mc 122

मीरा चरित 
भाग- 122

तज्यो देसरु वेस हू तजि तज्यो राणा वास।
दास मीरा सरणआई थाने अब सब लाज॥

वह अपने स्वामी से निहोरा करतीं-

साजन घर आवो नी मिठ बोलाँ।
बिन देख्याँ म्हाँने कल न परत है कर घर रही कपोला।
आवो निसंक संक नहीं कीजै हिल मिल रंग घोलाँ।
थाँरे खातिर सब रंग तजिया काजल तिलक तम्बोला।
मीरा दासी जनम जनम की मन री घुंडी खोलाँ।

वे कहतीं- ‘तुम्हारा विरद मुझे प्रिय लगा। इसलिए सब मेरे वैरी हो गये। अब यदि तुम सुधि ना लो, ना निभायो, तो मुझे कहीं कोई सहारा नहीं है’-

रावलो विरद म्हाँने रूड़ो लागे पीड़ित म्हाँरा प्राण।
सगा सनेही म्हारे न कोई बैरी सकल जहान।
ग्राह गह्याँ गजराज उबारयो अछत करया वरदान।
मीरा दासी अरजी करै है म्हाँरे सहारो ना आन।

सच्चर्चा के प्रेरक क्षण.....

एक बार एक दु:खी व्यक्ति, जिसका एकमात्र जवान पुत्र मर गया था।वह सभी तीर्थों में घूमता-फिरता द्वारिका पहुँचा और मीराबाई का नाम सुन दर्शन करने आया। अपनी विपद गाथा सुना कर उसने साधु होने की इच्छा प्रगट की। मीरा ने उसे समझाया- ‘क्या केवल घर छोड़ना और कपडे रंगाना ही तुम्हारी समस्या का हल है?’
‘मैं दुःख से तप गया हूँ। पुनः दुःख से सामना न हो’- उसने कहा।
'दुःख-सुख भौतिक वस्तु नहीं हैं, कि कोई उठाकर तुम्हे दे दे अथवा कोई सेना नहीं कि भागकर सामना करने से बच जाओ।तुम्हारा अर्थ हैं कि पुत्र की मृत्यु से तुम्हें जो दुःख की अनुभूति हुई, वह तुम्हें फिर ना झेलनी पड़े। यही ना?’
‘जी सरकार’
‘इसका अर्थ तो केवल यह है कि पुत्र की मृत्यु से होने वाली अनुभूति की तुम्हे पीड़ा है। पुत्र इसलिए प्रिय है कि उसके जीवित रहने से सुख और मरने से दुःख का अनुभव होता है।ऐसा अनुभव क्यों होता है भला? इसलिए उसमे तुम्हारा मोह है।यह मेरा है, इतना ही नहीं, बड़ा होकर यह मेरा सहारा बनेगा, बहु आयेगी, सेवा करेगी, पौत्र होगा, वंश बढेगा, मरने पर मरणोत्तर कार्य करेगा, यही ना?’
व्यक्ति ने स्वीकृति में सिर झुका दिया।
‘सोचकर देखो, ये सब भावनाएँ केवल अपने लिए थीं।अपने सुख की इच्छा, और इस इच्छा में बाधा पड़ते ही दुःख क्रोध, पता नहीं कौन कौन आ धमकते हैं।सोचकर देखो यदि पुत्र जीवित होता पर तुम्हारी इच्छा के विपरीत व्यवहार करता, तब भी तुम साधु होने की इच्छा करते क्या?’
‘आपका फरमाना ठीक है’- उसने कहा।
 ‘तुम तो फिर भी ठीक हो कि निकल आने की बात तो सोचते हो। अधिकाँश लोग तो इस मोह के इस गर्त से निकलना ही नहीं चाहते। रात-दिन कलह, व्यथा, चिंता झेलकर भी वह मोह नहीं छोड़ पाते।अच्छी तरह समझ लो कि यह मोह ही दुःख का मूल हैं। पाप का पिता मोह, माता तृष्णा और क्रोध, लोभ, मद-मत्सर, आशा आदि कुटुम्बी हैं। इनका एक भी सदस्य मन में घुसा नहीं कि धीरे-धीरे पुरे कुटुंब को ले आता हैं। फिर पाप की पत्नी अशांति तथा बेटी मृत्यु भी आकर क्रमशः हमें ग्रस लेती हैं।इनसे बचने का उपाय केवल भजन हैं, साधू होना नहीं। अभी तुम्हारे षट विकार दूर नहीं हुए हैं कि खाने-सोने की चिंता न रहे।साधू होते ही पहली चिंता तुम्हे यह लगेगी कि कहाँ ठहरें, क्या खाये और कहाँ सोये।बहुत बार साधु अपने को पुजवाने के लिए कई प्रकार के ढोंग करते हैं या फिर अन्य किसी प्रकार से सुख सुविधा ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करते हुये दिखाई देते हैं।यदि वैराग्य नहीं हैं तो कठिनाई नहीं सह सकोगे और संसार से विरक्ति के बदले साधू वेश से विरक्ति हो जायेगी।’
मीरा ने इकतारा उठाया-

भज मन चरणकँवल अविनाशी।
जेताई दीसे धरण गगन बिच, तेताई सब उठ जासी।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें, कहा लिये करवत कासी॥
इण देही का गर्व न करणा, माटी में मिल जासी।
या संसार चौसर की बाजी, साँझ पड़याँ उठ जासी॥
कहा भयो है भगवा पहरयाँ,घर तज भये सन्यासी।
जोगी होय जुगत नहीं जाणी, उलट जनम फिर आसी॥
अरज़ करूँ अबला कर जोड़े, श्याम तुम्हारी दासी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, काटो जम की फाँसी॥

‘भजन का नियम लो।उसे किसी प्रकार टूटने न दो।घर का मालिक भगवान को बनाकर तुम मजदूर अथवा सेवक बन जाओ। कुछ भी करने से पूर्व भीतर बैठे स्वामी से पूछो कि यह कार्य ठीक हा या नहीं। जिसका अनुमोदन हो, वही करो। इस प्रकार तुम्हारे सारे कार्य, सारा जीवन पूजा हो जायेगा।इतने पर भी रसना (जीभ) को विश्राम मत दो।खाने, सोने और आवश्यक बातचीत को छोड़कर इसको बराबर प्रभु के नाम में व्यस्त रखो-

म्हाँरो तो मन राम ही राम रटे रे।
राम नाम जप जग प्राणी कोटिक पाप कटे रे।
जनम जनम रा खत पुराणा श्यामा नाम फटे रे।
कनक कटोरे इमरत भरियो पीवत कूण नटे रे।
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी तन मन श्याम पटे रे।

वर्ष भर में महीने दो महीने का समय निकाल कर सत्संग के लिए निकल पड़ो और अपनी रूचि के अनुकूल स्थानों में जा जाकर महज्जनों की वार्ता सुनो।सुनने का धैर्य आयेगा तो उनकी बातें असर करेंगी।उनमें तुम्हें रस आयेगा। जब रस आने लगेगा, तो जिसका तुम नाम लेते हो, वह आकर तुम्हारे भीतर बैठ जायेगा। ज्यों-ज्यों रस की बाढ़ आयेगी, ह्रदय पिघल करके बह पड़ेगा, और वह नामी ह्रदय-सिंहासन से उतर कर आँखों के समक्ष नृत्य करने लगेगा। इसलिए-

राम नाम रस पीजे मनुवा, राम नाम रस पीजे।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित, हरि चर्चा सुन लीजे॥
काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ, चित्त से दूर करी जे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजे॥

‘आज्ञा हो तो एक बात निवेदन करूँ सरकार’- एक सत्संगी ने पूछा। 
‘फरमाईये’- मीरा ने कहा।
‘जब घर में रहकर भजन करना उचित है अथवा हो सकता है तो फिर आप श्रीचरण रानी जैसे महत्वपूर्ण पद और अन्य सारी सुविधाओं को त्याग कर ये भगवा वेश, यह मुण्डित मस्तक .....?’
‘जिसके लिए कोई बन्धन नहीं है, उसके लिए घर बाहर एक जैसे हैं’-

सखी म्हें तो सावँरिया ने देखवो कराँ री।साँवरो उमरण, साँवरो सुमिरण साँरो ध्यान धराँ री।
जहाँ जहाँ चरण धराँ धरणाधर तहाँ तहाँ निरत कराँ री।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर कुँजा गैल फिराँ री।

और....

म्हूँ तो गिरधर के रंगराती।
पचरंग चोलो पहर सखी री झुरमुट खेलन जाती।
क्रमशः

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