mc121

मीरा चरित 
भाग- 121

मेरा सब कुछ लेकर कोई मुझे मेरी म्होटा माँ लौटा दे।मुझे उनके सिवा कुछ नहीं चाहिए।वे ठाकुरजी को उलाहना देतीं कि गोपाल म्हाँरा वीरा, यों कई कीधो थे? अब म्हाँरा माँ ने म्हूँ कद देखूँला? कुण लाड़ सूँ म्हाँने छाती सूँ चिपाय ठावस देवे? किण रे कणे बैठ बैठ मन री बाफ काढूँ? कुण हँस हँस र सासरा री बाताँ पूछे? कुण घड़ी घड़ी मूँघी लेवे? बड़ा हुकुम, आप बिना आपकी श्यामा सागे ई अनाथ ह्वेगी’- ऐसा कहकर बाईसा हुकुम मेरी गोद में सिर रखकर सिसक पड़तीं।’
मंगला के मुख से लाडली श्यामा का समाचार सुनकर मीरा ने गंभीर नि:श्वास छोड़ते हुए कहा- ‘बेटा ! तेरे गोपाल तेरी सार-संभाल करेंगे।वे समर्थ हैं बेटा।वे तेरे अपने हैं। म्होटा माँ का मोह छोड़।वे ही तो एक अपने हैं।’

प्रवास और द्वारिका वास.....
          
प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही मीरा श्यामा-श्याम की आज्ञा ले यात्रियों-संतो के साथ द्वारिका के लिए चल पड़ी। इन पच्चीस वर्षो में दूर-दूर तक उनकी ख्याति फैल गयी थी। दूर-दूर के संत-यात्री उनके सत्संग-लाभ और दर्शन के लिए हाजिर होते। ज्ञान-भक्ति की गहन-से-गहन गाँठ वे सहज सरल शब्दों में सुलझा देतीं। चमेली और मंगला ने उनके लिये सवारी का प्रबंध करना चाहा, पर मीरा ने मना कर दिया। उन्होंने कहा- ‘व्रज, वृन्दावन और गिरिराज की परिक्रमा करने से अब चलने का अभ्यास हो गया हैं।’ चातुर्मास उन्होंने पथ में ही व्यतीत किया।

थारे कारण बन बन डोल्या लिया जोगण रा भेस।
बीत्या चौमासा माँसा बीत्या पंडर री म्हाँरा केस।

द्वारिका और द्वारिकाधीश के दर्शन कर वे प्रसन्न हो गईं-

म्हारों मन हर लीन्हों रणछोड़।
मोर मुगट सर छत्र बिराजे कुंडल री छबि ओर॥
चरण पखारे रतनाकर री धरा गोमत जोर।
धुजा पताका तट-तट राजे झालर  री झकझोर॥
भगत जणा रा काज सवाँरया म्हाँरा प्रभु रणछोर।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर कर गह्ययो नन्दकिशोर॥

मीरा की कीर्ति उनसे पहले ही द्वारिका पहुँच गयी थी। उनके आगमन का समाचार सुनकर संत-भक्त सत्संग के लोभ से आने लगे, जैसे पुष्प गंध पाकर भ्रमरों का झुंड चला आता हो। उनकी अनुभव-पक्व-वाणी, स्निग्ध मुखाकृति, भावभरे तेजोदिप्त नेत्र, त्यागमय जीवन और राग-रागनियों से युक्त भावपूर्ण अद्भुत-आलौकिक कंठ स्वर आने वाले के सारे संशयो का नाश कर देते थे।उनकी देह में अब हल्की सी स्थूलता आ गयी थी, किन्तु जब वे रणछोड़राय के सामने भाव-विभोर नृत्य करती तो लगता कि किसी अन्य लोक की देवांगना ही धरा पर उतर आई है।
गोमती की धारा और उसका सागर से मिलन, सागर का अंतहीन विस्तार और गहराई उन्हें अपने स्वामी से मिलन का सन्देश देती, वे सब उनके ऐश्वर्य के प्रतीक से लगते। वे प्रातः सागर गर्भ से उदभूत अंशुमाली (सूर्य) को एकटक देखती रहती। इसी प्रकार सांयकाल जब वे प्रचण्ड रश्मि अपना तेज समेटकर अनुराग-रंजित हो देवी प्रतीची के भवन द्वार पर होते, उनके प्राण एक अनोखी पीड़ा से छटपटा उठते।
मीरा की आँखों के सामने द्वापर की द्वारिका मूर्त हो जाती और .... और उसमें सहस्त्रो भवनों को समेटे हुए वह स्वर्ण परिखा, उसका वह रत्नजड़ित द्वार, उस द्वार के दर्शन मात्र से वे अधीर हो जातीं। उनकी देह काँपने लगती और द्वार में प्रवेश से पूर्व ही अचेत हो भूमि पर आ पड़तीं। कभी उस द्वार पर टकटकी लगाए देखती रहतीं- ‘यह, यह तो अपना ही, अपने स्वामी और उनकी प्रियतमा पत्नियों के महलों का द्वार है।इसी में, इसी में एक भवन उनका अपना भी है, किंतु मैं द्वार से बाहर कैसे हूँ? मेरी... क्यों और कैसे निर्वासित हुई अपने घर से?  कितने लोग आ जा रहे थे उस द्वार से..... कईयों को मैं पहचानती हूँ।ये सात्यकी हैं और ये क्रतवर्मा नारायणी सेना के उदभट वीर सेनापति।ये साम्ब जा रहे हैं और ये देवी रूक्मणी की सुता के वर, अहा विदा दी जा रही है। उद्धव, प्रधुम्न, अहा ! प्रधुम्न ने कैसी मुख छवि पायी है बिलकुल अपने पिता की तरह, सहसा देखकर लगता है कि वही हैं.... और वे आ रहे हैं भुवनपति द्वारिकाधीश, मेरे.... मेरे.... प्राणपति.... मेरे.... सर्वस्व... मेरे घूँघट की लाज.... मेरे जीवन की अवधि... मेरे... आगे कुछ कहने को नहीं मिलता। वह मदगज चाल, वह मोहन मुस्कान, दृगों की वह, वह अनियारी चितवन... अहा... उन्होंने मेरी ओर देखा, देखा पहचान आयी दृष्टि में ये... ये मुस्कराये.... मेरी ओर देखकर ...।’
वे मूर्छित हो जातीं।दासियाँ उपचार करने में लग जातीं। दूर खड़े लोग उनकी दशा देख धन्य, धन्य कर उठते। उनकी चरण-रज सिर पर चढ़ाकर स्वयं को कृतार्थ मानते। उनके अधीर प्राण देह की बाधा को पार करने के लिये व्याकुल हो उठते-

भुवनपति थे घर आज्यो जी।
बिथा लगी तन जारे जीवण तपताँ विरह बुझाज्यो जी।
रोवत रोवत डोलताँ सब रैन विहावै जी।
भूख गई निदँरा गई पापी जीव न जावै जी।
दुखिया ने सुखिया करो मोहि दरसण दीजो जी।
मीरा व्याकुल बिरहणी अब बिलम न कीजो जी।

दासियाँ, सखियाँ समझाती पर उनकी व्याकुलता बढ़ती ही जाती।वे कहतीं- 

प्रभु बिन ना सरै री माई।
म्हाँरा प्राण निकल्या जाय हरि बिन ना सरै माई।
कमठ दादुर बसत जल में जल सूँ उपजाई।
मीन जस सों बाहर कीना तुरतहिं मर जाई।
बन बन ढ़ूढ़त फिरी मैं आली सुधि नहीं पाई।
एक बेर है दरसन दीजो सब कसर मिट जाई।
पाना ज्यूँ पीली पड़ी अरू विपत तन छाई।
दासी मीरा लाल गिरधर मिल्याँ सुख पाई।

और..

ऐसी लगन लगाय कठै तूँ जासी।
तुम देख्यो बिन कल न परत है तड़फ तड़फ जिव जासी।
तेरे खातिर जोगण हूँगी करवत लूँगी कासी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कवँल की दासी।

मीरा ने अपने वे लम्बे लम्बे घन सुन्दर केश, जिनमें कहीं-कहीं सफेदी झाँक उठी थी, मुँडवा लिए। भगवा वेश धर हाथ में इकतारा ले वे गातीं-

साँवरियो छाय रह्यो परदेस।
म्हाँसू बिछड़या फेर न मिलिया भेज्या नहीं संदेस।
रतन आभरन भूषण छोड़या खोर किया सिर केस।
भगवावेस धरया थाँ कारण ढ़ूढ़या चारू देस।
मीरा रे प्रभु स्याम मिलन बिन जीवनजनम अनेश।

वे रणछोड़ राय से द्वारिका में स्थायी वास देने की प्रार्थना करतीं-

राय श्रीरणछोड़ दीज्यो द्वारिका रो वास।
शंख चक्र गदा पद्म दरसे मिटे जैम की त्रास॥
सकल तीर्थ गोमती के रहत नित निवास।
संख झालर झाँझर बाजे सदा सुख की वास॥
क्रमशः

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