mc 123

मीरा चरित 
भाग- 123

जिनणा पिया परदेस बसत हैलिख लिख भेजे पाती।
म्हाँरा पिया म्हाँरे हिवड़े रहत है, कठी न आती जाती।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर, मग जोवाँ दिन राती॥

‘सार की बात यही है कि बिना सच्चे वैराग्य के घर का त्याग न करें’
‘धन्य, धन्य मातः ‘- लोग बोल उठे।
‘क्षमा करें माँ, आपका यह सुत महा अज्ञानी है।श्रीचरण ने फरमाया कि भजन करो। भजन का अर्थ सम्भवतः जप है।जप में मन लगता नहीं माँ’- उसने दु:खी स्वर में कहा- ‘हाथ माला की मणियाँ सरकाता है, जीभ नाम लेती रहती है, किन्तु मन मानों धरा-गगन के समस्त कार्यों का ठेका लेकर उड़ता फिरता है। ऐसे में माँ, भजन से, जप से क्या लाभ होगा? जी खिन्न हो जाता है।’
‘भजन का अर्थ है कैसे भी, जैसे हो, मन-वचन-काया से भगवत्सम्बन्धी कार्य हो। हमें उसका ध्यान वैसे ही बना रहे, जैसे घर का कार्य करते हुये, माँ का ध्यान पालने में सोये हुये बालक की ओर रहता है और सबकी सेवा कार्य करते हुये भी पत्नी के मन में पति का ध्यान रहता है। पत्नी कभी मुख से पति का नाम नहीं लेती, किन्तु वह नाम उसके मन प्राणों से ऐसा जुड़ा रहता है कि वह स्वयं चाहे तो भी न हटा पायेगी।अब रही मन लगने की बात। मन हमारा सूक्ष्म देह ही है।हमारे स्थूल देह द्वारा जो क्रियायें होगीं, वही सूक्ष्म पर अंकित होकर संस्कार बनते हैं।जो क्रिया या कर्म बार बार होगा, उसका संस्कार ही दृढ़ होगा। बिना मन और बुद्धि के कोई कार्य बार-बार किया जाये तो फिर मन और बुद्धि उसमें प्रवृत्त हो जाते हैं। जैसे खारा कसैला या कड़वा भोजन पहले अरूचिकर लगता है, पर नित्य खाने पर वैसी ही रूचि बन जाती है।जप किया ही इसलिए जाता है कि मन लगे, मन एकाग्र हो। पहले मन लगे और फिर जप हो, यह असंभव नहीं तो साधारण जन के लिये कठिन अवश्य है। यह तो ऐसा है कि जैसे पहले तैरना सीख लें फिर पानी में उतरें।जो मन्त्र आप जपेंगें, वही आपके लिए, जो भी आवश्यक है, वह सब कर देगा।पहले बालक को उसकी इच्छा के विरूद्ध पाठशाला में बिठा दिया जाता है, फिर धीरे धीरे वह उसका स्वभाव बन जाता है और वह समझने लगता है कि ज्ञान कैसी अमूल्य निधि है।तब वह स्वयं आग्रहपूर्वक ज्ञानार्जन के लिए प्रयत्न करने लगता है।मन न लगने की यह जो खिन्नता आपको होती है, वही खिन्नता आपका मन लगने की भूमिका बनेगी। बस आप जप आरम्भ कीजिए। आरम्भ आपके हाथ में है, वही कीजिए और ईमानदारी से निभाईये।’

विरह की दारूण दशा.....

सागर की उत्ताल तरंगे उसे विभोर कर देतीं, किन्तु प्रिय-विरह की दारूण व्यथा उन्हें चैन न लेने देती। मीरा को वृन्दावन की उन रात्रियों का स्मरण हो आता, जब वह ललिता के संग गोवर्धन गिरि के कुञ्जों, यमुना पुलिन और वृंदा वीथियों में श्री श्यामसुन्दर की लीला दर्शन करती हुईं घूमती थीं।लगता था, बस गन्तव्य आ गया। अब कहीं नहीं जाना, कुछ देखना, कुछ नहीं कहना किन्तु धणी का धणी कौन है? अब ये द्वारिकाधीश कहाँ परदेस जा बसे कि प्राणों की पुकार सुनते नहीं-

माई म्हारी हरि जी हू न पूछी बात।
पिण्ड माँ सूँ प्राण पापी निकस क्यूँ न जात।
पट न खोल्या, मख न बोल्या साँझ भई परभात।
अबोलणा जुग बीतण लागा काँई री कुसलात।
लेई कटारी कंठ चीरूँ करूँगी अपघात।
मीरा दासी श्याम राती ललक जीवणा जात।

अब उनके बिना कैसे कहा जाये।उनका पल पल युग के समान बीतता।मीरा की व्याकुलता देखकर दासियाँ घबरा जातीं।वे किसी प्रकार चेत करातीं तो लगता जैसे मछल जल से बाहर निकाल दी गई हो-

म्हाँने क्यूँ तरसावो।
थारे कारण सब कुछ छाँड्याँ अब थे क्यूँ बिसरावो।
विरह व्यथा लागी उर अंतर थे आशा न बुझावो।
अब छाँड्याँ न बणे मुरारी शरण गह्या बलि जाँवा।
मीरा जनम जनम री दासी भगताँ प्रेम निभावाँ।

उन्हें शांत करने का एक ही उपाय था, सत्संग। संतों को देखकर उनका सारा दु:ख दर्द दूर हो जाता था। वे स्वयं कहतीं-

श्याम बिन दु:ख पावाँ सजनी कुण म्हाँने धीर बँधावे।
यो संसार कुबुध को भाँडो साध संगत न भावै।
साध जणा री निंदा ठाणे करम री कुगत पावै।
साध संगत में भूल न जावे मूरख जनम गमावे।
मीरा तो प्रभु थाँरी सरणाँ जीव परम पद पावे॥

कभी-कभी दासियों कोलगता मानों देह में प्राण ही नहीं रहे। दासियाँ रो उठतीं, किन्तु मंगला धीर धरकर कीर्तन करने को कहती। उनके संकीर्तन से वह सचेत हो जातीं, पर उसकी पीड़ा देख वे पछताने लगती कि जब तक वह अचेत थीं, पीड़ा भी शांत थी। शायद मूर्छा में प्रभु दर्शन का सुख पा रही हों।सचेत होने पर वे कभी नील वर्ण सागर को अपना प्रियतम जानकर मिलने के लिए दौड़ पड़तीं और कभी नील की ओर दोनों हाथ उठाकर उछल पड़तीं। दिन तो जैसे तैसे साधु-संग, भजन-कीर्तन में निकल जाता, किन्तु रात तो बैरिन ही होकर आती। मंगला बारम्बार समझाती- ‘बाईसा हुकम ! द्वारिकाधीश पधारते ही होंगे ! वे आपसे कैसे दूर रह सकते हैं? आप धीरज धारण करें।’
‘मेरी यह देह उनके स्पर्श के बिना जलती है मंगला, मिलकर बिछुड़ना उनका खेल है, पर मैं क्या करूँ?  चाहती हूँ कि वह जैसे, जिस हाल मैं रखें, उनकी प्रसन्नता में प्रसन्न रहूँ, किन्तु ....यह देह....देह ही तो बाधा है।पापी प्राण इतना कष्ट पाते हैं, पर देह का मोह छोड़कर निकलते नहीं’-

राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ॥ 
तड़फत तड़फत बहु दिन बीते, पड़ी बिरह की फाँसड़ियाँ।
अब तो बेग दया कर प्यारा, मैं छूँ थारी दासड़ियाँ॥
नैण दुखी दरसणकूँ तरसैं, नाभि न बैठें साँसड़ियाँ।
रात-दिवस हिय आरत मेरो, कब हरि राखै पासड़ियाँ॥
लगी लगन छूटणकी नाहीं, अब क्यूँ कीजै आँटड़ियाँ।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, पूरो मनकी आसड़ियाँ॥

वे कहतीं- 

सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिवको पंथ निहारत सिगरी रैण बिहानी हो॥
सखिअन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्याँ कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो॥
अंग अंग व्याकुल भई मुख पिय पिय बानी हो।
अंतरबेदन बिरह की कोई पीर न जानी हो॥
ज्यूँ चातक घनकूँ रटै, मछली जिमि पानी हो।
क्रमशः

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