mc132

मीरा चरित 
भाग- 132

संख्या की बहुलता के कारण सम्भव नहीं लगता था, अतः यह निश्चित हुआ कि सर्वप्रथम एक-एक दिन आठों पटरानियाँ भोजन का आयोजन करें, एक दिन महाराज उग्रसेन और कुछ दिन ऐसे ही प्रधान-प्रधान सामंतो के यहाँ। अंत में पाँच पाँच सौ महारानियाँ मिलकर एक-एक दिन भोजन का आयोजन करें।इस प्रकार थोड़े समय में ही सबको सुयोग प्राप्त हो जायेगा।निश्चय के अनुसार ही व्रजवासियों का भोजन और स्नेहाभिसिक्त स्वागत सत्कार हुआ। 
श्री किशोरी जू के शील, सदाचार, सरलता और सौन्दर्य पर महारानी वैदर्भी जी ऐसे मुग्ध हुईं, जैसे अपने ही प्राणों के साथ देह का लगाव होता है। वे बार-बार उन्हें आमंत्रित करतीं, अपने ही सुकुमार हाथों से रंधन कार्य करतीं और अतिशय प्रेम एवं अपार आत्मीयता पूर्वक अपने हाथों से जिमाती। कभी-कभी दोनों एक ही थाली में भोजन करतीं और प्रभु की बातें चर्चा करते हुए ऐसी घुल-मिल जातीं कि लगता जैसे दो सहोदरा बहिनें बहुत काल पश्चात मिली हों। भानुनन्दिनी अकेली नहीं पधारतीं थीं, उनके साथ दो-चार सखियाँ अवश्य ही होतीं। एक बार उनके साथ आप भी पधारी थीं। द्वारिकाधीश की पट्टमहादेवी साक्षात लक्ष्मीरुपा वैदर्भी के महल का असीम ऐशवर्य और अतुल वैभव देखकर एक-दो क्षण के लिए आपके मन में भी उस वैभावानंद की सुखानुभूति प्राप्त करनेऔर द्वारिकाधीश की महारानी बनने की स्फुरणा उभरी। थोड़ी ही देर में वह सब भूल कर आप श्री किशोरी जू के साथ वापिस व्रज-शिविर में लौट गयीं, किन्तु काल के अनंत विस्तीर्ण अंक में आपका वह संकल्प जड़ित हो गया।उसकी पूर्ति की एक झाँकी आप कुछ दिन पूर्व पा चुकी हैं। अब जो यत्किंचित शेष बाकी रहा, वह प्रसाद भी पाकर आप शीघ्र ही किशोरी जू की नित्य सेवा में पधार जायेंगी।’
‘क्या मुझे द्वारिका से मेवाड़ लौटना होगा? अब मैं इस देह को और नहीं रखना चाहती। इसके रहने से ही ये जंजाल उठ खड़े हो रहे हैं’- मीरा ने कहा।
‘नहीं अब विलम्ब नहीं। कुल पांच-सात दिन बस’-कांचना मुस्कुराई- ‘आप दिव्य द्वारिका के सच्चिदानन्द महल में पधार जायेंगी,किन्तु देह नहीं छूटेगी, केवल आपका स्वरूप ही परिवर्तित होगा। यही समाचार देने मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ। अब आज्ञा हो’- काञ्चना उठ खड़ी हुई। 
मीरा ने उठकर उसके दोनों हाथ थाम लिये- ‘महादेवी रूक्मिणी बहिन के चरणों में मेरी ओर से प्रणाम निवेदन करना। बड़ी कृपा की, जो तुम आ गयी काञ्चना।तुम्हारी बातें सुनकर ह्रदय को शीतलता मिली, जैसे जले घाव पर शीतल लेप लगा हो।सभी महारानियों को और प्रभु को मेरा प्रणाम निवेदन करना।’
प्रणाम करके काञ्चना पीठ फेरकर चल दी। कुछ दूर तक उसकी देह का प्रकाश और झिलमिलाते हुये पीत वस्त्र दिखलायी देते रहे।नुपुरों की हल्की ध्वनि सुनाई देती रही, फिर वह लोप हो गई। मीरा लौटकर अपने कक्ष में सो गई।

श्रीविग्रह में विलीनता.....

पाँच -छः दिन पश्चात भी जब मेवाड़ के राजपुरोहित जी को कोई अनुकूल उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने अनशन करने का निश्चय किया।सौजन्यवशात् राठौड़ों के पुरोहितजी भी उनके समीप बैठ गये।अनशन की बात सुनकर मीरा ने कई प्रकार से उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, किंतु वे उन्हें ले जाये बिना किसी तरह मान नहीं रहे थे। दो दिन और निकल गये। ब्राह्मणों को यूँ भूखे मरते देख वह व्याकुल हो उठीं।उन्होंने पुन: उनसे अनुनय की, किंतु उन्होंने रीते हाथ लौटने की अपेक्षा मरना अधिक श्रेयस्कर समझा।आखिरकार मीरा ने उन्हें आश्वासन दिया- ‘मैं प्रभु से पूछ लूँ। वे आज्ञा दे देंगें तो मैं आपके साथ चली चलूँगी।’
उस समय देवालयों में द्वारिकाधीश की मंगला आरती हो चुकी थी और पुजारी जी द्वार के पास खड़े थे। दर्शनार्थी दर्शन करते हुये आ जा रहे थे। राणावतों और मेड़तियों के साथ आये हुये सभी व्यक्तियों के साथ मीरा मंदिर के परिसर में पहुँचीं।देख पहचान करके कोई  कोई उन्हें प्रणाम करने लगे और जो नहीं जानते थे, वे दूसरों से उनका परिचय पूछने लगे।सब के साथ मीरा ने प्रभु को प्रणाम किया।पुजारी जी मीरा को पहचानते थे और यह भी जानते थे कि इन्हें लिवाने के लिए राजपूताने से मेवाड़ के बड़े-बड़े सामन्तों सहित राजपुरोहित आयें हैं। चरणामृत और तुलसी देते हुये उन्होंने पूछा - ‘शूँ थयूँ, जावा नूँ तय थई गयूँ शूँ? आपका बिना प्रभु नी द्वारिका सुनी जई जशे।’(क्या निश्चित किया? क्या जाने का निश्चय कर लिया है? आपके बिना प्रभु की द्वारिका सूनी हो जायेगी)
‘ऐ ने माटे ज हूँ रजा माँगवा आवी छूँ महाराज।हुकुम होय ते हूँ प्रभु थी रजा माँगी लऊँ’(हाँ जी महाराज, वही निश्चित नहीं कर पा रही।अगर आप आज्ञा दें तो भीतर जाकर प्रभु से ही पूछ लूँ )
‘हाँ हाँ पधारो बा।आपने माटे कोण न पाड़े छे (हाँ हाँ ! पधारो बा ! आपके लिए मन्दिर के भीतर जाने में कोई भी बाधा नहीं)-
पुजारी जी की बात सुनकर मीरा मन्दिर के गर्भगृह के सम्मुख गईं।उन्होंने प्रणाम किया और इकतारा हाथ में ले वे गाने लगीं- 

साजन सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजे।
तुम बिन मेरे और न कोई कृपा रावरी कीजे।
दिवस न भूख राण नहीं निंदरा यूँ तन पल पल छीजे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर मिल बिछुरन मत कीजे।

अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा मंगला के हाथ में थमाया और गाती हुईं धीमें पदों से मंदिर के गर्भगृह की ओर बढ़ी।देहरी लाँघकर वे ठाकुर जी के सामने जा खड़ी हुईं।वे एकटक द्वारिकाधीश का मुख देखते हुये बार-बार गा रही थीं- 
‘मिल बिछुरन मत कीजे’

एकाएक उनकी दृष्टि के सामने से मंदिर मूर्ति और पीछे खड़े लोग विलुप्त हो गये।सामने वर के वेश में द्वारिकाधीश खड़े मुस्कुरा रहे थे।मीरा चरण स्पर्श के लिए ज्यों ही झुकने लगी कि दुष्टों का नाश, भक्तों को दुलार, शरणागतों को अभय और ब्रह्माण्ड का पालन करने वाली भुजाओं ने आर्त, विह्वल और त्राण माँगती हुई अपनी प्रिया को बन्धन में समेट लिया।
‘मिल बिछुरन..... म.....त....’ चौथी पंक्ति उनके मुख से आधी ही निकल पाई थी कि क्षण मात्र के लिए एक अभूतपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ, मानों सूर्य-चन्द्र एक साथ अपने पूरे तेज के साथ उदित होकर अस्त हो गये हों।इस प्रकाश में प्रेम-दीवानी मीरा समा गईं। उसी समय मंदिर के सारे घंटे-घड़ियाल और शंख स्वयं जोर-जोर से एक साथ बज उठे।
क्रमशः

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