mc 118

मीरा चरित
भाग- 118

राजमहल में आकर भी किसी अन्य महल में न जाकर वह उन्हीं के साथ आ गई तो मिथुला ने पूछा- ‘तू किस महल की है?’
उसने हँसकर उत्तर दिया- ‘इसी महल की हूँ मैं तो’
‘तेरी धणियाणी कौन है?’
उसने मीरा के कक्ष की ओर अँगुली उठा दी।
‘किसकी बेटी है तू?’
‘क्या नाम है?’
‘कहाँ से आई है?’
‘किस जाति की है?’
‘तेरे माँ बापकहाँहैं?’
‘तुझे कौन लाया यहाँ?’
‘कौन गाँवकी है?’
प्रश्नों से घबराकर वह अपनी बड़ी बड़ी हिरनी जैसी आँखों से सबको देखने लगी।उसके सुंदर नेत्रों में जल भर आया हुआ देखकर गंगा ने सबको डाँटा- ‘ऐ छोरियों इसे तंग मत करो।मैं बाईसा हुकुम के पास ले जाती हूँ।’

मीरा अपने कक्ष में गिरधर गोपाल के वस्त्र परिवर्तित करते हुये उनसे बातें कर रही थी- ‘कैसा लगा तुम्हें? झूलनें में, गानेमें मजा आयान? श्याम जीजा क्याकहरहीं थीं कि छोटी होकर भी एक तू ही बींद वाली हो गई है।सच मुझे बड़ा अच्छा लगा।पता नहीं, जीजा हुकुम क्यों छिपा गईं, वरना मैनें तो सुना है कि उनकी सगाई मदारिया के साँगाजी से हो गई है।क्या बींदकी बात छिपानी चाहिए? तुम्हीं कहो भला किते दिन छिपेगी? ब्याह होगा तो सब जान जायेगें।शायद ऐसा होकि जीजा हुकुम को लाज आ गई हो।यही बात है। ये रनिवास की सब बहुयें बींद के नाम पर छुई-मुई हो जातीं हैं।पतानहीं, मुझे क्यों तुमसे लाज नहीं आती।शायद विवाह के बाद ही आना चाहती हो वो।फिर जीजा हुकुम को....? अरे चूल्हे में जाये लाज, न आये तो न आये।मैनें कौन सी चोरी की है।फिर मेरा बींद तो संसार का मालिक है, और किसी का ऐसा? कभी हो ही नहीं सकता.... हो ही .... नहीं सकता।’
‘बाईसा हुकुम, देखिये यह न किसकी लड़की हमारी टोली में आ गई है। पूछने पर कह देती है कि मैं तो तुम्हारी बाईसा हुकुम की दासी हूँ।’
‘इसे यहाँ छोड़ कर तू जा।बाबोसा से अर्ज कर कि कोई लड़की हमारे साथ आ गई है।इसके माता पिता घबरा रहे होगें।’
गंगा के जाने के बाद मीरा ने उसकी ओर देखा।वे उसका रूप देखकर चकित रह हई।दूध में केसर घोल दी गई हो, ऐसा सुंदर स्वच्छ रंग।बड़ी बड़ी सुंदर कटारी के आकार की आँखें, भोला मुख, काले हल्के से घुँघराले और लम्बे केश, हाथों में हाथी दाँत की एक एक चूड़ी, जिन पर छोटे घुँघरूओं की झुमकियाँ टकीं थीं।पैरों में चाँदी के मुखर नुपुर।लगता था कि किसी खाते पीते भद्र परिवार की कन्या है।
‘आ बैठ’- मीरा ने उसे अपने सम्मुख बैठने का संकेत किया।वह ठाकुरजी को प्रणाम करके बैठ गई।उसके प्रणाम करने से मीरा प्रसन्न हुई, पूछा- ‘तुम्हारे घर भी ठाकुर जी हैं?’
उसने स्वीकृति में सिर हिलाया।
‘क्या नाम है तेरा?’
‘चम्पा’- उसका मधुर स्वर सुनकर मीरा चकित प्रसन्न हुई- ‘घर कहाँ है?’
कुछ क्षण चुप रह कर उसने कहा- ‘मालूम नहीं’
‘माता पिता के नाम जानती हो?’
उसने अस्वीकृति में सिर हिलाया।
‘कोई बात नहीं।घबराना नहीं, बाबोसा महाराज एक दो दिन में तुम्हारे घर बार का पता लगाकर माता पिता के पास भिजवा देगें।भोजन कर लिया?’
‘मैं तो आपके पास ही रहूँगीं।आप जो काम बतायेगां, वही करूँगीं’- चम्पा ने कहा।
‘घर नहीं जाओगी’
‘नही’
‘क्यों?’
‘मुझे आप अच्छी लगती हो और आपके ठाकर जी भी’
‘ठाकुरजी तो तुम्हारे घर पर भी हैं’- मीरा ने हँसकर कहा।
‘पर वहाँ आप तो नहीं, आप चलें तो मैं भी चलूँगी।’
‘तुम्हारे माता पिता आ जायें तो उनसे मैं तुम्हें माँग लूँगी।ठीक है। तुम्हारी जाति क्या है?’
‘मैं गूजरी हूँ’
‘यहतो बहुत अच्छा।गूजरी आई है तो गूजर भी आयेगा’- वे प्रसन्न हो उठीं।

तीन दिन तक मेड़ते और आस पासके गाँवों में डोंडी पिटती रही कि पाँच वर्ष की चम्पा नाम की गूजर कन्या तीज के दिन बड़े बाग से लड़कियों के साथ राजमहल में आई है।वह जिसकी हो आकर ले जाये किंतु कोई नहीं।इस प्रकार चम्पा दासियों में शामिल हो गई।धीरे धीरे अपने गुणों के कारण वह मीरा की अंतरंग सखी भी हो गई।कौन सा काम था जो उसे नहीं आता था? कभी कभी कोई उससे ईर्ष्या करता तो न जाने कैसे उसे ज्ञात हो जाता और वह उसे अपनी अच्छी सखी बना लेती।उससे कभी किसी को शिकायत हुई हो, स्मरण नहीं आता।कभी कभी एकांत में उसके मेत्रों से झरती बरखा देख कर अन्य दासियाँ सोचतींकि इसे कोई छिपा हुआ दु:ख है, किंतु हजार पूछने पर भी वह हँसकर टाल देती।
एक बार वसंत ऋतु में श्याम कुँज की बगिया में कदम्ब को बाँहों में भरकर वह सिसक उठी थी- ‘मैं अपने प्रियतम के काम से आई, किंतु तू क्यों आया भाई? तुमको किसने निर्वासन दिया?’
एक बार अँधेरी रात में छत के फर्श पर लोट लोट करके रोते हुये दबे स्वर में- हा श्याम सुंदर, हा किशोरी जू, अब कब तुम्हारे पावन पाद पद्मों के दर्शन होगें’- पुकार रही थी।
रामसखी ने जाकर मीरा को बता दिया।मीरा ने सबकुछ स्वयं देखा सुना और उसे भी अपने ही रोग की रोगिणी पाकर समीप जाकर हृदय से लगा लिया।दोनों बहुत देर तक एक दूसरे के हृदय से लगी रोती रहीं।मीरा उसे अपने साथ लेकर अपने कक्ष में आई।दूसरे ही दिन उसे भिन्न कक्ष दे दिया गया।अपनी बारी आने पर वह मीरा के पास सोती, अन्यथा अपने कक्ष में।अन्य दासियों के लिए केवल दो बड़े बड़े कक्ष थे, जिनमें एक एक प्रौढ़ा दासी सोती थी।
मीरा के विवाह से पूर्व जब चित्तौड़ से दासियों के नाम वय विवरण और सँख्या माँगी गयी तो चम्पा ने अपना नाम देने से स्पष्ट इन्कार कर दिया क्योंकि उसी विवरण के अनुसार उसी सँख्या में दासियों के लिए वर भी वहाँ से आते और मीरा के विवाह के दूसरे दिन उन सबका विवाह होना था।चम्पा ने मीरासे, फिर उनकी माँ झालीजी से और तत्पशचात स्वयं उपस्थित होकर किशन के द्वारा वीरमदेवजी से निवेदन किया कि वह विवाह नहीं करेगी।यदि जोर दिया गया तो मेड़ता छोड़ कर चली जायेगी।मीरा ने भी जयमल के द्वारा कहलवाया कि चम्पा के विवाह का प्रबंध नहीं किया जाये।इस प्रकार दासियों के समूह में केवल दो अविवाहित दासियाँ चित्तौड़ गईं, चम्पा और मंगला।जब से चम्पा की साथ छूटा है, चमेली को मंगला की बेहद याद आती है।मंगला को मीरा श्याम कुँवर बाईसा की देख रेख करने छोड़ आई थी।
क्रमशः

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