mc 131

मीरा चरित 
भाग- 131

यह बूढ़ा ब्राह्मण आज अपनी यजमान वधू से मेवाड़ री रक्षा की भीख माँगता है’- राजपुरोहित जी ने सिर से साफा उतारकर भूमि पर रखा- ‘मेरी इस पाग की लाज आपके हाथ में है स्वामिनी।हमें सनाथ करो।हम अनाथ हो गए हैं’- दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने धरती पर मस्तक रखा और बिलख कर रो पड़े।
मेड़ते के राजपुरोहित उठकर कक्ष में आए।मीरा ने भूमि पर सिर रख उन्हें प्रणाम किया और आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की। पुरोहित जी के साथ ही हरिसिंह जी और रामदास जी भी कक्ष में आये। उन्होंने मीरा को प्रणाम किया। सबने आसन ग्रहण किया और आज्ञा पाकर बैठ गये।सबके मुख-मलीन थे। मेड़ते के राजपुरोहित जी कहने लगे- ‘बाईसा हुकम ! केवल आपका श्वसुर कुल ही आपदाग्रस्त नहीं है, पितृकुल भी तितर-बितर हो गया है।मेरे पिता ने युद्ध करते हुये वीरगति प्राप्त की और माँ सती हो गई।आपके भाई भतीजे विपदा के मारे पैतृक राज्य खोकर जीविका के लिए भटक रहे हैं।महाराज के दो पुत्र मारवाड़ और मालवा पधार गये।महाराणा ने बदनोर परगना प्रदान किया था, उस पर उसके पाँचवे पुत्र मुकुन्ददास जी गद्दी पर विराजते हैं।एक बार महाराज मुकुन्द दासजी क् पूछने पर किसी साधू ने कहा था, की मेवाड़ में किसी भक्त का अपमान हुआ है, इसी से विपत्ति बरस पड़ी हैं।यदि वे प्रसन्न हो जायें और उन्हें पधरा सको तो सबकी विपत्ति दूर हो।’
‘महाराज ने भी हाथ जोड़कर प्रणाम के साथ अर्ज-विनय की है’- हरिसिंह ने करबद्ध होकर निवेदन किया- ‘हम आपके बालक हैं।बालक तो पेट में रहते भी लात मारता है हुकुम।जो भी अपराध दोनों कुलों से हुए हैं, आप अपने उदार अनुग्रहमय स्वभाव से क्षमा बख्शावें और मेवाड़ पधार कर हम बालकों के सिर पर हाथ रखकर सनाथ करावें।आप माइत हैं।माइतपणों कर म्हाँने पाछा पाँखा में घाल लिरावो’(आप गुरूजन हैं।अपने बड़प्पन का ख्याल कर हमें वापस अपनी वातसल्यमयी छाया प्रदान करें)- रामदास, हरिसिंह सिसक पड़े।
‘पुरोहित जी महाराज’- मीरा ने उदास दु:खित स्वर में कहा- ‘मनुष्य केवल अपने ही कर्मो का फल पाता है।चित्तौड़ और मेड़ता की विपदगाथा सुनकर जी दुःखा, किन्तु सच मानिये, यह मेरे कारण नहीं हुआ। मुझे कभी लगा ही नहीं कि किसी ने दुःख दिया और दिया भी हो तो वह कभी मेरे पास आया नहीं।शायद कभी आया भी हो परंतु मुझे उससे मिलने और आँख उठाकर देखने की फुरसत ही नहीं मिली।तब वह दुःख कैसे आया, किसके द्वारा आया, यह सब मुझे कैसे मालुम होता? यह सम्पूर्ण दृश्य जगत मेरे प्रभु का स्वरूप है, तब मेरे रूष्ट और तुष्ट होने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है। यह वहम आप दोनों ही ओर के महानुभाव अपने अपने मन से निकाल दें।
अब रही बात मेरे लौटने की।कभी आप लोगो ने अपने ससुराल में सुख-पूर्वक रहती हुई अपनी बहिन-बेटी को कहा कि अब तुम पीहर आ जाओ तो हम सुखी हो जायें।अब यहाँ इस भूमि में आकर क्या लौटना होता है भाई?’- उनकी आँखों से अश्रुबिंदु झलने लगे। 
‘हरिदास ! रामदास ! क्षत्राणी तलवार की भेंट चढ़ने के लिए ही पुत्र का प्रसव करतीं हैं बेटा।तुम्हारे पिता, काका, भाई युद्ध में मारे गए, इसमें अनोखी बात क्या हुई? शस्त्र विद्या सीखते समय प्रत्येक राजपूत यही सोचता है कि धरा घर्म शरणागत और दीनों की रक्षा हेतु युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हों।तुम्हारे पिता ने मुझसे अनेक बार अपनी यह अभिलाषा व्यक्त की थी।गौरव से तुम्हारी छाती फूल उठनी चाहिए।वीरों को जागतिक सुख नहीं, अपना धर्म और कर्तव्य प्रिय होता है बेटे।प्रारब्धानुसार आगमापायी सुख दु:ख भौतिक वस्तुयें नहीं हैं कि कोई किसी को दे दे अथवा छीन ले।सम्यक कर्तव्य-पालन का सुख ही सच्चा सुख है, अन्यथा देह तो प्रारब्ध के अधीन है। इसे वह सब सहना होगा, जो उसका प्रारब्ध उसे दे।राजपूत की जीवन-निधि धन-धरा-परिवार नहीं है, ईमान ही उसका कर्तव्य है, उसका धर्म है।उठो और सेवा में जुट जाओं उनकी, जिनकेनलिये तुम्हारा जन्म हुआ है।अबलाओं की भाँति रोना तुम्हें शोभा नहीं देता।अपने कानों की खिड़कियाँ खोलो, जिससे आर्त दु:खी और सताये हुये लोगों की पुकार तुम सुन सको’- उन्होंने रामदास से कहा- ‘जाकर उदयपुर के पुरोहितजी से अर्ज करो कि अभी तो आप पधारे ही हैं।कुछ दिन मुझे विचार करने का समय प्रदान करें। तब तक आप सभी सरदार द्वारिकाधीश के दर्शन एवं सत्संग का लाभ उठावें।’

महादेवी वैदर्भी का संदेश....

इन लोगों के आने से मीरा बेचैन हो गई।इस भूमि को छोड़कर वहाँ जाना अशक्य है।मीरा रो रो कर अपने आराध्य से प्रार्थना करतीं- ‘इतनी निष्ठुरता तुम में कहाँ से आ गयी हे दयाधाम। यों मुझे अपने चरणों से दूर करते हो? बहुत भटकी हूँ।अब देह में भटकने का दम भी नहीं रहा है और न ही उन महलों के राजसी वैभव में बंद होकर व्यर्थ चर्चा में उलझने की हिम्मत हैं। अब मुझे अपने से दूर मत करो, मत करो.....।’

किसी का स्पर्श पाकर वह जग पड़ी। काञ्चना सम्मुख खड़ी थी। मीरा का मन उत्साह से हुलस उठा। उसने पूछना चाहा कि क्या महादेवी ने मुझे याद फरमाया है, किन्तु आस-पास सोई हुई दासियों का विचार करके वह चुप रही।उसके साथ बाहर आयी। घर के पीछे ही कुआँ और छोटी सी बगिया थी, वही आकर कांञ्चना कुएँ की जगत पर बैठ गयी और मीरा को भी बैठने का संकेत किया। 
‘मुझे महादेवी रूक्मिणी ने भेजा हैं कि आपको पिछला वृत्तान्त बता दूँ , जिससे आपकी घबराहट, दुःख कुछ कम हो जायें।’- मीरा ने मौन दृष्टि से उसकी ओर देखा। 
‘आप व्रजकुल की माधवी हैं’- उसने मीरा की ओर देखा। उसका अभिप्राय समझकर मीरा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। काञ्चना बतलाने लगी - ‘सूर्यग्रहण के समय जब समस्त व्रजवासी, बाबा, मैया के साथ देवी वृषभानुजा श्री राधारानी कुरुक्षेत्र पधारीं, तब उनके साथ आप भी थीं। कुछ समय कुरुक्षेत्र में रहकर सम्पूर्ण व्रज-शिविर को साथ लिये-लिये प्रभु द्वारिका पधारे। जहाँ अभी गोपी तलाई का स्थान हैं, वहीं सभी जन ठहरे। देवी वृषभानुजा, उनकी सखियाँ, गोपालों और व्रज के जन-जन का अनन्य प्रेम और असीम सरलता देखकर द्वारिका के लोग और महारानियाँ मन-ही-मन न्यौछावर थीं। वे एक-एक दिन अपने यहाँ सबको भोजन करना चाहती थीं।
क्रमशः

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