mc129

मीरा चरित 
भाग- 129

उसका सौन्दर्य माधव की महिषियों से तनिक भी न्यून नहीं लगता था। सोलह श्रृंगार धारण करा दोनों ओर से बाँहें थामें दासियों ने उन्हें देवी जाम्बवती के पास बिठा दिया। 
‘अहा ! देखो हमारी छोटी बहिन को?’- देवी सत्या ने मीरा का चिबुक उठाकर ऊपर दिखाया।
‘सच है, किंतु यह आपकी हमारी तरह क्रम से नहीं आई, अत: छोटी बड़ी कुछ नहीं, केवल बहिन है यह।’- देवी कालिन्दी ने कहा।
मीरा संकोच की प्रतिमा सी पलकें झुकाई बैठी रही।लगता था कि अभी-अभी विवाह मण्डप से उठकर आई हो। थोड़ी ही देर में गाने बजाने वालीं आ गईं।महारानियाँ चार चार, छ: छ: या और अधिक की संख्याँ में नाचने लगीं। सत्यभामा ने मीरा को भी अपने साथ ले लिया। कितने समय तक यह नृत्योत्सव चल, का नहीं जा सकता। इसके बाद दासियाँ पुनः पेय लेकर प्रस्तुत हुईं, और फिर भोजन की तैयारी। मीरा मन ही मन स्वामी के दर्शन के लिए आकुल थी। भोजन के समय भी उन्हें उपस्थित न देखकर उससे रहा न गया।उसने देवी जाम्बवती से पूछा- ‘प्रभु के भोजन से पूर्व ही हम भोजन कर लें?’
‘स्वामी का भोजन आज माता रोहिणी के महल में है। अपने समस्त सखाओं और भाइयों के साथ वे वहाँ भोजन कर रहे होंगें।’
भोजन के बीच में ही मीरा ने प्रसाद की याचना की।
‘तुम बैठो बहिन, हम बहिनें हैं।इतने पर भी तुम्हारा मन रहे, तुम बैठो।’
उनकी आज्ञा से कांतमणि नामक दासी सबका प्रसाद एक स्वर्ण परात में इकट्ठा ले आई।भोजन के पश्चात दासियों ने एक साथ पात्र उठा लिए और उतनी ही दासियाँ आगे बढ़कर हाथ धोने का पात्र रखकर जल ढारने लगीं।हाथ धोने के पश्चात कंधे पर पड़ा सूती सुकोमल वस्त्र हाथ मुख पोंछने को बढ़ाया।वे जैसे ही पीछे हटीं कि मुखवास के लिए दासियाँ आगेआईं।देवी रूक्मिणी को प्रणाम कर सभी महारानियाँ विदा हुईं। 

‘काञ्चना’- पट्टमहिषी के स्वर के साथ एक नव-वयादासी उपस्थित हो भूमिष्ठ प्रणाम करके विनयपूर्वक खड़ी हो गई- ‘अपनी स्वामिनी को इनके अपने महल में ले जाओ।’
‘जैसी आज्ञा महादेवी।’
देवी रूक्मिणी की आज्ञा पाकर मीरा संकोच पूर्वक उठ खड़ी हुईं। मीरा ने महादेवी के चरणों पर सिर रखा।उन्होंने ह्रदय से लगाकर विदा किया। दासी पथ बताते हुये साथ चली।मीरा ने देखा कि यह ड्योढ़ी महल देवी रूक्मिणी के महल के अन्तर्गत ही था।ड्योढ़ी पर द्वार रक्षिकाओं के पास ही फूल लिये खड़ी दासियाँ मखमली पथ आच्छादन पर फूल बिखेरने लगीं।मीरा पद पद पर संकुचित हो रही थी- मुझ सी नाचीज के लिए इतना समारम्भ।उन्होंने लक्षित किया द्वारिकाधीश की महारानियों के स्नेह, सौहाद्र और निरभिमानिता को।उनकी दासियों की विनय युक्त सेवा तत्परता और सावधानी को।
अनेक कक्षों दालानों को पार करके उन्हें विशेष रूप से सजे हुये एक रत्नजटित कौशेय वस्त्रों से आच्छादित हिंडोले पर बिठा दिया।वे जिस कक्ष से होकर गुजरतीं, वहाँ जो दासी बैठी होती या कुछ कार्य कर रही होती, मीरा को देखकर खड़ी हो जाती।उनके हिंडोले पर बैठते ही दो दासियाँ उपस्थित होकर चंवर डुलाने और एक पंखा झलने लगी।एक दासी पेय लेकर उपस्थित हुई।इसके पश्चात पच्चीस तीस वर्ष की दासी ने उपस्थित होकर प्रणाम कर हाथ जोड़कर निवेदन किया- ‘सरकार, दासी का नाम शांति है। मेरी अन्य बहिनें प्रणाम की आज्ञा चाहती हैं।’
मीरा को ऐसा लगा कि यह तो जानी पहचानी सी लगती है।वह सोचने लगी कि ‘इसे कहाँ देखा है?’ अचानक पुरातन स्मृति उभर आई और वह मन ही मन बोल उठी- ‘अरे, यह तो मेरी धाय माँ लग रही हैं।’
बिना कहे उन्होंने संकेत से इजाज़त दे दी, तो एक एक करके दासियाँ आगे बढ़कर प्रणाम करने लगीं।शांति उन सबके नाम काम और वय बताती जा रही थी।
‘शान्ति, तुम मेरी ....?’ - मीरा ने वाक्य अधूरा छोड़कर ही शान्ति की तरफ देखा।शान्ति स्वीकृति में सिर हिलाकर मुस्कुरा दी।
‘काञ्चना ही मिथुला थी?’- मीरा ने पूछा।
‘हाँ सरकार !’
‘तो क्या चमेली, केसर, मंगला आदि सब......?’
‘जी सरकार, जब नित्यधाम से प्रभु अथवा परिकर में से कोई भी जगत के धरातल पर आता है तो उसे अकेला नहीं भेजा जाता। दयामय प्रभु सहायकों के रूप में कई निज जनों को साथ भेजते हैं। प्रधानता भले एकाकी रहे, परन्तु अन्तर्जगत से पूरा परिकर अवतरित होता है। उनसे जुड़कर संसार के हजारों जन कल्याण- पथगामी होते हैं।काञ्चना को अपनी स्वामिनी महादेवी वैदर्भी का वियोग दुस्सह था, अतः उसे शीघ्र बुला लेने की योजना थी। आठों पट्टमहिषियों ने आपको अपनी एक-एक दासी सेवा सहायता के लिए प्रदान की है।’
‘और तुम?’-  मीरा ने मुस्कराते हुए पूछा। 
‘मैं महादेवी जाम्बवती जी की सेविका हूँ। सरकार .... यह श्रीचरणों का महल है और यह सब आपकी आज्ञा अनुवर्तिनी दासियाँ है।आज्ञा प्रदान करने में तनिक भी संकोच न किया जाये, यही प्रार्थना है।’
‘शांति’- मीरा मधुर स्वर में बोली- ‘इस समस्त वैभव सहित तुम भी पट्टमहिषी का प्रसाद हो मेरे लिए।’
‘धृष्टता क्षमा हो सरकार ! तो क्या..... स्वामी भी ....?’-  शांति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। 
‘हाँ शांति ! जीव को जो भी मिलता है, भले प्रभु ही हों, सब कुछ देवी के अनुग्रह से ही प्राप्त होता है।’

उसी समय द्वार पर प्रहरी ने पुकार की- ‘अखिल ब्रह्माण्ड नायक, यदुनाथ द्वारिकाधीश पधार रहे हैं।’
चारों ओर हलचल मच गई।मीरा की वय की दो दासियों ने उनसे अपने साथ चलने की विनय की।वे जिस कक्ष में उन्हें ले गईं, वहाँ मानों सात्वगुण ही नाना उपकरणों के रूप में मूर्त हो उठा था। उस कक्ष की पूर्ण साज-सज्जा श्वेत थी।केवल मीरा के अपने वस्त्राभूषण भिन्न चमक रहे थे।वहाँ वज्रमणियों का शांत सुखद प्रकाश था।पलंग पर टंगे श्वेत चंदोवें में मुक्ता की झालरें लटक रही थीं। द्वार, पलंग, भूमि और नाना उपकरण स्फटिक, हीरे और मोतियों से बने थे। 
दासियों ने उन्हें पलँग पर बिठाया ही था कि दो दासियाँ पेय और खाद्य पलँग के बराबर ऊँची चौकी पर सजा गईं।दो सुगंध सामग्री लेकर आयीं और दो श्वेत कौशेय वस्त्र।इस कक्ष में प्रवेश करनेवाली दासियों के वस्त्र भी श्वेत थे, जिनसे उनका गौरवर्ण अधिक निखर आया था।ऐसालगता था मानों वे बर्फ की सफेद पुतलियाँ हों।सब कुछ यथास्थान रख कर उन्होंने झुक कर प्रणाम किया और विनम्र स्वर में जाने की आज्ञा चाहते हुये कहा- ‘वे बाहर ही हैं।सेवा का संकेत पाते ही उपस्थित हो जायेगीं।’
क्रमशः

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