीं करती योगीराज। मुझे तो अपनी ही व्यथा से अवकाश नहीं है। औरों का भला मैं क्या कर पाऊँगी?’
‘आप नहीं जानतीं पर आपकी इस देह से भक्ति भाव-परमाणु विकीर्ण होते हैं। वे ही कल्याण करते हैं। जो आपके पास आते हैं, आपका दर्शन करते हैं, सेवा करते हैं, संभाषण करते हैं, उन सबका कल्याण निश्चित है। आप जिस स्थान का स्पर्श करती हैं, जहाँ थोड़ी देर के लिए भी निवास किया हो, वह स्थान इतना पवित्र हो जाता है, कि इसके स्पर्श मात्र से ही लोगो में भगवत्स्मृति जाग्रत हो जाएगी।’
‘क्या कोई ऐसा दिन आयेगा कि प्रभु मुझे दर्शन देने पधारेंगे? मैं अपने विवाह के समय का वह रूप भूल नहीं पाती। उसके बाद तो केवल एक बार ही दर्शन पा सकी। सारी आयु रोते कलपते ही बीत गयी महाराज’-

श्याम बिना म्हाँसूँ रह्यो न जाय।
तन मन जीवन प्रीतम वाराँ बाँरे रूप लुभाय।
खान पान म्हाँने फीको लागे नैण रह्या मुरझाय।
निसदिन जोवाँ बाट मुरारी कब रे दरसण  पाय।
बार बार थासूँ अरजी करूँ रैण गई दिन जाय।
मीरा रे हरि थाँ मिलिया बिन तरस तरस रह जाय।

क्या कहूँ विधाता की गति जानी नहीं जाती-

विधि विधिना री न्यारी।
दीरघ नैण मिरग कूँ दीन्हा वन वन फिरता मारी।
उजलो वरण बगलाँ पायो कोयल कीधी कारी।
नदियाँ जल निरमल धारा समदाँ कर दिना खारी।
मूरख जन सिंहाँसन राजे पंडित फिरत भिखारी।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर लोग लखत अनारी।

‘क्या कहूँ देवी ! आपको देखकर ही स्वामी की आकुलता समझ में आती हैं। आप उनके ह्रदय में विराजती हैं।चिंता त्याग दें।प्रभु आपको अपनाने शीघ्र ही पधारेंगे और फिर उनसे कभी वियोग नहीं होगा। मुझे यही संदेश देकर भेजा हैं।’- योगिराज ने मीरा को सांत्वना दी।
मीरा इस सन्देश सुन हर्ष से विह्वल हो उठी। पाँव में नुपुर बाँधकर वे करताल नाचने लगीं-

सुरण्या री म्हें तो  हरि आवेंगे आज।
मेहलाँ चढ़चढ़ जोवाँ सजनी कब  आवें महाराज॥
दादुर मोर पपीहा बोले कोयल मधुराँ साज।
उमड्यो इन्द्र चहूँ दिश बरसे दामन छोड्या लाज॥
धरती रूप नव-नव धार्या  इंद्र मिलण रे काज।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बेग मिलो महाराज॥

जब-जब यति जाने की इच्छा प्रकट करता तो मीरा चरण पकड़कर रोक लेतीं- ‘कुछ दिन और मेरे प्यासे श्रवणों में सुधा-सिंचन की कृपा करें’- उनके अश्रु भीगे आग्रह से बंधकर योगी भी ठहर जाते। मीरा ने एक बार भी उनसे उनका नाम, गाँव या काम नहीं पूछा, केवल बारम्बार प्रभु के रूप-गुणों की चर्चा सुनाने का अनुरोध करती, जिसकी एक-एक सुधा-बूँद शुष्क भूमि-सा प्यासा उसका ह्रदय सोख जाता।वह बार-बार पूछती- ‘कभी प्रभु अपने मुखारविंद से मेरा नाम लेते हैं? कभी उनके रसपूर्ण प्रवाल अधरों पर मुझ विरहिणी का नाम भी आता है? वे मुझे किस नाम से याद करते हैं योगिराज? सबकी तरह मीरा ही कहते हैं कि ...।’
‘देवी, वे आपको मीरा कहकर ही स्मरण करते हैं। जैसे आप उनकी चर्चा सुनते नहीं अघाती, वैसे ही कभी-कभी तो हमें लगता हैं कि प्रभु को आपकी चर्चा करने का व्यसन हो गया हैं। वे जैसे ही अपने अन्तरंग जनों के बीच एकांत में होते हैं, आपकी बात आरम्भ कर देते हैं। देवी वैदर्भी ने तो कई बार आग्रह किया आपको बुला लेने के लिए अथवा प्रभु को स्वयं पधारने के लिये।’
‘सच कहते हैं भगवन? प्रभु के पाटलवर्ण उन सुकोमल अधरों पर दासी का नाम आया?' - कहकर, जैसे वे स्वयं प्रभु हो, धीरे से मानों कोई अक्षर पकड़ने से खिसक न जाये, इस तरहअपने नाम का उच्चारण करतीं- 'मी....... रा।' 
मीरा फिर कहती- ‘भाग्यवान अक्षरों ! तुम धन्य हो ! तुमने मेरे प्राणधन के होठों का स्पर्श पाया है ! स्पर्श पाया है उनकी मुख वायु का।मुझे बताओ तो कैसे हैं वे सुंदर अधर पल्लव? उनका स्पर्श कैसा सुकुमार है भला? कहो तो, किस तपस्या से, किस पुण्य बल से तुमने यह अचिन्त्य सौभाग्य पाया? ओ भाग्यवान वर्णों, तनिक प्रभु के होंठों की मधुरिमा का वर्णन तो करो तो सुनकर प्राण जुड़ायें।आहा, नहीं बोला जा रहा है न।सच बात है भैया, वे सोलह सहस्त्र एक सौ आठ महिषियाँ जानतीं हैं अथवा कि वह राजहंस सम धवल गात असुर पांचजन्य ही जानता है उनका स्वाद।महिषियाँ तो थकित मौन रह जातीं हैं, पर मुखर पांचजन्य अवश्य उस सुधा-मधुरिमा का जयघोष करता रहता है यदा-कदा।हम तो भैया तरसते ही रह गये।अब तुम जो आ गये हो वह स्पर्श पाकर तो तुम्हें छूकर थोड़ा स्वाद हम भी पा लें।है न इजाजत?’- वे हँसकर कहती और नेत्र बंद कर मुग्धा-सी धीरे-धीरे अपना ही नाम उच्चारण करने लगतीं।उनकी वह भावमग्न दशा देखकर योगी उसकी चरण-रज पर मस्तक रख देते।उनकी आँखों से निकले आँसुओं से वह स्थान भीग जाता। 
क्रमशः

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