mc 133विश्राम

मीरा चरित 
भाग- 133

कई क्षण तक लोग किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे।किसी की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ।
एकाएक चमेली ‘बाईसा हुकम’ पुकारती हुई निज मंदिर के गर्भ गृह की ओर दौड़ी। पुजारी जी ने सचेत होकर हाथ के संकेत से उसे रोका और स्वयं गर्भ गृह में गये। उनकी दृष्टि चारों ओर मीरा को ढूँढ रही थी। अचानक प्रभु के पार्श्व में लटकता भगवा-वस्त्र खंड दिखाई दिया।वह मीरा की ओढ़नी का छोर था। लपक कर उन्होंने उसे हाथ में लिया, पर मीरा कहीं भी मन्दिर में दिखाई नहीं दीं। निराशा के भाव से भावित हुए पुजारीजी गर्भ गृह से बाहर आये और उन्होंने निराशा व्यक्त करने करने के सिर हिला दिया। उनका संकेत का अर्थ समझकर, मेवाड़ और मेड़ता के ही नहीं, वहाँ उपस्थित सभी जन आश्चर्य विमूढ़ हो गये। 

‘यह कैसे सम्भव है? अभी तो हमारे सामने उन्होंने गाते गाते गर्भ गृह में प्रवेश किया है। भीतर नहीं हैं तो फिर कहाँ हैं? हम अपने स्वामी को जाकर क्या उत्तर देंगें?’- मेवाड़ी वीर बोल उठे। 
‘मैं भी तो आपके साथ ही बाहर था। मैं कैसे बताऊँ कि वह कहाँ गईं? अगर आप समझना चाहो तो समझ लो कि मीरा बाई प्रभु में समा गईं, प्रभु श्री विग्रह में विलीन हो गईं’- पुजारी जी ने उत्तर दिया। 
‘क्या हम गर्भगृह को भीतर से अच्छी तरह देखसकते हैं?’
‘अवश्य देखिये, मुझे तो वैसे भी मंदिर धोना पड़ेगा।’
मेवाड़ और मेड़ता के एक एक वीर निज मंदिर के द्वार पर खड़े हो गये।दोनों पुरोहित निज मंदिर में प्रवेश करके मूर्ति के चारों ओर घूम घूमकर मीरा को ढूँढने लगे।उन्होंने फर्श बजाकर देखा कि कहीं नीचे से पोला तो नहीं है।इसी प्रकार दीवारें भी ठोंकी।अंत में जब निराश होकर बाहर निकलने लगे तो पुजारी ने कहा- ‘तमने बा नी ओढ़नी नो पल्लो नथी देखातो? अरे बा प्रभु माँ समायी गया छे’ (आपको बा की ओढ़नी का पल्ला नहीं दिखता, अरे बा प्रभु में समा गई हैं)।दोनों पुरोहितों ने उस पल्ले को अच्छी तरह से देखा और खींचा भी, पर वह तनिक भी खिसका नहीं, तब वह बाहर आ गये। 
इस समय तक ढोल-नगारे बजने बंद हो गये थे।उसी समय पुजारी जी ने भुजा उठाकर जयघोष किया- ‘बोल, मीरा माँ नी जय ! द्वारिकाधीश नी जय ! भक्त भगवान नी जय’
लोगों ने जयघोष दोहराया। तीनों दासियों का रूदन वेग मानों बाँध तोड़कर बह पड़ा हो। अपनी आँखें पोंछते हुये दोनों पुरोहित उन्हें सान्तवना दे रहे थे। इस प्रकार मेड़ता और चित्तौड़ की मूर्तिमन्त गरिमा अपने आराध्य में जा समायी।

नृत्यत नुपूर बाँधि के गावत ले करतार।
देखत ही हरि में मिली तृण सम गनि संसार॥
मीरा को निज लीन किय नागर नन्दकिशोर।
जग प्रतीत हित नाथ मुख रह्यो चुनरी छोर॥ 
(समाप्त)

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