mc 130

मीरा चरित 
भाग- 130

संकेत के लिए पतली सी रजत श्रंखला से बँधी घंटी पलँग के सिरहाने की ओर पार्श्व में लटकी थी।कक्ष में मल्लिका पुष्पों की मालाओं से सजावट की गई थी। शवेत कमल उनमें जहाँ तहाँ गुँथे हुये थे।सौंदर्य सौरभ और श्वेत रंग का ही प्राधान्य था।
मीरा अभी घुटने पर चिबुक टिकाये सब देख ही रही थी कि द्वार-रक्षिका ने सावधान किया। वह चौंककर पलँग से उतर पड़ी।नीची दृष्टि से द्वार में प्रवेश करके आगे बढ़ते उन भुवन वन्दनीय चरणों के दर्शन करती रहीं।पदत्राण संभवत: द्वार पर ही सेविकाओं ने उतार लिए होगें।धीर मंथर गति से वे चरण उनके सम्मुख आकर थम गये।ह्रदय के आवेग, संकोच और लज्जा के द्वन्द ने उसकी साँस की गति बढ़ा दी थी और अब तुलसी, कमल, चन्दन, केशर और अगुरू के सौरभ से मिश्रित देह सुगन्ध ने उसे अवश सा कर दिया।नीचे झुककर चरण स्पर्श की चेष्टा में वह गिरने लगीं कि उनकी सदा की आश्रय सबल बाहुओं ने संभाल लिया। कितने दिन, कितने मास, और कितने ही वर्ष यह सुख सौभाग्य मीरा का स्वत्व बना, वह नहीं जान पाई। जहाँ देश, काल दोनों ही सापेक्ष हैं, वहाँ यह गिनती नगण्य हो जाती है।
          
आँख खुलने पर उन्होंने अपने को सागर तट पर पाया।वही पिघले नीलम सा उत्ताल लहरें लेता हुआ सागर और उनके अपने ह्रदय में सुलगा हुआ वही धीमा दाह।
‘बाईसा हुकम ! उषाकाल हो गया। पधारे अब’- मंगला घुटनों के बल सम्मुख बैठकर कह रही थी। 
‘मैं तो द्वारिका में थी।यहाँ कैसे आ गई? यह कौन सा देश है?’- मीरा ने व्याकुलता से पूछा
‘यह द्वारिका ही है हुकम और मैं आपकी चरणदासी मंगला हूँ।अब पधारने की कृपा करें।’- मंगला ने बाहँ पकड़ कर उन्हें उठाया।बैठे-बैठे पाँव अकड़ गये थे, उसने दबाकर मालिश कर उनकी जकड़न दूर की। 
‘मंगला मैं द्वारिकाधीश से, उनकी महारानियों से मिली।वहाँ का वैभव अतुलनीय है और पट्टमहिषी वैदर्भी का सौहार्द, स्नेह अकथनीय है।वह... वह ... देश ..... कैसा सुहावना है।’- मीरा ने हल्के स्वर में कहना आरम्भ किया,पर अंत में वाक्य अधूरा छोड़कर वाणी ह्रदय के अनुभव की सरसता में समा गयी।

द्वारिका में राजपुरोहितजी.....

श्रीद्वारिका धाम में मीराबाई पल-प्रति-पल उस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी, जब उन्हे अपने जीवन धन प्राणाराध्य श्री द्वारिकाधीश का पुनः सानिध्य प्राप्त होगा।उधर मेवाड़ पर संकट के घनघोर बादल मँडरा रहे थे।मीराबाई के चित्तौड़ -परित्याग के बाद एक-न-एक संकट, प्रबल से प्रबलतर सामने आते ही रहे। बादशाह अकबर की चित्तौड़ पर गिद्ध दृष्टि और उसने योजनाबद्ध रीति से चित्तौड़ पर हमला बोल दिया।चित्तौड़ के साथ अनेक राजपूत सामंत उमराव थे।राजपूती सेना ने घमासान युद्ध किया।अकबर का सैन्य बल अधिक होने से 25 फरवरी 1568 ई. के दिन चित्तौड़ किले पर मुगल सेना का अधिकार हो गया। इस घनघोर युद्ध में मेड़ता के राव जयमल जो किले के अध्यक्ष और प्रधान सेना नायक थे, उनकी वीरता से सभी चकित एवं नमित थे।उन्होंने पिता वीरमदेवजी का वचन निभाने के लिए चित्तौड किले की रक्षा हेतु अपने जीवन की आहुति दे दी और लड़ते लड़ते अद्भुत वीरगति को प्राप्त हुए।
चित्तौड़ के किले पर से भगवा ध्वज के उतरते ही राजपूती गौरव धूलि-धूसरित हो गया।चित्तौड़ की राजश्री पर घना कृष्णावरण छा गया।मेवाड़ पर विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़े।सुख-शांति-समृद्धि को दुःख-दरिद्रता-दीनता ने डस लिया। किसी साधू के कहने पर जन-मानस में यह विचार तेजी से बुदबुदाने लगा कि भक्तिमति मेड़तणी कुँवराणीसा मीराबाई को सताये जाने का ही यह दुष्परिणाम हैं।देव रूठ गये हैं, तभी तो ऐसे दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं।
भक्तिमती कुँवराणी सा ने संत्रस्त होकर मेवाड़ का परित्याग कर दिया।अब तो एक ही उपाय शेष है कि यदि वे महिमामयी मीराबाई वापिस मेवाड़ पधारे तो ये बुरे दिन बदलें।यही धारणा महाराणा उदयसिंह की थी।उन्होंने निश्चय कर लिया कि वंदनीया भाभीसा को किसी प्रकार मना कर चित्तौड़ बुलाना चाहिए।महाराणा जी का आदेश पाकर राजपुरोहित जी ने द्वारिका के लिए प्रस्थान किया।चित्तौड़ के राजपुरोहित जी के साथ राठौड़ों के पुरोहित,मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के दो उमराव, जयमल जी के दोनों पुत्र हरिसिंह और रामदास और कई राठौड राणावत राजपूत सरदार थे।वि. स. 1627 में अचानक एक दिन ये सभी मीराबाई के निवास-स्थान पर पता पूछते पूछते पहुँच गये। 
          
मेवाड़ के राजपुरोहित जी मीराबाई से कहने लगे- ‘दिल्ली के बादशाह अकबर की आँखों में चित्तौड़ की राजगद्दी की प्रभुसत्ता चुभ रही थी।हिन्दुत्वाभिमानी महाराणा का स्वतंत्र राजगौरव अकबर की मुसलमानी बादशाहत गवारा नहीं कर पा रही थी।राजपूती शान का मान मर्दन कर देने के मंसूबे से उसने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया।इसका समाचार मिलते ही युद्ध की तैयारी होने लगीं।परिस्थितियों की विकटता को देखकर यह निर्णय लिया गया कि महाराणा राजपूती सेना को किले में छोड़ कर रनिवास और राजकुमारों एवं कुछ सवारों को लेकर मेवाड़ के दक्षिणी पहाड़ों पर चले जायें।निर्णय के अनुसार ऐसा ही किया गया।अकबर की सेना के साथ घमासान युद्ध हुआ, परंतु चित्तौड़ का किला हाथ से निकल गया।
चार महीने पहाड़ों में रहकर महाराणा उदयसिंह अपने रहे सहे राजपूतों को समेट कर उदयपुर लौट आये और अधूरे राजमहलों को पूरा किया।विपत्ति का अंत केवल यहीं नहीं हुआ हुकुम’- मेवाड़ के राजपुरोहितजी हाथ जोड़कर निवेदन करते जा रहे थे- ‘सरकार के पधारने के बाद चित्तौड़ का तो सत्यानाश हुआ ही, जहाँ जिस विजय स्तम्भ पर भगवान एकलिंग नाथजी का भगवाध्वज बड़े अभिमान से गगन में फहराता रहता था, वहाँ अब चाँद तारों वाला हरा परचम लहराता है।केवल राणावतों,सिसौदियों,  शक्तावतों, चूँडा़वतों का गौरव ही ध्वस्त नहीं हुआ सरकार, बल्कि समस्त क्षत्रिय जाति और हिन्दूत्व का गौरव भू लुंठित हो गया’- पुरोहित जी की आँखों से आँसू बहने लगे- ‘उदयपुर में भी चैन नहीं है।श्री जी ने बाँध बनवाकर उदयसागर झील बनवा दी, पर अन्नदाता इन्द्र पर तो किसी का जोर नही चलता।झील सूखी पड़ी है।राज्य में अकाल पड़ गया। प्रजा भूखा नंगी एवं राजकोष रिक्त है।मन को निराशा का घोर अँधेरा निगलने के लिए बढ़ा आ रहा है।बड़े-बूढ़ों का कहना है कि यह सब अनर्थ कुँवरानीसा मेड़तणीजी को सताने और उनके चित्तौड़ परित्याग के कारण बिन न्यौता आया है।वे कृपा करके वापस पधार जायें तो मेवाड़ की धरा पुन: शस्य श्यामला हो उठे।प्रजा और राजपरिवार खुशहाल हो जायें।
क्रमशः

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