mc 127

मीरा चरित 
भाग- 127

कभी उन्हें लगता कि समुद्र के बीचों-बीच द्वारिका ऊपर उठ रही है। उसकी परिखा -द्वार से श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर पधार रहे हैं। हीरक जटित ऊँचा मुकुट, जिसमें लगा रत्नमय मयूर पंख अश्व की चाल से झूम जाता है। गले में विविध रत्नहारों के साथ वैजयन्ती पुष्प माल, कमर में बँधा नंदक खड्ग, कमरबन्द की झोली से झाँकता पाञ्चजन्य शंख, घनकृष्ण अलकों से आँखमिचौनी खेलते मकराकृत कुण्डल, बाहों में जड़ाऊ भुजबन्द और करों में रत्न कंकण, केसरिया अंगरखा और वैसी ही धोती, वैसा ही चमकता रेशमी दुपट्टा, जिसके दोनों छोरों पर जरी का कामऔर मुक्ता गुँथें हैं, जो वायुवेग से पीछे की ओर फहरा रहा है।जरीदार रत्नजड़ित पगरखियों की नोंक रकाब में रखी हुई सागर तरंगों पर दौड़ता हुआ अश्व, उसकी टापों से उछलता जल, अश्व पर बैठने की वह शान, दाहिने हाथ में लगी वल्गा बायें हाथ में ले उन्होंने दायाँ हाथ मुस्कराकर ऊपर उठाया- वह उतावली हो सम्मुख दौड़ पड़ी-‘मेरे स्वामी .... मेरे नाथ ! पधार गये आप?’ कहकर वह दौड़ती हुई अपने यहाँ गाये जाने वाले गीत गाने लगी-

केसरिया बालम हालो नी पधारो म्हाँरो देस।
पिय पधारया हे सखी काई करूँ मनवार।
केसर सूँ पग धोवती मोतियन चौक पुराय।
पिय पिय म्हें करूँ पिय म्हाँरे जीव जड़ी।
थाल भरूँ गज मोतियाँ ऊपर नैण धरा।
पधारो म्हाँरे देस आलीजा पधारो म्हाँरे देस।

प्राणप्रियतम से मिलने की उत्सुकता में त्वराधिक्य के कारण मीरा जल में जा गिरती, इसके पूर्व ही घोड़े की लगाम खिंच गई, गति के झटके से घोड़े के आगे के दोनों पैर ऊपर उठ गये। विद्युत की गति से वे अश्व से कूदे और लपककर मीरा को बाँहों में भर लिया।एक दूसरे का हाथ थामकर वे घर आये। आते ही मीरा ने पुकारा- ‘ललिता, देख, देख प्रभु पधारे हैं।शीघ्रता पूर्वक जीमण की तैयारी कर।वह हर्ष से बावली होकर गाने लगीं-

साजन म्हाँरे घर आया हो।
जुगाँ जुगाँ मग जोवती विरहिणी पिव पाया हो॥
रतन कराँ निछावराँ ले आरती साजाँ हो।
प्रीतम दिया सँदेसड़ा म्हाँरे घणा निवाजा हो।
पिय आया म्हारा साँवरा अंग आनन्द साँजा हो।
मीरा रे सुख सागराँ म्हाँरे सीस बिराजाँ हो॥

मिलन की उछाह में वह दिन रात भूल जातीं, भूल जातीं कि वे साधक वेश में निर्धन जीवन बिता रही है।वे सेवक-सेविकाओं को राजसी प्रबन्ध की आज्ञा देतीं। वह कई-कई दिनों तक इस आनन्द में डूबी रहतीं। अपने प्राण-सखा के साथ वे झूले पर बैठी बातें करती न थकती। ऐसे में कोई वृद्ध पुरूष या संत आ जाते तो वह एकदम झूले से उठकर घूँघट डाल तिरछी खड़ी हो जातीं। 
‘घूँघट किससे किया माँ? मैं तो आपका बालक हूँ’- वह कहते।
मीरा एक हाथ से घूघँट आधा करके श्यामसुन्दर की ओर ओट करके मुस्कुरा कर लाज भरे नयनों को झूले की ओर तिरछे कर संकेत करतीं।यदि कोई कुछ पूछता तो वे टिचकारी कर हाँ या ना का उत्तर देतीं।इन दिनों घर में एक महोत्सव सा छाया रहता।
शंकर और किशन सेठों की दूकान पर काम करने जाते।उन्हें जो वेतन मिलता, उसी से साधु-सेवा और घर खर्च चलता।मीरा नित्य नियम-पूर्वक द्वारिकाधीश के मन्दिर में प्रातः, सांय दर्शन भजन करने पधारतीं। साँयकाल नृत्य-गान अवश्य होता। भजनों की चोपड़ी ललिता चमेली के पास ही रहती। एक दो बार तो वह भावावेश में समुद्र में जा गिरीं, सेविकाओं की सावधानी काम आई। उन्होंने समुद्र से दूर घर लेकर रहना प्रारम्भ किया किन्तु मीरा के प्राण तो जैसे समुद्र में ही बसते थे। सूर्योदय, सूर्यास्त, पूर्णिमा का ज्वार और शुक्ल पक्ष की रात्रियों में सागर दर्शन उन्हें बहुत प्रिय था। कभी-कभी तो रात में भजन-कीर्तन का आयोजन भी समुद्र तट पर ही होता।

एक रात मीरा सागर तट पर बैठी थी। उसके पीछे ही कुछ दूर मंगला और किशन भी शीतल मंद बयार के झोंकों के कारण नींद लेने लगे।मीरा ने चौंककर देखा, कि सामने खड़ी एक रूपसी नारी झुककर आदर पूर्वक उसका कर स्पर्श करते हुए धीमे स्वर में कह रही है- ‘तनिक मेरे साथ पधारने की कृपा करें’
मीरा चुपचाप उठकर चल पड़ीं। जल के समीप पहुँच कर उसने अपनी दाहिनी हथेली बढ़ाई, मीरा ने उसका आशय समझ उसके हाथ पर अपना बाँया हाथ रख दिया। उसका हाथ पकड़ वह जल पर भूमि की भांति चलने लगी। कुछ ही दूर चलने पर मीरा ने देखा कि जल में से द्वारिका की स्वर्ण परिखा ऊपर उठ रही है।उसका वह सम्मुख स्फटिक द्वार स्वर्ण कपाटों से रूद्ध है।मीरा ने देखा कि द्वार के आस-पास का जल शांत रहता है, पाँवो तले जल की कोमल आद्रता तो रहती है किंतु पाँव डूबते नहीं और न ही वस्त्र गीले होते हैं। समीप पहुँचते ही परिखा के स्फटिक द्वार के स्वर्ण कपाट संगीतमय ध्वनि करते खुल गये। भीतर प्रवेश करते ही मीरा आश्चर्य से स्तब्ध सी रह गई।चारों ओर रत्नों की कारीगरी भवन भित्तियों को सुशोभित कर रही थी।भूमि स्वर्णमयी थी।उन्होंने अपना आश्चर्य समेट लिया।अपने पदों से कुछ हाथ दूर का पथ देखते हुये बढ़ने लगीं।
‘मेरा नाम शोभा है’- अक्समात उनकी सहचारिणी ने मधुर आदरयुक्त स्वर में कहा- ‘मैं पट्टमहिषी देवी वैदर्भी की सेवा में हूँ।’
‘मुझे मीरा कहते हैं, यह तो आप जानती होंगीं’- मीरा ने कहा। 
‘हाँ हुकम ! आप मुझे आदर न दें, मैं तो मात्र एक दासी हूँ।स्वामिनी की आज्ञा से श्री चरणों में उपस्थित हुईं।’
‘अपने स्वामी से जुड़ा प्रत्येक जन मेरे लिए आदरणीय पूज्य एवं प्रिय है।बड़ी कृपा की देवी ने मुझ तुच्छ दासी पर’- मीरा ने स्नेह भरे मीठे स्वर में कहा। 
‘स्वामी सदा श्री चरण का स्मरण करके आँसू भर लातें हैं, इसी से देवी की आज्ञा हुई।’
 वे हीरक निर्मित अपनी चन्द्र रश्मियों से नेत्रों में चौंध उत्पन्न करते जगमगाते हुये एक विशाल द्वार में प्रविष्ट हो दाहिनी ओर मुड़ गईं। आगे विस्तृत चौक था, उसके बीच स्फटिक का फव्वारा सहस्त्रों धाराओं के रूप में जल फेंक रहा था।फव्वारे के चारों ओर हरित दूर्वा संकुल भूमि और फिर विभिन्न पुष्पों से लदे पौधे, उनके पीछे कदमी आम जामुन अशोक आदि वृक्षों की पंक्तियाँ।सभी वृक्षों पर पुष्पों से लदी लतायें लिपटी थीं।शीतल पलन सौरभ लिये मंद गति से प्रवाहित हो रहा था।
क्रमशः

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