mc124

मीरा चरित 
भाग- 124

मीरा व्याकुल बिरहणी सुध बुध बिसरानी हो॥

एक दिन वह अचेत पड़ी थीं।मुखाकृति ऐसी डरावनी हो गई थी कि किसी प्रकार पहचान में नहीं आती थी। मुख से झाग और आँखों से पानी निकल रहा था।मीरा की तप्तकांचन वर्ण झुलसी कुमुदिनी सा और देह फूलकर पानी भरी मशक सी दिखाई देती थी। मुख से अस्पष्ट स्वर निकलता।उस दशा को किसी भी प्रकार प्रयत्न करके भी वे समझ नहीं पा रहीं थीं।सब मिल कर रोते हुए प्रार्थना कर रही थीं- ‘हे द्वारिका नाथ, म्हे तो जनम से अभागण हाँ।ऐसी स्वामिनी पाकर भी न तुम्हारी भक्ति कर पाई और न हमसे इनकी उचित सेवा ही बन पडी। इतने पर भी, हे जगन्नाथ ! किसी जन्म में हमसे भूल से भी कोई पुण्य बन गया हो तो कृपा कर हमारी स्वामिनी को दर्शन दो ....दर्शन दो।हमें भले जब तक धरती रहे, नरक मैं डाल देना, पर अब इनकी यह दशा देखी नहीं जाती।हम असहाय क्या करें?’- वे फूट-फूट कर रो पड़ीं।
उसी समय द्वार पर स्वर सुनाई दिया- ‘अलख’
‘हे भगवान! अब इस राजनगरी में कौन निरगुनिया आ गया?’- कहते हुए शंकर उसका स्वागत करने उठा।
‘तुम ठहरो, मैं जाती हूँ’-चमेली ने उठकर गई।उसने देखा- ‘यह तो आलौकिक साधु है।सिंगी सेली मुद्रा भगवा वस्त्र धारण किये, सोलह-सत्रह वर्ष का साँवला सिलौना किशोर’- चमेली ठगी सी कुछ क्षण देखती रही।फिर प्रणाम कर खोये खोये से स्वर में बोली- ‘पधारे भगवन, आसन ग्रहण करें। आज्ञा करें, क्या सेवा करूँ?’
‘देवी ! तुम्हारा मुख म्लान है।कोई विपत्ति हो तो कहो’- सन्यासी ने कहा।
‘आप प्रसाद ग्रहण करेगें कि अपने हाथ से बनाकर पायेगें, सो बतायें।हमारी विपत्ति असीम हैं और द्वारिकाधीश के अतिरिक्त उसे कोई नहीं मिटा सकता’- चमेली ने उदासीन स्वर में कहा। 
‘कहाँ है? कैसी है वह विपत्ति? तनिक देखूँ’- संन्यास उठ खड हुये।
‘आप बालक हैं महाराज, आपके बस का रोग नहीं है वह’- चम्पा के स्वर में हल्की झुँझलाहट थी।तभी मंगला बाहरी कक्ष में आई और सन्यासी को एकटक सी देखने लगी।
‘क्या ऐसा कोई नियम है कि सन्यासी को वृद्ध ही होना चाहिए अथवा यह कि ज्ञान बड़े-बूढ़ों की ही बपौती है?’
‘नहीं प्रभु ! इसका ऐसा आशय नहीं था’- मंगला एकदम से बोली- ‘वास्तव में हमारी स्वामिनी बहुत अस्वस्थ हैं और हम सब उनके जीवन से निराश है।मन व्यथित होने से किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही है।कोई अविनय अपराध हुआ हो तो दुखिया अबला जानकर क्षमा प्रदान करें और सेवा की आज्ञा प्रदान करके हम आशा हीनों को कृतार्थ करें।’
‘तुम्हारे दु:ख का कारण तुम्हारी स्वामिनी का रोग है।मैं केवल उन रूग्णा को देखना चाहता हूँ।जिस घर से मैं भिक्षा लूँ, उस घर के लोग दु:खी-व्यथित हों, यह मैं सह नहीं पाता।’
‘मेरी स्वामिनी को साधारण रोग नहीं है भगवन्, उन्हें भगवद विरह का रोग है, जिसे स्वयं जगदीश्वर ही शांत कर सकते हैं’- मंगला ने हाथ जोड़कर कहा।
‘एक बार देखना चाहता हूँ।यदि मेरी शक्ति की परिधि में हुआ.....’- यति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
 ‘पधारें प्रभु’- मंगला ने उन्हें भीतर आने का संकेत किया। 
योगी ने भीतर प्रवेश किया। मीरा को देख कर वह मुस्कुराया और सिर पर हाथ रख कुछ बड़बड़ाया।आश्चर्य से सबने देखा कि मीरा की फूली हुई देह धीरे-धीरे सामान्य होने लगी।उनका श्याम रंग स्वाभिकता की ओर बढ़ने लगा और उनकी बंद पलकों के नीचे थोड़ी हलचल हुई।जोगी ने दूसरे हाथ से झोली से वस्त्र निकालकर उनका मुख फेन पोंछा और होठों में वैसे ही बुदबुदाता रहा।दो तीन घड़ी पश्चात ही मीरा उठ कर बैठ गयीं।यद्यपि वे विभ्रांत दृष्टि से सबको देख रहीं थीं, सब पर होती हुई उनकी दृष्टि यति पर ठहर गई।जोगी ने सिर से हाथ हटाकर स्निग्ध स्वर में पूछा-‘क्या हो गया तुम्हें?
मीरा एकदम कह उठी-
          
प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे मने लागी कटारी प्रेमिनी रे।
जन जमुना माँ भरवा गया ताँ हती नागर माथे हेमनी, रे।
काचे ते तातणे हरिजी ए बाँधी जेम खेंचे तेम तेमनी, रे। 
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर शामली सूरत शुभ एमनी रे।

यति खिलखिला कर हँस पड़ा तो मीरा ने चौंक कर उसकी ओर देखा।यह...यह हँसी तो व्रज में कई बार देखी सुनी है। मीरा के मुख से अनायास ही निकला- ‘श्याम .... सुन्दर’
जोगी फिर हँसा- ‘नहीं रमता जोगी’
अब की मीरा भी हँस दी- ‘अन्य के लिये, मेरे तो श्याम....’
‘नहीं’- जोगी ने बाधा देते हुये कहा- ‘जैसा भेस, वैसी बात, किन्तु देवी, आपने पहचाना नहीं मुझे।केवल मेरी सूरत आपके स्वामी से मिलती है, मैं वह हूँ नहीं।’
मीरा ने आँखों में आँसू भरकर गाया-

मुखड़ानी माया लागी रे मोहन प्यारा।
मुखड़ु में जोयुँ सर्व जग थयूँ खारीँमन मारूँ रह्युँ न्यारीँ रे।
संसार नुँ सुख एवुँ झाँझवाना नीर जेवुँ तेने तुच्छ करी फरीये रे।
मीराबाई बलिहारी आशा मने एक तारी हवेहुँ तो बड़भागी रे।

‘वही माया सर्वश्रेष्ठ है देवी और सचमुच ही बड़भागी हैं आप’- जोगी बोला- ‘आपकी व्याकुलता ने प्रभु को व्यथित कर दिया हैं। वे आपसे मिलने को वैसे ही व्याकुल हैं, जैसे आप व्याकुल हो रही हैं। वे सर्वेश्वर, दयाधाम अपने जनों की पीड़ा सह नहीं पाते’- यति की आँखे भर आयीं।
‘आप... आप कौन हैं? मेरे उपकारी?’- मीरा ने चकित, दु:खित, प्रसन्न स्वर में पूछा। 
‘उनका निजी सेवक, प्रभु ने आपके लिए सन्देश पठाया है।’
‘क्या? क्या कहा मेरे स्वामी ने? क्या फरमाया है? मेरे लिए कोई आदेश है?'- वह रोने लगीं- 'क्या कहूँ भाई? मुझ अभागिन से उनकी आज्ञा का पालन पूरी तरह से नहीं हो सका।मैं उनका वियोग प्रसन्न मन से नहीं झेल सकी।मुझे कहो, क्या आदेश हैं प्रियतम का? वे यदि न आना चाहें, आने में कोई कष्ट हो, बाधा हो तो कभी न आयें।मैं ऐसे ही जीवन के दिन पूरे कर लूगीं।जीवन होता ही कितना है?’
‘आप पहले स्नानकर प्रसाद पा लें’- उसने पीछे खड़े हुए सेवक वर्ग की ओर देखा- ‘ये सब भी न जाने कब से उपसे हैं’
मीरा एकदम से उठने लगी तो दोनों ओर से केसर और मंगला ने थाम लिया।चमेली शीघ्रतापूर्वक रसोई में चली गयी और किशन यति की सेवा में लग गया। भोजन विश्राम के पश्चात मीरा ने यति के चरणों में प्रणाम किया- ‘देव ! आप जो भी हो, आपने मुझे सांत्वना प्रदान की है।
क्रमशः

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