mc126
मीरा चरित
भाग- 126
एक दिन योगी ने जाने का निश्चय कर अपना झोली- डंडा उठाया। मीरा उन्हें रोकते हुए व्याकुल हो उठी- 'आपके पधारने से मुझे बहुत शान्ति मिली योगीराज। अब आप भी जाने को कहते हैं, तब प्राणों को किसके सहारे शीतलता दे पाऊँगी।आप ना जायें प्रभु ! न जायें।’- एक क्षण मानो विद्युत दमकी हो, ऐसे योगी के स्थान पर द्वारिकाधीश हँसते खड़े दिखलाई दिये, दूसरे ही क्षण अलोप।मीरा व्याकुल हो उठी-
जोगी मत जा, मत जा, मत जा, जोगी।
पाँय परु मैं तेरे, मत जा जोगी॥
प्रेम भक्ति को पेंडों ही न्यारो, हमकूँ गैल बता जा।
अगर चन्दन की चिता बणाऊँ, अपने हाथ जला जा॥
जल बल होय भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा॥
मत जा, मत जा, मत जा, जोगी॥
दिव्य द्वारिका- दिव्य दर्शन.....
मीरा रात दिन व्याकुल होकर सोचती- ‘कितने ही दिन प्रभु के साथ रही, पर मैं अभागिन पहचान नहीं पाई।उन्हें योगी समझकर दूर-दूर ही रही।कभी ठीक से उनके चरणों में सिर तक नहीं रखा। हा, कैसा अभाग्य मेरा।कहतें है कि सच्चा प्रेम अंधेरी रात में सौ पर्दों के पीछे भी अपने प्रेमास्पद को पहचान लेता है।मुझ अभागिन में प्रेम करना आता ही कहाँ है? प्रेम होता तो वे बँध न जाते? योगी होने का नाटक क्यों करते? क्या करूँ, उन्हें कैसे पाऊँ?’-
जोगिया से प्रीत कियाँ दुख होई।
प्रीत कियाँ सुख न मोरी सजनी जोगी मीत न होई।
रात दिवस कल नहिं परत है तुम मिलियाँ बिन मोई॥
ऐसी सूरत याँ जग माँही फेरि न देखि सोई।
मीरा रे प्रभु कब रे मिलोगे मिलियाँ आनन्द होई॥
पूर्णिमा की रात में उमड़ते हुये समुद्र के ज्वार को देख कर मीरा उससे बातें करने लगीं- ‘हे सागर ! तेरी दशा भी मुझ सी है।तू कितना भी उमड़े, उत्ताल लहरें ले, किन्तु चन्द्र तक की दूरी पार करना तेरे बस की बात नहीं है।ऐसे ही मेरे भी प्राणनाथ मुझसे दूर जा बसे हैं। मैं गुणहीन उन्हें कैसे रिझाऊँ? किसी प्रकार समझ नहीं पाती।मेरा हृदय भी तेरी तरह उमढ़ा आता है।न जाने कितनी दूर है वह धाम, जहाँ मेरे प्रभु विराजते हैं, पर भैया आशा जो नहीं टूटती।इसी कारण प्रयत्न भी नहीं छूटता।हम दोनों समान रोग के रोगी हैं।कहो तो क्या उपाय करें प्रिय मिलन के लिये?’
कभी टिटहरी, हंस, सारस या पपीहे का स्वर सुनकर उनसे बतियाने लगतीं।मीरा गम्भीर रात्रि में एकटक सागर की तरफ देखती रहतीं- ‘हे महाभाग रत्नाकर ! तुम स्वामी को कितने प्रिय हो? ससुराल होने पर भी वह स्थाई रूप से तुम्हारे यहाँ ही रहना पसन्द करते हैं। इतना ही मानों पर्याप्त न हो, द्वारिका भी उन्होंने तुम्हारे ही बीच बसाई। अपने प्रभु के प्रति तुम्हारा प्रेम अकथनीय है।मिले होने पर भी तुम उनके मधुर नामों का गुणगान करते रहते हो।कहो तो उनके नाम की मधुरिमा कैसी है भला? एक बार भीतर तक उतरने पर वह छूटती नहीं।अहा, इन्हीं नामों का कीर्तन करते-करते, उनके श्यामल स्वरूप का दर्शन करते-करते तुम स्वयं उसी वर्ण के हो गये हो।तुम धन्य हो, महाभाग्यवान सागर, तुम धन्य हो।मैं अभागिनी अपने प्रियतम के दर्शन से भी वंचित हूँ, व्याकुल हूँ।तनिक मुझ दुखियारी का संदेश मेरे स्वामी तक पहुँचाने की कृपा करो?
उनसे कहना एक सुन्दर सुकुमार किशोर, जो अपने को आनकदुंदुभि का पुत्र कहता है, एक दिन जरीदार केसरिया वस्त्रों से सुशोभित अपने श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मेरे पिता के द्वार पर आया था। मण्डप में बैठकर मेरे पिता ने उसके हाथ में मेरा कन्यादान किया। जब एकान्त कक्ष में उन्होंने मेरा घूँघट उठाया, बरबस मेरी दृष्टि ऊपर उठ गई।वह रूप, वह छवि कैसे वर्णन करूँ? जैसे तुम अगाद्य हो उदधि, किंतु नहीं भाई, तुम्हारी कोई तो सीमा होगी, कहीं तो थाह होगी, उनके रूप तो क्षण प्रति क्षण नवीन.... प्रति क्षण नवीन, सौंदर्य की लहरियाँ उठतीं हों, प्रत्येक लहर वैसी ही सीमाहीन सौंदर्य की स्वामिनी और वैसी ही अगाद्य।इसके साथ वैसा ही सीमाहीन माधुर्य और सुकुमारता।अब तुम्हीं कहो मैं.... मैं कैसे उसका वर्णन करूँ? वाणी की गति मति थककर लोप हो जाती है....। हाँ मैं अभी क्या कह रही थी? याद आया, मैं अभी उनकी सौंदर्य सुषमा अघाकर पान कर भी नहीं पाई थी कि लज्जा ने पलकें झुका दीं।सुनो महार्णव, क्या तुमने कभी उनकी वे रतनारी अखियाँ देखी हैं? कभी देखी है उनकी वह अणियारी चितवन? क्या कहा? उसी चितवन की चोट से घायल हो कर रात्रि पर्यन्त हाहाकार करते हो? आह,सत्य कहते हो भैया, उनकी चितवन से अधिक क्रूर बधिक कभी सुना जाना नहीं।अरे, बधिक तो एक बार गले पर छुरी फेरकर सब समाप्त कर हट जाता है किंतु यह तो कभी हटता ही नहीं।इनकी छुरी कभी कंठ से उठती ही नहीं, चलती ही रहती है और फिर छुरी भी कैसी? सीधी नहीं उल्टी, धार ऊपकी ओर, छटपटाते हूये युग बीत जाये, पर न बलि-पशु मरे और न छुरी रूके।कहो तो यह कैसा व्यापार है?
तो.... तो.... मैं अभी उस रूप समुद्र की तनिक सी झाँकी ही कर पाई थी कि मुझे अथाह वियोग सागर में ढकेल, मेरे प्रियतम, मेरे हथलेवे का चिन्ह, मेरी माँग का सिन्दूर, मेरे भाल का कुमकुम बिंदु, मेरे घूँघट की ओट न जाने कहाँ अन्तर्हित हो गयी। हे रत्नाकर, उनसे कहना, मैं तबसे उस चितचोर की राह देख रही हूँ। मेरा वह किशोर, सुन्दर शरीर वार्धक्य के प्रहार से जर्जर हो गया है, मेरे सुंदर जानु चुम्बित कृष्ण केश सन जैसे सफेद हो गये, किन्तु आज भी मेरा मन भोली किशोरी की भाँति अपने पति से मिलने की आशा संजोये है। तुम उनसे कहना कि यह विषम विरह तो कभी का इस देह को जला कर राख कर देता, किन्तु दर्शन की आशा रूपी बरखा नेत्रों से झरकर उस विरह अग्नि को शीतल कर देती है। तुम उन द्वारिकाधीश मयूर मुकुटी से पूछना, तुमने कहीं उस निष्ठुर पुरूष को देखा है? उसकी विरहणी धान नहीं खाती, उसकी देह जर्जर, आँखें पथ जोहते-जोहते धुँधला गईं हैं।उसकी आशा दिन दिन थकती जा रही है सागर।तुम उनसे कहना पर अब वियोग और नहीं सहा जाता।’- मूर्छित हो जातीं सागर से बात करते करते।
क्रमशः
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