mc 128

मीरा चरित 
भाग- 128

फव्वारे से ही चारों ओर ने भवनों में प्रवेश के लिए अनेक पथ बने हुये थे।वृक्ष पंक्तियाँ पार करके वे एक विशाल ड्योढ़ी द्वार में प्रविष्ट हुईं।द्वार पर भाला लिए दासियों ने उन्हें सिर झुकाया और हाथ से आदर पूर्वक प्रवेश के लिए संकेत किया।भीतर चौक में उपवन के मध्य पुष्करणी में कुमुदिनियाँ खिल रही थीं। आम्र की डालियों पर कहीं कहीं झूले बँधे थे।वृक्षों पर बैठे मयूर, पपीहा और दूसरे कई पक्षी कभी कभार बोल पड़ते थे।मीरा को लगा कि उनके आकार और ध्वनि मात्र लौकिक पक्षियों जलचरों पुष्पों वृक्षों लताओं वस्तुओं और मनुष्यों से मिलती है, अन्यथा सबकुछ अलौकिक है।सब कुछ रत्नमय होते हुये भी सजीव कोमलता सुन्दरता सुकुमारता की मानों सीमा हो, प्रत्येक ध्वनि मानों अलौकिक संगीत की तरंग हो और ऐसी सहस्त्रों सहस्त्रों तरंगें वहाँ सदा उठती रहतीं हैं। ड्योढ़ी के भीतर महलों में चारों ओर दासियों की चहल पहल थी। मीरा ने हिन्दुआ सूर्य का वैभव देखा था और देखी थी उनकी रानियों की सुन्दरता किंतु यहाँ के ऐश्वर्य की नन्हीं कणिका की भी समता उनका समस्त राज्य नहीं कर पाता।एक साधारण दासी भी उन महारानियों से अधिक ऐश्वर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी थी।वहाँ की वायु संगीतमय थी, वहाँ की पुष्करिणियों की तरंगें संगीतमय थीं।सब प्रकार की गति ललितमय हो जैसे।मन में आनन्द की लहरें उठतीं थीं।
सीढ़ियाँ चढ़कर अनेक कक्ष-दालान पारकर दोनों एक सजे हुये कक्ष में जा पहुँचीं।ऊँचे रत्नजटित स्वर्ण सिंहासन पर सौन्दर्य, ऐश्वर्य और सौकुमार्य की साम्राज्ञी विराजमान थीं। दो दासियाँ स्वर्ण दण्ड के चवँर डुला रहीं थीं और एक हाथ में जरी मुक्ता गुम्फित नीले रंग का व्यजँन दोलायमान था।
शोभा ने आकर पादपीठ से नीचे सिर रख प्रणाम किया। मीरा जैसे ही प्रणाम के लिए झुकी, महादेवी वैदर्भी ने एकदम झुककर उसको ह्रदय से लगा लिया- ‘आ गई तुम’- उन्होंने मीरा को अपने समीप बिठाना चाहा, पर मीरा पादपीठ पर ही बैठ गई देवी के चरणों को गोदमें लेकर। 
‘सभी बहिनें तुमसे मिलना चाह रही हैं। स्वामी यदा-कदा तुम्हारी स्मृति में नयन भर लातें हैं। कठिन कठोर मर्यादाएँ बड़ी दु:खदायी होती हैं, बहिन ! अतः मुझे ही सबकी रूचि जानकर मध्यम मार्ग शोधना पड़ा।’- देवी ने मीरा का चिबुक स्पर्श कर दुलार पूर्वक कहा- ‘पहचानती हो मुझे?’-  ऐसा कहकर उन्होंने हँसते हुये मीरा का हाथ पकड़ा-‘आओ इधर सुखपूर्वक बैठें’- और कक्ष में बिछे श्वेत रंग के रेशमी गद्दे पर मसनद के सहारे विराजित होती हुई बोलीं- ‘मैं तुम्हारी सबसे बड़ी बहिन वैदर्भी हूँ।’
दासियाँ मधुर पेय लेकर उपस्थित हुईं। देवी रूक्मिणी के पश्चात उनकी आज्ञा से एक पात्र मीरा ने भी उठा लिया और धीरे-धीरे पीने लगीं। किसी भी प्रकार वह समझ नहीं पाई कि वह पेय किस फल का रस अथवा किन औषधियों का मिश्रण है। खाली पात्र लौटाते हुये उसने आश्चर्य से देखा कि उसके हाथों की झुर्रियाँ समाप्त होकर, षोडश वर्षीया किशोरी के हाथों के समान सुन्दर और सुकुमार हो गये हैं।

उसी समय सम्मुख द्वार से राजमहिषियों ने प्रवेश किया। देवी रूक्मिणी और मीरा उनके स्वागत में उठ खड़ी हुईं।देवी ने दो पद आगे बढ़कर सबका स्वागत करते हुये कहा- ‘पधारो बहिनों, अपनी इस छोटी बहिन से मिलिये।’ 
आनेवाली महारानियों ने महादेवी के चरण स्पर्श किए और उन्हें अंकमाल दी।मीरा ने भी भूमि पर सिर रखकर उनका एक साथ प्रणाम किया। सबके आसन ग्रहण करने के पश्चात देवी उनका परिचय कराने लगीं- ‘यह मेरी छोटी बहिन सत्यभामा, यह.....।’
‘अब बस सरकार, बाकी सबसे परिचय कराने का अधिकार मुझे मिले ‘- देवी सत्यभामा ने हँसते हुये कहा- ‘यों भी आप हमारी ज्येष्ठा हो।’
‘यह है देवी जाम्बवती, मेरी बड़ी बहिन’- हरित परिधान धारण किए संकोचशीला देवी जाम्बवती ने मीरा का मुस्करा कर चिबुक स्पर्श किया। 
‘यह देवी भद्रा’- सत्यभामा ने पीत परिधान धारण किए भद्रा की ओर संकेत किया।उन्होंने हँसकर कहा- ‘तुम्हें देखने की लालसा पूरी हुई’
‘यह देवी मित्रविन्दा’- नारंगी परिधान धारण किये बैठी मित्रविन्दा जी ने मीरा के हाथ पर हाथ रख कर कहा- ‘तुम सी बहिन पाकर प्रसन्नता हुई’
‘यह देवी सत्या’- देवी सत्या ने हँसकर उनके गाल थपथपाये।
‘बहिन’- देवी सत्यभामा बोलीं- ‘इस पर दया करो।आपकी देखादेखी सभी बहिनें ऐसा दुलार दिखाने लगीं तो......’- उन्होंने वाक्य अधूरा छोड़ उनकी ओर देखा।उनकी बात सुनकर सब हँस पड़ीं मानों बहुत सी चाँदी की नन्हीं घंटियाँ एक साथ टनटनाईं हों।
‘यह देवी लक्ष्मणा’- नील परिधान धारण किये बैठी लक्ष्मणा ने मीरा के गाल पर चुम्बन दे हृदय से लगा लिया।सत्यभामा जी ‘आँ हाँ’ कर उठीं।
‘यह रविनन्दिनी देवी कालिन्दी’- उन पाटुलारूण परिधान श्यामा ने मुस्करा कर उनकी ओर देखा।
‘ये देवी रोहिणी और इनकी हमारी बहिनें सोलह सहस्त्र एक सौ।’
मीरा ने सबको एकसाथ हाथ जोड़-कर और मस्तक धरती पर रखा और उन्होंने हाथ उठाकर आशिर्वाद दिया।
‘सरकार, हमारी बहिन इस तरह निराभरण और श्ंगाररहित रहे।लगता है मानों हमें वैराग्य का उपदेश करने कोई वैष्णवी आई है।’- देवी लक्ष्मणा ने हँसकर सबकी ओर देखा।सबने सिर हिला कर अनुमोदन किया। 
‘इसे पृथक महल में भेजकर श्रृंगार धारण कराने का विचार किया है मैंनें’- देवी रूक्मिणी ने कहा। 
‘यदि हम देख लें श्रृंगारयुक्ता तो.... ?’- देवी सत्यभामा ने कहा- ‘सैरन्ध्रियों को आज्ञा दें कि एक कस्तूरी बिंदु भी लगा दें।फिर तो कोई दोष न होगा?’- उनकी बात सुनकर सभी मुस्करा दीं और मीरा ने संकोचपूर्वक सिर झुका लिया।
‘तुम बोलती क्यों नहीं बहिन, तनिक अपने सुंदर मुख से कुछ बात करो कि कि सुनकर जी जुड़ायें’- देवी मित्रविन्दा ने कहा- ‘तुम्हारा नाम क्या है?’
‘जी क्या निवेदन करूँ? यह मीरा आपकी अनुगता दासी है।इसे सेवा प्रदान कर कृतार्थ करें।’
‘और हमारे दुलार से, तुम्हें कृतार्थता का बोध नहीं हुआ बहिन?’-सत्यभामा जी हँसी। 
मीरा ने अचकचाकर पलकें उठाईं- ‘सरकार, इस कृपा अनुग्रह से दासी धन्य-कृतार्थ हुई है।वह तो मैनें अभिलाषा निवेदन की है।’
‘उठो बहिन, सैरन्ध्रियाँ श्रृंगार सामग्री लेकर प्रस्तुत हैं।तुम्हारी सेवा वाली अभिलाषा भी मैं थोड़ी देर में पूर्ण किये देतीं हूँ।’
चारों ओर दर्पणों और मणि प्रदीपों से जगमगाते कक्ष में ले जाकर दासियों ने मीरा को सुगन्धित फेनिल जल से स्नान कराया। अगुरू धूप से केश सुखाये।अमूल्य दिव्य वस्त्र अलंकार धारण कराये और केश प्रसाधन किया।मीरा ने देखा उसकी वह जरा जर्जर देह किशोरी रूप में परिवर्तित हो गई है।
क्रमशः

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