mc 61

मीरा चरित 
भाग- 61

विरहावेश में उसे स्वयं का भी ज्ञान न रहता।पुस्तकों के पृष्ठ-पृष्ठ-में, वस्त्रों के कोने कोने में, धूल के कण कण में, वह अपने प्राणाधार को ढूँढने लगी। कभी ऊँचे चढ़कर पुकारने लगती और कभी संकेत से बुलाती। कभी हर्ष के आवेश में वह इस प्रकार दौड़ती कि मानों सम्मुख भीत या सीढ़ियाँ हैं ही नहीं।सामने मनुष्यया पशु है उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता।कई बार टकराकर वह जख्मी हो जातीं। दासियाँ सदा साथ लगीं रहतीं किंतु कभी-कभी उनकी त्वरा का साथ देना अशक्य हो जाता। जो समझते थे, वे उसकी सराहना करते और चरण-रज सिर पर चढ़ाते। नासमझ लोग हँसते और व्यंग्य करते। भोजराज देखते कि होली या गणगौर के दिनों में महल में बैठी हुई मीरा की साड़ी अचानक रंग से भीज गई है, और वह चौंककर 'अरे' कहती हुई भाग उठती किसी अनदेखे से उलझने को। कभी वे रात को छत पर टहल रहे होते और अनजाने ही मीरा किसी और से बातें करने लग जाती।किसी के कंधे का आश्रय लेकर चल रही हो,ऐसे चलती हुई हर्ष से बावली सी हो जाती।कभी ऐसा भी होताकि किसी ने मीरा की आँखें मूँद ली हों, ऐसे किसी के हाथ को थामकर वह चम्पा, पाटला, विद्या ये अनसुने नाम लेकर फिर थककर कहती ‘श्री किशोरीजू’ और पीछे घूम कर आनन्द विह्वल होकर कह उठतीं - ‘मेरे प्राणधन ! मेरे श्यामसुन्दर !’ किसी से लिपटकर वह हँसने लगती।

भोजराज के आदेश से चम्पा उनके मुख से निकले भजनों को लिख लेती।मीरा उनकी रक्त बूँद में समाई हुई थी।रण में जाते समय जब मीरा तिलक लगाती तो वह स्पर्श उनके रोम रोम में समा जाता।लौटते समय सम्पूर्ण लश्कर को पीछे छोड़ कर उनका अश्व तीव्र गति से भाग छूटता।अंगरक्षकों को उस गति का साथ देने में कठिनाई होती।आते समय सौ-सौ शंकाये सिर उठाकर उन्हें भयभीत करने लगतीं- कहीं झरोखे से न गिर पड़ी हो ? कहीं कोई उन्हें कुछ खिला-पिला न दें। उस दिन भीत की टक्कर से ललाट फूट गया और रक्त बहने लगा था।सीढ़ियों से भागकर उतरते समय पाँव मुड़ गया था।मैं राज्यसभा में था और वे छत से गिर पड़ीं थीं।अब जाकर न जाने किस अवस्था में पाऊँगा? जब जब वे विजय को वरण करके लौटते, मीरा के महल में उत्सव होता मिष्ठान्न बटँते, दास-दासियों को पुरस्कार मिलते, नज़र न्यौछावरे होतीं, गिरधर गोपाल का नवीन श्रृंगार होता, नाच गाना होता और गरीबों को अन्न वस्त्र दिये जाते।राजमहल के द्वार पर पहुँचते ही भोजराज की विचित्र स्थिति हो जाती।मन चाहता कि दौड़ कर अपने महल में पहुँच जायें पर कर्तव्य सर्वप्रथम पिता के सम्मुख उपस्थित होने को बाध्य करता।पिता को प्रणाम कर, आवश्यक सूचना निवेदित कर और फिर आदेश पाकर वे अपने महल की ओर लौटते तो पथ में मिलने वाले, बधाई और मंगल कामना करने वाले लोग उन्हें घोर विक्षेप स्वरूप लगते।

महल में सबसे प्रथम मीरा केसम्मुख उपस्थित होते।यदि वह स्वस्थ होतीं तो उन्हें देखते ही खड़ी होकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करतीं- ‘पधार गये आप? बहुत दिन लगाये? स्वस्थ प्रसन्न हैं न? वहाँ की समस्याओं का समाधान हो गया न? अब पुन: तो नहीं पधारना है? अथवा ‘युद्ध में कहीं कोई कठिन घाव तो नहीं लगा?’  आदि आदि कुशल प्रश्न पूछते हुये उन्हें गिरधर लाल के पास ले जातीं, वहाँ आरती उतारकर, तिलक लगाकर चरणामृत प्रसाद देतीं।स्नान करने के पश्चात अपने सामने ही भोजन करवा कर विश्राम के लिए आग्रह करतीं।
‘आज किसका उत्सव है’- एकबार उन्होंने ऐसे ही युद्ध से लौटकर पूछा।
‘आपकी विजय का’- मीरा ने कहा।
‘मेरी विजय नहीं हुकुम मेवाड़ की विजय फरमाईये।मनुष्य की जीत तो मन को जीतने से होती हैऔर मैं इसमें अब तक सफल नहीं हुआ हूँ।’
‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता’- मीरा ने कहा।
‘वह इसलिए कि मनुष्य अपने जैसा ही सबको समझता है।’
‘क्यों आपको इसमें क्या कठिनाई लगती है’- मीरा ने पूछा।
‘आपका पूजा-पाठ, सत्संग और भावावेश देखता हूँ, तो बुद्धि कहती है कि यह सब निरर्थक नहीं है। इतने पर भी विश्वास नहीं होता।’
‘किस पर मुझ पर या.....।’
‘ईश्वर पर।यदि यों कहूँ कि पहले तो फिर भी एकलिंग नाथ पर था थोड़ा बहुत विश्वास, पर अब तो चारों ओर ही सूनाड़ हो गई है।’ - भोजराज ने निःश्वास छोड़ा।
‘ कोई कारण इस स्थिति का’
‘अविश्वास के तो बहुत कारण हैं किंतु हजार समझाने पर भी बिना अनुभव के विश्वास के पैर नहीं जमते।’
‘मेरे कहने या मुझे देखकर भी नहीं’
‘नहीं ‘
‘हठ है यह’
‘नही मैं विश्वास करना तो चाहता हूँ पर बार बार वह प्रश्न चिन्ह का रूप धारण कर लेता है’
‘कोई विशेष प्रश्न है’
‘नहीं, बस यही कि कहाँ हैं? किसने देखा है? और है तो उसका क्या प्रमाण है? मैं अपनी शक्ति भर इन सब प्रश्नों के उत्तर देता हूँ किंतु ढाक के तीन पात।मेरी समझ में विश्वास करो’ यों कहने वालों को विश्वास कराना भी आना चाहिए।अधिकारी को केवल संकेत ही पर्याप्त होता होगा परंतु साधारण के लिए विशेष प्रक्रिया या विशेष कृपा की आवश्यकता रहती है, अन्यथा समझाने से तो कुछ भी नहीं होता।भले मन उस समय मान जाये किंतु अनुभव में आये बिना और वह भी ऐसा अनुभव कि कभी भुलाया न जा सके, तभी धारण दृढ़ होगी।बिना विश्वास के की गई साधना अपने को और अन्य को भी धोखा देना है।’- भोजराज कह कर चप हो गये।

‘पहले आप अपनी बात फरमाईये कि क्या कठिनाई होती है?’- मीरा ने पूछा।
 ‘आपको बुरा लगेगा’- भोजराज ने संकोचपूर्वक कहा- ‘किंतु सच कहे बिना तो छुटकारा है नहीं ।बहुत प्रयत्न करने पर भी ध्यान में सम्मुखीन मूर्ति ही मन के सिंहासन पर विराजित दिखाई देती है।’- भोजराज दृष्टि झुकाये हुये कह गये।उनका मुख लाल हो गया था।
‘कोई लालस इच्छा रहती है?’ मीरा ने पूछा।
‘नहीं केवल दर्शन की, प्रसन्न करने की.....।’
 ‘क्या मेरी प्रसन्नता के लिए भी आप प्रभु का स्मरण नहीं कर सकते?’
‘वही तो करने का प्रयत्न कर रहा हूँ अब तक। किंतु जैसे श्रीगीता जी में वर्णित है कि विराट पुरुष की देह में ही संसार है, जैसे आकाश में भिन्न भिन्न आकार के बादल दिखाई देते हैं, वैसे ही आपकी पृष्ठभूमि में मुझे अपना कर्तव्य, राजकार्य दिखाई देते हैं, किन्तु कभी भगवान नहीं दिखाई दिये।’
क्रमशः

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